अब सिनेमा से नदारद मेहनतकशों की कहानी

-अमित कर्ण

फैज अहमद फैज की गजल की एक पंक्ति है, ‘हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे, इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।‘ लब्बोलुआब यह कि कायदे से प्राकृतिक संसाधनों से लेकर दुनिया के तमाम सुख-साधनों पर पहला हक मजदूर वर्ग का होना चाहिए। हकीकत कुछ और है। वे हर तरफ से धकेले जाते रहे हैं। हर सदी में उनकी हैसियत लाचार शख्स की रही है। दुर्भाग्‍य से आज हालात और बदतर ही हुए हैं। वे समाज के साथ-साथ साहित्‍य व सिनेमा में भी हाशिए पर हैं। एक दौर था, जब मजदूरों के संघर्ष को लेकर बनी ‘दो बीघा जमीन’  ने पुरस्‍कारों की झड़ी लगा दी थी। कैदियों को श्रम की राह पर ला सुधारने की कहानी कहने वाली ‘दो आंखें बारह हाथ’ सैमुअल गोल्‍्डविन पुरस्कार मिला था। वह भी चार्ली चैप्लिन की ज्यूरी वाली टीम ने। ‘नया दौर’ में इंसान बनाम मशीन का मुद्दा केंद्र में था। वह बीआर चोपड़ा की सर्वोत्‍तम फिल्‍मों में से एक मानी गई। फिल्‍म में मशीनों पर मानवों की जीत दिखाई गई थी। उस जमाने का हीरो सिक्स पैक या आठ पैक वाला पहलवान नहीं होता था। हाफ स्लीव की कमीज वाला नायक ‘सब जन हिताय, सब जन सुखाय’ की बातें करता था। वह अक्सरहां ट्रेड यूनियनों का नेता होता था। उदाहरण के तौर ‘मजदूर’, ‘काला पत्थर’ व यहां तक कि ‘नमक हराम’ भी। ‘कुली’ का नायक रेलवे प्लेटफॉर्म पर काम करने वाल कुली था। वह किरदार आज का नायक नहीं हो सकता है। तब फिल्‍मकार व निर्माता समाजवादी विचारधारा से प्रेरित फिल्‍मों को तरजीह देते थे। सामाजिक समस्या पर फिल्म बनाकर समाज को आइना दिखाया जाता था। अब प्राथमिकताएं बदल गई हैं। नायक हैलीकॉप्टर-चॉपर से दस्तक देता है। वह आप्रवासी नागरिक कहलाने में गर्व महसूस करता है। स्टूडियो कल्‍चर की दुहाई दे फील गुड सिनेमा ही परोसा जा रहा है। मजदूर कहानियों से गायब है।

     सिने हिस्टोरियन जयप्रकाश चौकसे इसके लिए सिर्फ फिल्म बिरादरी को कसूरवार नहीं मानते। वे कहते हैं, ‘ पूरी सोसायटी में नैतिक मूल्यों का पतन हो गया है। कहानियों के नायक पूंजीपति हो गए हैं। श्रमिक के साथ-साथ किसान भी किस्से-कहानियों से गायब है। लिबरलाइजेशन  ने मिडिल क्लास के मूल्‍्य बदल दिए हैं। वह संस्‍कार व रीति-रिवाजों को लेकर चलता था। अब वही वर्ग शो-ऑफ कल्चर का हिस्सा बन चुका है। उनकी जिंदगी लोन के ईएमआई यानी इंस्टॉलमेंट पर कट रही है। उसे अनावश्‍यक चीजों में ज्‍यादा दिलचस्पी होने लगी है। बाजार ने उसे ख्‍वाहिशमंद बना दिया है। उसे जिंदगी की क्रूर हकीकतों से कोई लेना-देना नहीं है। वह मैटेरियलिस्टक हो चुका है। जमीन से जुड़ी सोच एक्सटिंक्ट हो चुकी है। जाहिर तौर पर जमीनी मसलों से जुड़े लोगों के संघर्ष उसे रोमांचित व इंस्पायर नहीं करते।‘ 

