नहीं चला तीन का तुक्का . पूजा श्रीवास्तव
-पूजा श्रीवास्तव
अमिताभ बच्चन हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के शायद अकेले एैसे कलाकार हैं जो छोटी और महत्वहीन भूमिका में भी अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करते हैं। लेकिन उनके खाते भी एैसी बहुत सी फिल्में हैं जो उनकी सशक्त उपस्थिति के बावजूद दर्शकों द्वारा नकार दी गई हैं। हाल ही में आई तीन एक ऐसी ही फिल्म है जिसका पूरा बोझ अमिताभ बच्चन अकेले ही अपने कंधे पर ढोते हुए दिखाई देते हैं। एैसा नहीं है कि फिल्म में बेहतर कलाकारों की कमी हो। मगर विद्या बालन ,नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, सव्यसाची चक्रवर्ती जैसे सशक्त कलाकारों से सजी ये फिल्म, स्क्रिप्ट और उसके ट्रीटमेंट के स्तर पर मात खा गई है।
फिल्म दक्षिण कोरियाई फिल्म मोटांज से प्रेरित है। वैसे भी अपने देश में सस्पेन्स और थ्रिल से भरपूर फिल्मों का बेहद अभाव है। जो इक्का दुक्का फिल्में बनती भी हैं उनमें थ्रिल और सस्पेन्स से ज़्यादा उत्तेजक दृश्यों का तड़का लगा होता है। इसलिए गंभीर दर्शक ऐसी फिल्मों से कन्नी काटते हैं। फिल्म तीन के प्रति आकर्षण की वजह इसका कथानक तो था ही, इसके कलाकार भी हैं। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने अपनी पिछली फिल्मों से ये साबित कर दिया है कि वे इन्डस्ट्री के बेहद सशक्त कलाकार हैं , वहीं विद्या बालन ने भी डर्टी पिक्चर और कहानी जैसी फिल्मों से अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। लेकिन इस फिल्म में ये दोनों ही मिसफिट से लगे हैं।
फिल्म शुरु होती है कलकत्ता शहर के एक पुलिस स्टेशन से। जहां जॅान विस्वास का किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन आठ साल पहले हुए अपनी नातिन के अपहरण के विषय में पूछताछ करते हुए दिखते हैं।़ पहले ही दृश्य से ऐसा लगने लगता है कि जॉन विस्वास के किरदार को सहानुभूति दिलाने के लिए ही उन्हें बूढ़ा और लाचार दिखाया गया है । इसके लिए उन्हें ओवर साइज़ कपड़े पहनाए गए हैं , चेहरे की झुर्रियों को मेकअप से ढंकने की नहीं बल्कि उभारने की कोशिश की गई है। जॉन विस्वास एक एैसा किरदार है जो अपनी कमजोरियों और लाचारियों के बावजूद संघर्षरत है। कुछ कुछ कहानी फिल्म की विद्या बालन जैसा जो गर्भवती होने के बावजूद अपने पति की तलाश में दर दर भटकती है।
फिल्म की शुरुआत में ही हमारी मुलाकात विद्या बालन से होती है जो कि एक पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं लेकिन अपने पहनावे और बॉडी लैंग्वेज से वे कहीं भी अपनी इस भूमिका के प्रति विश्वसनीयता नहीं जगा पातीं। कमोवेश ऐसा ही कुछ हाल नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी का भी है। उनकी ये शायद पहली ऐसी फिल्म होगी जिसमें उन्हें देख कर ऐसा लगा मानों वो एक्टिंग ही कर रहे हों । चरित्र के साथ एकाकार हो जाने की उनकी प्रवृत्ति यहां बिल्कुल अनुपस्थित है। इस फिल्म में वो एक ऐसे पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं जोेे अपने अपराध बोध के चलते पादरी बन गया है।
