दरअसल : रिकार्डिंग और डाक्युमेंटेशन
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों एक अनौपचारिक मुलाकात में अमिताभ बच्चन
ने मीडिा से शेयर किया कि अपने यहां डाक्यूमेंटेशन का काम नहीं के बराबर होता है।
गौर करें तो इस तरफ न तो सरकारी संस्थाओं का ध्यान है और न ही फिल्मी संस्थाओं
और संगठनों का। किसी के पास आंकड़े नहीं हैं। इन दिनों फिल्मों सं संबंधित किसी
भी जानकारी के लिए गूगल,विकीपीडिया और आईएमडीबी का सहारा लिया जाता है। वहां सब
कुछ प्रामाणिक तरीके से संयोजित नहीं किया गया है। कई बार ऐसा हुआ है कि कोई एक
गलत जानकारी ही चलती रहती है। यहां तक कि फिल्म बिरादरी के संबंधित सदस्य भी
उसमें सुधार की कोशिश नहीं करते हैं। खुद के प्रति ऐसी लापरवाही भारत में ही देखी
जा सकती है। कुछ लोगों का यह सब फालतू काम लगता है। यह एक दूसरे किस्म का अहंकार
है कि हम अपने बारे में सब कुछ क्यों लिखें और बताएं?
इतिहासकार बताते हैं कि देश में दस्तावेजीकरण की
परंपरा नहीं रही। हम मौखिक परंपरा के लोग हैं। सब कुछ सुनते और बताते रहे हें। उन्हें
लिपिबद्ध करने का काम बहुत बाद में किया गया। पहले महाकाव्यों और काव्य में
राजाओं की गौरव गाथाएं लिखी जाती थीं। उनमें सत्य और तथ्य से अधिक शौर्य का
विवरण रहता था। हां,मंगलों के जमाने में विधिवत लिखने का काम हुआ। भारत के अतीत के
बारे में अल बरुनी,ह्वेन सांग और फाह्यान के यात्राा विवरणों से ही जानकारियां
मिलती हैं। अग्रेजों के आने के बाद दस्तावेजीकरण का काम आरंभ हुआ। उन्होंने अच्छा-बुरा
सब कुछ लिखवाया और उसे संभाल कर रखा। उन्होंने अपने विरोध का भी विवरण सुरक्षित
रखा। उसकी व्याख्या वे अपने लाभ के हिसाब से करते रहे। तथ्यों को अपने हित में
ही प्रकाश में लाते रहे,लेकिन अभी पता चलता है कि उनके संग्रहालयों और पुस्तकालयों
में हर सामग्री उपलब्ध है।
सरकार अपनी गतिविधियों का ब्योरा तो रखती है। सारे
कागजात और दस्तावेज संगहालयों में रखे जाते हैं। जीवन और समाज के विभिन्न
क्षेत्रों की सामग्रियों का संचयन उसी तल्लीनता और गंभीरता के साथ नहीं किया गया
है। सरकारी दफ्तरों से खबर आती है कि जरूरी फाइलें गायब हो गई हैं। कला और फिल्म
के क्षेत्र में दस्तावेजीकरण पर आजादी के बाद भी ध्यान नहीं दिया गया है। आप
अपने घर-परिवार में ही देख लें। घर के अलबम समय बीतने के साथ खो या गल जाते हैं।
हम अपने अग्रजों और पूर्वजों की यादें भी यत्न से नहीं रख पाते।
फिल्मों की बात करें तो राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय
पूना में है। वहां फिल्मों से संबंधित दस्तावेज हैं। वे बहुत अच्छी हालत में
नहीं हैं। कभी पीके नायर ने व्यक्तिगत प्रयास और रुचि से उसे विकसित किया था। एक
बार अमिताभ बच्चन ने ही बताया था कि उन पर रिसर्च करने के लिए कोई वहां गया तो
उसे फिल्मी पत्रिकाओं के नाम पर केवल स्टारडस्ट की प्रतियां मिलीं। इसमें
अतिवादिता हो सकती है,लेकिन सच इसके करीब ही है। फिल्मी सामग्रियों और दस्तावेजों
के व्यवस्थ्ति संगहालय नहीं हैं। फिल्मी परिवारों के लोग अपने पूर्वजों की थाती
संभाल कर नहीं रखते और उन्हें सरकारी संग्रहालयों के सुपुर्द भी नहीं करते। नतीजा
यह होता है कि कुछ सालों और दशकों के बाद सारी चीजें लुप्त हो जाती हैं। आरके स्टूडियो
में राज कपूर की फिल्मों के कॉस्ट्यम कुछ आलमारियों में किसी ड्रायक्लीनिंग शॉप
के कपड़ों की तरह रखे गए हैं। महबूब खान के स्टूडियों के इतिहास पर किसी का ध्यान
नहीं है। मुंबई के पुराने स्टूडियो के अब नाम-ओ-निशान नहीं हैं। जरूरत है कि हम
सभी इस दिशा में ध्यान दें।
कुछ लोगों को यह बात अजीब लगती है। आप अमिताभ बच्चन
से मिलने जाएं तो उनके निजी फोटोग्राफर और वीडियोग्राफर सब कुछ रिकार्ड और डाक्यूमेंट
कर रहे होते हैं। वे दस्तावेजीकरण का महत्व समझ रहे हैं। अच्छी बात हैकि कल की
अभिनेत्री आलिया भट्ट भी इस तरफ ध्यान दे रही है। बाकी कलाकारों,निर्देशकों और
तकनीशियनों को भी दस्तावेजीकरण पर ध्यान देना चाहिए।
Comments