     सिने जानकार विनोद अनुपम कहते हैं, ‘ सिंगल थिएटर की  जगह मल्टीप्लेक्‍स ने ले ली है। वहां वही लोग जाते हैं, जिनकी खरीद क्षमता है। वहां कम आय वर्ग वाला वर्ग नहीं जाता। मल्टीप्‍लेक्स आमतौर पर मॉल में होते हैं। और मॉल में जिस तरह बाकी दूसरे प्रॉडक्ट होते हैं, सिनेमा भी उसी तौर पर लिया जाता है। तभी आज के फिल्मकार इसे आर्ट की जगह प्रॉडक्ट मान चुके हैं। एक ऐसा उत्पाद, जो लोगों को रोमांच का चरम आनंद दे। सुखद अनुभूति दे। उस खाके में मजदूर की कहानी फिट नहीं बैठती। मल्टीप्‍लेक्स सिने कल्चर के दर्शक वर्ग पर्दे पर हैरतअंगेज कर देने वाला विजुअल ट्रीट चाहता है। तभी हॉलीवुड की डब व एनिमेशन फिल्मों का बड़ा बाजार बन चुका है। ऐसे दौर में मजदूरों के दुख, दर्द की गाथा की गुंजाइश कहीं नहीं बचती।

श्रमिक वर्ग के संघर्ष की जगह उसे उत्‍तेजित , रोमांचित करने वाली कहानियां भाने लगी है। यही वजह है कि बीते दो दशकों में मजदूरों की व्यथा को पेश करती एकमात्र फिल्‍म ‘भोपाल-प्रेयर फॉर रेन’ आई थी। वह भोपाल के खौफनाक यूनियन कार्बाइड हादसे पर केंद्रित थी। जैसा फिल्मकार डॉक्‍टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी  बताते हैं, ‘ आठवें दशक तक सिनेमा सोशल कनसर्न को दिखाता था। उसके बाद उसने अपनी भूमिका मनोरंजन तक ही सीमित कर ली। मजदूरों की तो छोड़ दें बाकी किस्म का यथार्थवाद भी उसने दिखाना बंद कर लिया। उसके लिए अलग धारा विकसित हुई। उसे समानांतर सिनेमा कहा जाने लगा। उसे बाजार का समर्थन नहीं था। बाजार ने सिनेमा देखने की आदत बदल दी। सभी सुविधाओं से संपन्‍न मल्टीप्‍लेक्‍्स आ गए, जो मॉल में स्थिति होते हैं। वहां बाकी बिक्री के उत्पादों की तरह सिनेमा भी उत्पाद बनकर रह गया। उसका तो स्लोगन बन गया कि सिनेमा का एकमात्र मकसद ‘मनोरंजन’, ‘मनोरंजन’, ‘मनोरंजन’ है। अब इस मनोरंजन  में मजूदर कहां फिट होंगे। उसके पास न तो क्रय शक्ति है, न दर्शक वर्ग को उद्वेलित करने वाली कहा‍नी ही। मैंने तो भूल की कि ‘जेड प्लस’ में पंक्चर बनाने वाले व लुंगी पहनने वाले को बतौर हीरो दिखाया। वह चीज दर्शकों को अप मार्केट नहीं लगी। हमें तो प्राइमरी लेवल पर स्क्रीन ही नहीं मिले। बाकी की बात तो छोड़ ही दें। 

