सवाल पूछना मेरे सिस्टम में है - निशिकांत कामत
-अजय ब्रह्मात्मज
यकीन करते हैं इरफान
इरफान और मैंने १९९४ में एक साथ काम
किया था। तब मैं
नया-नया डायरेक्टर बना था। इरफान भी नए-नए एक्टर थे। वह तब टीवी में काम करते थे। उसके
चौदह साल बाद हम ने मुंबई मेरी जान
में काम किया। अभी तकरीबन सात साल बाद मदारी में फिर से साथ हुए। हमारी
दोस्ती हमेशा से रही है। एक दूसरे के प्रति परस्पर आदर का भाव रहा है। इत्तफाक की
बात है कि मदारी की स्क्रिप्ट मेरी नहीं थी। इरफान ने यह स्क्रिप्ट रितेश
शाह के साथ तैयार की थी। एक दिन इरफान ने मुझे फोन किया कि एक स्क्रिप्ट पर बात
करनी है। वह स्क्रिप्ट मदारी की थी। इरफान साहब को लगा कि मदारी
मुझे डायरेक्ट करनी चाहिए। इस तरह मदारी की प्रक्रिया शुरू हुई। इस बातचीत के छह महीने बाद
फिल्म की शूटिंग शुरू हो गई। मेरे लिए यह अब तक की सबसे जटिल स्क्रिप्ट यह मल्टीलेयर
फिल्म है। मैं कई बार स्क्रिप्ट पढ़ चुका था। मैं स्क्रिप्ट हर सिरे और लेयर को
पकड़ने की कोशिश कर रहा था। डर था कि कहीं कुछ मिस तो नहीं हो रहा है।
मदारी की कहानी
एक स्तर पर यह बाप
और बेटे की कहानी है। उनका मजबूत रिश्ता होता है। जब नया बच्चा अपने माता-पिता की
जिंदगी में आता है,वही उनकी दुनिया बन जाता है। फिर वे बच्चे की परवरिश करते हैं।
इरफान ने बहुत ज्यादा इनपुट दिए। इरफान के दो बेटे हैं। अगर बच्चा पांच मिनट देरी
से भी घर आए तो माता –पिता की हालत खराब हो जाती है। सारे बुरे खयाल आते हैं। फिर
आठ साल के बच्चे का नजरिया क्या होता है ? आप उसे कैसे
मैनेज करते हैं। मदारी में एक हादसा होता है। उस हादसे का एक आदमी पर क्या असर
होता है? कैसे उसकी जिंदगी बदलती है? हर हादसे को इंसान दो या तीन तरीके से देख सकता
है। पहला,वह मान सकता है कि जो हुआ उसमे भगवान की मर्जी थी। दूसरा,वह खुद गिल्ट
में चला जाता है। मेरी वजह से हुआ। तीसरा,कोई होता है जो सवाल उठाता है। ऐसा क्यों
हुआ? और मेरे साथ ही क्यों हुआ?
समकालीन फिल्म है
मदारी
यह फिल्म एक कॉमन
आदमी की कहानी है। वह सिस्टम पर सवाल उठाता है। यह मेरी गलती है। यह भगवान की मर्जी
है। यह किसी और की गलती है। आखिर यह है क्या? कोई तो मुझे
जवाब दें। मैं उदाहरण के तौर पर हमेशा कहता हूं कि मैं जिस रास्ते से घर से दफ्तर
आता हूं। वहीं पर हमेशा गड्ढे कैसे होते हैं। उन गड़्ढों को कैसे बंद किया जाता
है। वह फिर से गड्ढा कैसे बन जाता है। लेकिन मैं सवाल पूछ सकता हूं। वहां पर मेरी
ताकत खत्म हो जाती है। मुझे पता है कि मेरे ही दिए हुए टैक्स से गड्ढों को भरने का
काम किया जा रहा है। यह हर साल हो रहा है। एक ही बार क्यों नहीं हो जाता। यह मेरा
एक सवाल है। मैं इसे अगले स्तर पर नहीं ले जा सकता । पर एक आदमी तह तक जाने का तय
कर लें। तो वह आवाज बन जाता है। इसी के आस
पास की कहानी मदारी है।
यह समकालीन फिल्म
है। मैंने डोंबिवली फास्ट बनाई थी। उसकी कहानी एक आदमी की थी। वह आदमी सवाल
पूछता है और सिस्टम उसे निगल जाता है। यह फिल्म मैंने २००४ में बनाई थी। आज चल रहा
है २०१६। बारह साल के बाद भी मैं यह मानता हूं कि यह दोनों कहानी प्रासंगिक है। शायद
फिर जहन में सवाल उठता है कि जीवन भर ऐसा ही रहेगा।या आगे चलकर कुछ बदलेगा।
रोजमर्रा की आसपास
की कहानियां
मैं रोजमर्रा जिंदगी
से कहानियां उठाता हूं। शायद यह मेरे व्यक्तित्व की प्रवृत्ति है। मैं मिडिल क्लास
आदमी हूं। बचपन से ऐसे ही माहौल में रहा हूं। मेरा माता-पिता शिक्षक थे। उनकी
शिक्षा ईमानदारी और अनुशासन की थी। मेरे पास सिनेमा का मीडियम है,उसके जरिए मैं
अपनी बातें व्यक्त कर सकता हूं। हालांकि अभी मैं समाज में कोई बदलाव नहीं ला सकता।
