फिल्‍म समीक्षा : उड़ता पंजाब

-अजय ब्रह्मात्‍मज
(हिंदी फिल्‍म के रूप में प्रमाणित हुई उड़ता पंजाब की मुख्‍य भाषा पंजाबी है। एक किरदार की भाषा भोजपुरी है। बाकी संवादों और संभाषणों में पंजाबी का असर है।)
विवादित फिल्‍मों के साथ एक समस्‍या जुड़ जाती है। आम दर्शक भी इसे देखते समय उन विवादित पहलुओं पर गौर करता है। फिल्‍म में उनके आने का इंतजार करता है। ऐसे में फिल्‍म का मर्म छूट जाता है। उड़ता पंजाब और सीबीएफसी के बीच चले विवाद में पंजाब,गालियां,ड्रग्‍स और अश्‍लीलता का इतना उल्‍लेख हुआ है कि पर्दे पर उन दृश्‍यों को देखते और सुनते समय दर्शक भी जज बन जाता है और विवादों पर अपनी राय कायम करता है। फिल्‍म के रसास्‍वादन में इससे फर्क पड़ता है। उड़ता पंजाब के साथ यह समस्‍या बनी रहेगी।
उड़ता पंजाब मुद्दों से सीधे टकराती और उन्‍हें सामयिक परिप्रेक्ष्‍य में रखती है। फिल्‍म की शुरूआत में ही पाकिस्‍तानी सीमा से किसी खिलाड़ी के हाथों से फेंका गया डिस्‍कनुमा पैकेट जब भारत में जमीन पर गिरने से पहले पर्दे पर रुकता है और उस पर फिल्‍म का टायटल उभरता है तो हम एकबारगी पंजाब पहुंच जाते हैं। फिल्‍म के टायटल में ऐसी कल्‍पनाशीलता और प्रभाव दुर्लभ है। यह फिल्‍म अभिषेक चौबे और सुदीप शर्मा के गहरे कंसर्न और लंबे रिसर्च का परिणाम है। कहना आसान है कि फिल्‍म डाक्‍यूमेंट्री का फील देती है। जब आप हिंदी फिल्‍मों की प्रचलित प्रेम कहानी से अलग जाकर सच्‍ची घटनाओं और समसामयिक तथ्‍यों को संवादों और वास्‍तविक चरित्रों को किरदारों में बदलते हैं तो इस प्रक्रिया में कई नुकीले कोने छूट जाते हें। वे चुभते हैं। और यही ऐसी फिल्‍मों की खूबसूरती होती है। हो सकता है कि पंजाब के दर्शकों का फिल्‍म देखते हुए कोई हैरानी नहीं हो,लेकिन बाकी दर्शकों के लिए यह हैरत की बात है। कैसे देश का एक इलाका नशे की गर्त में डूबता जा रहा है और हम उसे नजरअंदाज करना चाहते हैं। बेखबर रहना चाहते हैं। अगर एक फिल्‍मकार साहस करता है तो सरकारी संस्‍थाएं अड़ंगे लगाती है।
उड़ता पंजाब टॉमी सिंह(शाहिद कपूर),बिहारिन मजदूर(आलिया भट्ट,सरताज(दिलजीत दोसांझ),प्रीत सरीन(करीना कपूर खान) और अन्‍य किरदारों से गुंथी पंजाबी सरजमीन की कहानी है। उड़ता पंजाब में सरसों के लहलहाते खेत और भांगड़ा पर उछलते-कूदते और बल्‍ले-बल्‍ले करते मुंडे और कुडि़यां नहीं हैं। इस फिल्‍म में हिंदी फिल्‍मों और पॉपुलर कल्‍चर से ओझल पंजाब है। ड्रग्‍स के नशे में डूबा और जागरुक होता पंजाब है। उड़ता पंजाब पंजाब की सच्‍ची झलक पेश करती है। वह निगेटिव या पॉजीटिव से ज्‍यादा जरूरी है। फिल्‍मों का काम सिर्फ गुदगुदाना ही तो नहीं है। झिंझोरना और अहसास करना भी तो है। उड़ता पंजाब में अभिषेक चौबे कुछ सीमाओं के साथ सफल रहते हैं। निश्चित ही इसमें उन्‍हें सहयोगी लेखक सुदीप शर्मा,संगीतकार अमित त्रिवेदी,गीतकार शेली,शिवकुमार बटालवी और वरूण ग्रोवर व अन्‍य तकनीकी टीम से पूरी मदद मिली है।