फिल्म में विद्या बालन और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को देखकर कई बार ऐसा लगता है मानो उन्हें फिल्म की स्क्रिप्ट पर विश्वास ही नहीं था और वे बेमन से फिल्म कर रहे हों। पूरी फिल्म में विद्या बालन ने एक जैसा एक्सप्रेशन दिया है। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि फिल्म की स्क्रिप्ट में कोई दम नहीं है। चरित्रों को भी गढ़ने, उन्हें विस्तार और गहराई देने में श्रम की बेहद कमी दिखाई देती है। सब कुछ सतही और काम चलाऊ है। किसी भी थ्रिलर फिल्म में रहस्यात्मकता और नाटकीयता पैदा करने में संवाद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन यह फिल्म इस मोर्चे पर भी विफल होती दिखती है। संवाद इतने सीधे और सपाट हैं कि कई बार ऊब और खीज पैदा करते हैं।
इसके अलावा भी फिल्म में बहुत सारे झोल हैं। जैसे जॅान विस्वास की बेटी की मौत और उनकी पत्नी के अचानक व्हील चेअर पर आ जाने के घटना के बारे में लेखक,निर्देशक ने दर्शकों कोई भी जानकारी नहीं दी है। इसकी वजह से किरदारों से कनेक्ट करने और उनके भागीदार बनने में अड़चन महसूस होती है। फिल्म का बैकगा्रउन्ड कलकत्ता का है। मगर फिल्म देखते वक्त कई बार ऐसा लगता है मानों हम कलकत्ता नहीं बल्कि गोवा की कहानी देख रहे हैं। कलकत्ता शहर का फील ,उसकी खुश्बू फिल्म से नदारद है।
फिल्म के अन्त में अमिताभ बच्चन को मास्टर माइंड और सव्यसाची चक्रवर्ती को मुख्य अपहरणकर्ता के रुप में पचाना भी थोड़ा सा मुश्किल लगता है। इतना ही नहीं पेशेवर अपराधियों की तरह प्लानिंग करना और युवाओं की तरह उनका पुलिस को चकमा देकर भाग निकलना इसे और भी संदिग्ध और अविश्वसनीय बनाता है। निर्देशक ने इसे जस्टिफाइड करने का भी कोई प्रयास नहीं किया है। कुल मिला कर फिल्म बेहद निराश करती है। फिर भी अमिताभ बच्चन जी की ऊर्जा उनकी लगन के लिए यह फिल्म एक बार तो देखी जा सकती है।
अमिताभ बच्चन हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के शायद अकेले एैसे कलाकार हैं जो छोटी और महत्वहीन भूमिका में भी अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करते हैं। लेकिन उनके खाते भी एैसी बहुत सी फिल्में हैं जो उनकी सशक्त उपस्थिति के बावजूद दर्शकों द्वारा नकार दी गई हैं। हाल ही में आई तीन एक ऐसी ही फिल्म है जिसका पूरा बोझ अमिताभ बच्चन अकेले ही अपने कंधे पर ढोते हुए दिखाई देते हैं। एैसा नहीं है कि फिल्म में बेहतर कलाकारों की कमी हो। मगर विद्या बालन ,नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, सव्यसाची चक्रवर्ती जैसे सशक्त कलाकारों से सजी ये फिल्म, स्क्रिप्ट और उसके ट्रीटमेंट के स्तर पर मात खा गई है।
फिल्म दक्षिण कोरियाई फिल्म मोटांज से प्रेरित है। वैसे भी अपने देश में सस्पेन्स और थ्रिल से भरपूर फिल्मों का बेहद अभाव है। जो इक्का दुक्का फिल्में बनती भी हैं उनमें थ्रिल और सस्पेन्स से ज़्यादा उत्तेजक दृश्यों का तड़का लगा होता है। इसलिए गंभीर दर्शक ऐसी फिल्मों से कन्नी काटते हैं। फिल्म तीन के प्रति आकर्षण की वजह इसका कथानक तो था ही, इसके कलाकार भी हैं। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने अपनी पिछली फिल्मों से ये साबित कर दिया है कि वे इन्डस्ट्री के बेहद सशक्त कलाकार हैं , वहीं विद्या बालन ने भी डर्टी पिक्चर और कहानी जैसी फिल्मों से अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। लेकिन इस फिल्म में ये दोनों ही मिसफिट से लगे हैं।