फिल्‍म लेखिका उर्मि जुवेकर के मुताबिक,, ‘ दर्शक, पाठक वर्ग पहले की फिल्‍मों व साहित्‍य से जिंदगी की मुश्किलों के हल ढूंढते थे। अब वे उन दोनों के जरिए रोजमर्रा की मुश्किलों से दूर भागना चाहते हैं। तभी यथार्थ की जगह ऐडवेंचर व एनिमेशन की फिल्‍मों का जादू चल रहा है। पहले मानव-इंसान की लड़ाई सिनेमा में होती थी। अब तो ‘आइरनमैन’ व ‘टर्मिनेटर’ में हम लोग मशीनी मानव, जानवर व एलियनों की लड़ाई देख रोमांच फील करते हैं। कहानियों में इमोशन भी मैकेनिकल हो गए हैं। यह दुर्र्भायपूर्ण है। लोग न कड़वे सवाल कर रहे हैं, न वे सुनना ही चाहते हैं। खासकर उनकी तो कतई नहीं, जो बेसहारा व लूजर है। ‘

कई जानकार मजदूरों के कथावस्तु से गायब होने के अन्य कारणों की तरफ से भी इशारा करते हैं। सिने चिंतक विष्‍ण्‍ुा खरे बताते हैं, ‘ महानगरों की फैक्ट्रयों व मिलों की समाधि पर मॉल खड़े कर दिए गए। आदमकद मशीनों ने सैकड़ों-हजारों श्रमिकों को बेरोजगार कर दिया। अब बहुमंजिला इमारतें बीस-पचास लेबर मिलकर बना देते हैं। बाकी बचे लोग रेहड़ी, पटरी लगाने को मजबूर हैं। वे एक तरह से विलुप्त प्रजाति बन चुके हैं। लिहाजा उनके विषयों में लोगों को जुड़ाव महसूस नहीं होता।‘

गोविंद निहलानी कहते हैं, ‘ ट्रेड यूनियन बंद हो गए। लेबर लॉ के प्रावधान कमजोर कर दिए गए। उनकी पैरोकारी करने वाली लेफ्ट पार्टियां भी महज वेतन, भत्‍ते की बातें कर अपने कार्य की इतिश्री मान ले रहे हैं। मीडिया  का भी इस वर्ग के प्रति रवैया असहयोगात्‍्मक है। हड़ताल होने पर मजदूरों की मांग की जगह नुकसान की खबरें उछलती हैं। ऐसे में मजदूर वर्ग हर जगह से गायब है। उसकी चर्चा नहीं है। उसे नासूर मान लिया गया है। मजदूर अब पिज्जा हट जैसे फूड चेन में अनवरत काम करने वाला वेटर या फिर मॉल का चौकीदार बनकर रह गया है। लेबर शब्द ही खत्म होने की कगार पर है और इतिहास गवाह है कि विलुप्त हो रही चीजों को सहेजने की कोशिश कम ही हुई है। नतीजतन, मनोरंजन जगत से मजूदर बेदखल हो चुके हैं या आगे भी होते ही रहेंगे। ‘

     ‘मसान’ बना चुके नीरज घेवन बताते हैं, ‘ अगर हमें कड़वी सच्चाई दिखानी भी है तो उसे रोचक तरीके से दिखाना पड़ता है। ‘मसान’ में संजय मिश्रा व बच्चों के सिक्के ढूंढने वाले खेल को इनकॉरपोरेट करना पड़ा। हमारी कोशिश रही कि हम फिल्म को डार्क न होने दें। तब कहीं जाकर मल्टीप्लेक्स में हमें जगह मिली। हालांकि ऐसी स्थिति हर जगह नहीं है। फ्रांस व बल्रगारिया में डार्क फिल्‍में भी कमर्शियली सक्केसफुल रहती हैं। उन्हें सपोर्ट करने वाले बड़े कॉरपोरेट हैं। तभी ‘द लंचबॉक्स’ जैसी फिल्‍म के निर्माता फ्रांस से मिले, जबकि वह डार्क नहीं थी फिर भी। ‘पीपली लाइव’ में लेबर के माइग्रेशन को रोचक तरीके से पेश किया गया, जबकि वैसे सब्जेक्ट नितांत सीरियस टोन की डिमांड करते हैं।‘     

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