शाहिद कपूर ने टॉमी सिंह की उलझनों को अच्‍छी तरह पर्दे पर उतारा है। शाहिद लगातार किरदारों का आत्‍मसात करने और उन्‍हें निभाने में अपनी हदें तोड़ रहे हैं। इस फिल्‍म में उनका किरदार परिस्थितियों में फंसा और जूझता गायक है,जो लोकप्रियता की खामखयाली में उतराने के बाद धप्‍प से खुरदुरी जमीन पर गिरता है तो उसे अपनी गलतियों का अहसास होता है। वह संभलता और अहं व अहंकार से बाहर निकल कर किसी और के लिए पसीजता है। शाहिद कपूर की मेहनत सफल रही है। किरदार की अपनी दुविधाएं हैं,जो लेखक और निर्देशक की भी हैं। बिहारिन मजदूर के रूप में आलिया भट्ट की भाषा और बॉडी लैंग्‍वेज की कमियां ईमानदार कोशिश से ढक जाती है। भोजपुरी बोलने में लहजा परफेक्‍ट नहीं है और बॉडी लैंग्‍वेज में हल्‍का सा शहरीपन है। फिर भी आलिया की इस कोशिश की तारीफ करनी होगी कि वह किरदार में ढलती हैं। दिलजीत दोसांझ पुलिस अधिकारी की भूमिका में सहज और स्‍वाभाविक हैं। उनके बॉस के रूप में आए कलाकार मानव भी ध्‍यान खींचते हैं। लंबे समय के बाद सतीश कौशिक का सदुपयोग हुआ है। इस फिल्‍म में प्रीत सरीन के किरदार पर दूसरे किरदारों की तरह ध्‍यान नहीं दिया गया है। प्रीत और सरताज की बढ़ती अनुभूतियों और नजदीकियों में भी लेखक-निर्देशक नहीं रमे हैं। यही कारण है कि जब-जब कहानी शाहिद-आलिया के ट्रैक से जब दिलजीत-करीना के ट्रैक पर शिफ्ट करती है तो थोड़ी सी फिसल जाती है।
अच्‍छी बात है कि उड़ता पंजाब में ड्रग्‍स और नशे को बढ़ावा देने वाले दृश्‍य नहीं है। डर था कि फिल्‍म में उसे रोमांटिसाइज न कर दिया गया हो। फिल्‍म के हर किरदार की व्‍यथा ड्रग्‍स के कुप्रभाव के प्रति सचेत करती है। महामारी की तरह फैल चुके नशे के कारोबार में राजनीतिज्ञों,सरकारी महकमों,पुलिस और समाज के आला नागरिकों की मिलीभगत और नासमझी को फिल्‍म बखूबी रेखांकित और उजागर करती है।
गीत-संगीत उड़ता पंजाब का खास चमकदार और उल्‍लेखनीय पहलू है। अमित त्रिवेदी ने फिल्‍म की कथाभूमि के अनुरूप संगीत संजोया है।
(फिल्‍म की मुख्‍य भाषा इसकी लोकप्रियता में अड़चन हो सकती है। मुंबई में पंजाबी के अंग्रेजी सबटायटल थे। क्‍या हिंदी प्रदेशों में हिंदी सबटायटल रहेंगे?)
अवधि- 148 मिनट
स्‍टार- चार स्‍टार

Comments

shaandaar samiksha...shukriya
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-06-2016) को "स्कूल चलें सब पढ़ें, सब बढ़ें" (चर्चा अंक-2378) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Shakti Sarthya said…
नमस्कार सर...

मैं आपके द्वारा लिखी समीक्षायें अक्सर अखबारों में पढ़ता रहता हूं... मुझे फिल्में देखने का बहुत बड़ा शौक है... मैं थोड़ा-बहुत लेखन कार्य कविता के रूप में कर लेता हूं... सर मैं फिल्म इण्डस्ट्रीज से जुड़ना चाहता हूं... समझ नहीं पा रहा कि मैं कैसे कैरियर बनाऊं इसमें..

शक्ति सिंह

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