फिल्‍म समीक्षा : मदारी


किस की जवाबदेही

-अजय ब्रह्मात्‍मज

देश में आए दिन हादसे होते रहते हैं। उन हादसों के शिकार देश के आम नागरिकों का ऐसा अनुकूलन कर दिया गया है कि वे इसे नसीब,किस्‍मत और भग्‍य समझ कर चुप बैठ जाते हैं। जिंदगी जीने का दबाव इतना भारी है कि हम हादसों की तह तक नहीं जाते। किसे फुर्सत है? कौन सवाल करें और जवाब मांगे। आखिर किस की जवाबदेही है? निशिकांत कामत की मदारी कुछ ऐसे ही साधारण और सहज सवालों को पूछने की जिद्द करती है। फिल्‍म का नायक एक आम नागरिक है। वह जानना चाहता है कि आखिर क्‍यों उसका बेटा उस दिन हादसे का शिकार हुआ और उसकी जवाबदेही किस पर है? दिन-रात अखबारों और चैनलों की सुर्खियां बन रहे हादसे भुला दिए जाते हैं। मदारी में ऐसे ही कुछ सवालों से सिस्‍टम को कुरेदा गया है। जो सच सामने आया है,वह बहुत ही भयावह है। और उसके लिए कहीं ना कहीं हम सभी जिम्‍मेदार हैं। हम जो वोटर हैं।चुपचाप दबा रहके अपनी दुनिया में खोए रहनेनेवाला... हम जो नेताओं और पार्टियों को चुनते हैं और उन्‍हें सरकार बनाने के अवसर देते हैं। मदारी में यही वोटर अपनी दुनिया से निकल कर सिस्‍टम के नुमांइदों की दुनिया में घुस जाता है तो पूरा सिस्‍टम बौखला जाता है। हड़कंप मच जाता है।
हिंदी में सिस्‍टम पर सवाल करने वाली फिल्‍में बनती रही हैं। कई बार अपने निदान और समाधान में वे अराजक हो जाती हैं। मदारी इस मायने में अलग है कि वह सिस्‍टम के भविष्‍य और उत्‍तराधिकारी को आगाह करती है। उसे साथ लेकर चलती है। एक उम्‍मीद जगाती है। अभी नहीं तो पांच,दस या पंद्रह सालों में स्थितियां बदलेंगी। मदारी राजनीतिक सोच की फिल्‍म है। य‍ह फिल्‍म किसी एक राजनीतिक पार्टी या विचार के विरोध या पक्ष में नहीं है। यह पूरे सिस्‍टम पर कटाक्ष करती है,जिसमें सरकार डेवलपर और ऑपोजिशन ठेकेदार की भूमिका में आ गए हैं। निशिकांत कामत ने फिल्‍म में किसी युक्ति से काम नहीं लिया है। रितेश शाह की स्क्रिप्‍ट उन्‍हें इजाजत भी नहीं देती। फिल्‍म सरत तरीके से धीमी चाल में अपने अंत तक पहुंचती है। लेखक-निर्देशक ने सिनेमाई छूट भी ली है। कुछ दृश्‍यों में कोर्य-कारण संबंध नहीं दिखाई देते। इस सिनेमाई समर में निशिकांत कामत के पास सबसे कारगर अस्‍त्र इरफान हैं। इरफान की अदाकरी इस परतदार फिल्‍म को ऊंचाइयों पर ले जाती है,प्रभावित करती है और अपने उद्देश्‍य में सफल रहती है। मदारी सोशल और पॉलिटिकल थ्रिलर है।
बाज चूजे पर झपटा...उठा ले गया-कहानी सच्‍ची लगती है लेकिन अच्‍छी नहीं लगती। बाज पे पलटवार हुआ कहानी सच्‍ची नहीं लगती लेकिन खुदा कसम बहुत अच्‍छी लगती है।... फिल्‍म के आरंभ में व्‍यक्‍त निर्मल का यह कथन ही फिल्‍म का सार है। यह चूजे का पलटवार है। सच्‍ची नहीं लगने पर भी रोचक और रोमांचक है। मध्‍यवर्गीय निर्मल कुमार जिंदगी की लड़ाई में जीने के रास्‍ते और बहाने खोज कर अपने बेटे के साथ खुश और संतुष्‍ट है। एक हादसे में बेटे को खाने क बाद वह कुछ सवाल करता है। उन सवालों की जवाबदारी के लिए वह सिस्‍टम के तुमाइंदों को अपने कमरे में आने के लिए मजबूर करता है और फिर उनके जवाबों से पूरे देश को वाकिफ कराता है। गृह मंत्री एक बार बोल ही जाते हैं,सच,सच डरावना है-दिल दहल जाएगा-सरकार भ्रष्‍ट है,सच नहीं है-भ्रष्‍टाचार के लिए ही सरकार,यह सच है। एक दूसरा नेता जवाबदेही के सवाल पर सिस्‍टम के रवैए को स्‍पष्‍ट करता है। जवाबदेही का मतलब उधर पार्लियामेंट में-चुनाव के मैदान में-गली-गली जाकर एक-एक आदमी को जवाब देना नहीं है।निर्मल कुमार 120 करोड़ लोगों के प्रति जवाबदेही की बात करता है तो जवाब मिलता है...एक सौ बीस करोड़- मैथ्‍स ही गड़बड़ है तुम्‍हारा-हां,बंटे हुए हो तुम सब-जाति,धर्म,प्रांत...एक सौ बीस करोड़ नहीं,टुकड़े,टुकड़े,टुकड़े में बंटे हुए हो....तभी तो हम रौंद रहे हैं तुम को जूतियों के नीचे....नहीं डरते 120 करोड़ से हम। फिल्‍म में ऐसे संवादों से हमरे समय का सच और सिस्‍टम का डरावना चेहरा फाश होता है। मदारी अपने सवालों से झकझोरती है। इरफान की रुलाई आम नागरिक की विवशता जाहिर करती है। बतौर दर्शक हम द्रवित होते हैं और निर्मल की मांग से जुड़ जाते हैं। निर्मल अपने अप्रोच में हिंसक नहीं है। निदान और समाधान से अधिक उसकी रुचि जवाब में है। वह जवाब चाहता है।
फिल्‍म के एक गीत दम दमा दम में इरशाद कामिल ने हमारे समय के यथार्थ को संक्षिप्‍त और सटीक अभिव्‍यक्ति दी है।
अवधि- 133 मिनट
स्‍टार- साढ़े तीन स्‍टार
  

 


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