मैं कुछ साबित नहीं करना चाहता हूं। मुझे निजी तौर पर जो लगता है,मैं वहीं कहता
हूं। मुझे लगता है कि सवाल पूछना चाहिए। मां और पिता के शिक्षक होने की वजह से सवाल
पूछना मेरे सिस्टम में आ गया है।
मेरी मुंबई मेरी
जान में मुंबई की कहानी थी। डोंबिवली
फास्ट भी मुंबई की कहानी थी। फोर्स मुंबई में थी। मराठी फिल्म लय
भारी में महाराष्ट्र के गांव की कहानी थी। दृश्यम गोवा में सेट थी। रॉकी
हैडसम गोवा में थी। मदारी आठ शहरों में सेट है। इस फिल्म में हम
अलग-अलग शहर घूम कर आए हैं। शुक्र है कि इस बार मुझे नार्थ की ही कहानी मिली है।
मैंने कोशिश की है। मैं खांटी नार्थ की कहानी पर फिल्में नहीं बना सकता। मैं वहां
की मिट्टी का नहीं हूं। मेरी दिल-ओ- जान से तमन्ना है कि मैं यूपी और बनारस पर कोई
फिल्म बनाऊं। लेकिन उसके लिए मुझे छह महीने वहां जाकर रहना होगा। स्क्रिप्ट और
डायलॉग के अलावा फिल्म में फील रहता है। मैंने डोंबिवली फास्ट की रीमेक
तमिल में बनाई। तमिल भाषा और समाज को जानने के लिए मैं पांच महीने चैन्नई में रहा।
हुनरमंद हैं इरफान
साहब
इरफान में कुछ खास
बातें हैं। बिना बोले भी उनके सीन परफेक्ट लग सकते हैं। वे अपनी बात बगैर संवादों
के कह सकते हैं। इरफान इसमें माहिर हैं। वे पूरे किरदार पर विचार करते हैं। उसे
समझते हें। किरदार क्या पहनेगा? कैसे चलेगा ? उसका बैकग्राउंड क्या है? इन सारी चीजों पर उनका बहुत अभ्यास है। हम
दोनों की आपसी समझ भी मजबूत है। कई बार एक - दो वाक्य में ही हम एक दूसरे की बात
समझ जाते थे। झट से सीन हो जाता था। इरफान साहब मेरी क्राफ्ट पर विश्वास करते है।
स्क्रिप्ट तो रहती ही है,पर उन्हें मेरे सिनेमैटिक सोच पर पूरा यकीन है। इरफान
हमेशा डायरेक्टर की सोच को विस्तार देते हैं। इरफान हमेशा भूखे , अनिश्चित और
फोकस रहते हैं। उनमें और मुझ मे एक समानता है। हम शॉट लेने तक खोजते रहते हैं।
स्क्रिप्ट में सब लिखा हुआ है। सेट भी तैयार है। पर हम कुछ ना कुछ तलाश करते रहते
हैं। कुछ मैजिक है,जो दिख नहीं रहा है। उसे खोजते रहते हैं। इरफान देश के ही नहीं
विश्व के बेहतरीन एक्टरों में से हैं। सिनेमा और मानवीय भावनाओं को समझने में उनकी
सोच बहुत साफ है।
मुंबई का अंडरवर्ल्ड
रामगोपाल वर्मा ने बेहतरीन
तरीके से मुंबई के अंडरवर्ल्ड को पर्दे पर दिखाया है। सत्या मुझे
याद है। तब तक मेरी पहली फिल्म नहीं आई थी। सत्या देखने के बाद मैंने महसूस
किया कि रामू ने जिस तरह मुंबई देखी है, मैंने उस तरह नहीं देखी है। इसलिए मैं आज ऑन
रिकॉर्ड कहता हूं कि जब तक मुझे सत्या से बेहतर स्क्रिप्ट नहीं मिलेगी। मैँ
मुंबई के गैंगस्टर पर फिल्म नहीं बनाऊंगा।
खास सीन
इस फिल्म में एक सीन
है। अस्पताल के कॉरिडोर में इरफ़ान साहब बैठे हैं। रात के दो बज रहे हैं।
मैंने इरफान साहब को सीन बताया। इरफान साहब ने कहा कि मैं नहीं कर पाऊंगा। उन्होंने
इस तरह से नहीं कहा कि मैं नहीं कर पाऊंगा।उनका मतलब था कि मैं यह सीन करूंगा तो
निचुड़ जाऊंगा। मैंने कहा कि सर करना तो पड़ेगा। आपको जितना समय चाहिए आप ले लें।
पूरे सेट पर आधे घंटे तक पिन ड्राप साइलेंस रहा। इरफान साहब से किसी ने बात तक
नहीं की। फिर उन्होंने साढ़े तीन मिनट का सीन किया। मैंने कट कहा। उसके बाद भी
पूरी यूनिट सन्न बैठी रही। इरफान साहब सीन करके कमरे में चले गए। एक घंटे के बाद
बाहर निकले। यह फिल्म का सबसे कठिन सीन है। माहौल ऐसा हो गया था कि एक आदमी भी
आवाज नहीं कर रहा था। लाइटमैन भी एकदम शांत रहे। इरफान ने अपनी अदायगी से सबको
शांत कर दिया।
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