फिल्म शुरु होती है कलकत्ता शहर के एक पुलिस स्टेशन से। जहां जॅान विस्वास का किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन आठ साल पहले हुए अपनी नातिन के अपहरण के विषय में पूछताछ करते हुए दिखते हैं।़ पहले ही दृश्य से ऐसा लगने लगता है कि जॉन विस्वास के किरदार को सहानुभूति दिलाने के लिए ही उन्हें बूढ़ा और लाचार दिखाया गया है । इसके लिए उन्हें ओवर साइज़ कपड़े पहनाए गए हैं , चेहरे की झुर्रियों को मेकअप से ढंकने की नहीं बल्कि उभारने की कोशिश की गई है। जॉन विस्वास एक एैसा किरदार है जो अपनी कमजोरियों और लाचारियों के बावजूद संघर्षरत है। कुछ कुछ कहानी फिल्म की विद्या बालन जैसा जो गर्भवती होने के बावजूद अपने पति की तलाश में दर दर भटकती है।
फिल्म की शुरुआत में ही हमारी मुलाकात विद्या बालन से होती है जो कि एक पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं लेकिन अपने पहनावे और बॉडी लैंग्वेज से वे कहीं भी अपनी इस भूमिका के प्रति विश्वसनीयता नहीं जगा पातीं। कमोवेश ऐसा ही कुछ हाल नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी का भी है। उनकी ये शायद पहली ऐसी फिल्म होगी जिसमें उन्हें देख कर ऐसा लगा मानों वो एक्टिंग ही कर रहे हों । चरित्र के साथ एकाकार हो जाने की उनकी प्रवृत्ति यहां बिल्कुल अनुपस्थित है। इस फिल्म में वो एक ऐसे पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं जोेे अपने अपराध बोध के चलते पादरी बन गया है।
फिल्म में विद्या बालन और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को देखकर कई बार ऐसा लगता है मानो उन्हें फिल्म की स्क्रिप्ट पर विश्वास ही नहीं था और वे बेमन से फिल्म कर रहे हों। पूरी फिल्म में विद्या बालन ने एक जैसा एक्सप्रेशन दिया है। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि फिल्म की स्क्रिप्ट में कोई दम नहीं है। चरित्रों को भी गढ़ने, उन्हें विस्तार और गहराई देने में श्रम की बेहद कमी दिखाई देती है। सब कुछ सतही और काम चलाऊ है। किसी भी थ्रिलर फिल्म में रहस्यात्मकता और नाटकीयता पैदा करने में संवाद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन यह फिल्म इस मोर्चे पर भी विफल होती दिखती है। संवाद इतने सीधे और सपाट हैं कि कई बार ऊब और खीज पैदा करते हैं।
इसके अलावा भी फिल्म में बहुत सारे झोल हैं। जैसे जॅान विस्वास की बेटी की मौत और उनकी पत्नी के अचानक व्हील चेअर पर आ जाने के घटना के बारे में लेखक,निर्देशक ने दर्शकों कोई भी जानकारी नहीं दी है। इसकी वजह से किरदारों से कनेक्ट करने और उनके भागीदार बनने में अड़चन महसूस होती है। फिल्म का बैकगा्रउन्ड कलकत्ता का है। मगर फिल्म देखते वक्त कई बार ऐसा लगता है मानों हम कलकत्ता नहीं बल्कि गोवा की कहानी देख रहे हैं। कलकत्ता शहर का फील ,उसकी खुश्बू फिल्म से नदारद है।
फिल्म के अन्त में अमिताभ बच्चन को मास्टर माइंड और सव्यसाची चक्रवर्ती को मुख्य अपहरणकर्ता के रुप में पचाना भी थोड़ा सा मुश्किल लगता है। इतना ही नहीं पेशेवर अपराधियों की तरह प्लानिंग करना और युवाओं की तरह उनका पुलिस को चकमा देकर भाग निकलना इसे और भी संदिग्ध और अविश्वसनीय बनाता है। निर्देशक ने इसे जस्टिफाइड करने का भी कोई प्रयास नहीं किया है। कुल मिला कर फिल्म बेहद निराश करती है। फिर भी अमिताभ बच्चन जी की ऊर्जा उनकी लगन के लिए यह फिल्म एक बार तो देखी जा सकती है।
Comments
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'