तारणहार बनते कैरेक्टर कलाकार
-अमित कर्ण
हाल की कुछ फिल्मों
पर नजर डालते हैं। खासकर ‘बजरंगी भाईजान’, ‘दिलवाले’, ‘मसान’, ‘बदलापुर’, ‘मांझी- द माउंटेनमैन’, ‘हंटर’, पर। उक्त फिल्मों में एक कॉमन
पैटर्न है। वह यह कि उन्हें लोकप्रिय करने में जितनी अहम भूमिका नामी सितारों की
थी, उससे कम उन फिल्मों के ‘कैरेक्टर आर्टिस्ट‘ की नहीं थी। ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘बदलापुर’ से नवाजुद्यीन सिद्यीकी का काम
गौण कर दें तो वे फिल्में उस प्रतिष्ठा को हासिल नहीं कर पाती, जहां वे आज हैं। ‘मसान’
के किरदार आध्यात्मिक सफर की ओर ले जा रहे होते हैं कि बीच में पंकज त्रिपाठी आते
हैं। शांत और सौम्य चित्त इंसान के किरदार में दिल को छू जाते हैं।
‘दिलवाले’ में शाह रुख-काजोल की मौजूदगी के
बावजूद दर्शक बड़ी बेसब्री से संजय मिश्रा का इंतजार कर रहे होते हैं। थोड़ा और
पीछे चलें तो ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में सिस्टम के हाथों मजबूर जांच अधिकारी और
‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में दत्तों के भाई बने राजेश शर्मा की अदाकारी अाज भी लोगों
के जहन में है। ‘विकी डोनर’ की बिंदास दादी कमलेश गिल और सिंगल मदर बनी डॉली
अहलूवालिया को कौन भूल सकता है भला। ‘मांझी – द माउंटेनमैन’ और ‘हंटर’ में तो कमाल ही हो गया। कथित कैरेक्टर कलाकारों की टोली
दोनों फिल्मों के मेन लीड बन जाते हैं। दोनों फिल्में चर्चा व कलेक्शन दोनों
हाथों से बटोर ले जाते हैं। सार यह है कि अब सितारों व कमर्शियल फिल्में बनाने
वाले भी ‘कैरेक्टर आर्टिस्ट’ की अहमियत भली’-भांति समझ चुके हैं। वे जान चुके हैं कि फिल्मों
को वीकेंड की सीमा से बाहर निकाल अगले हफ्ते तक ले जाने की अहम भूमिका कथित कैरेक्टर
आर्टिस्ट ही करते हैं। सौभाग्य से अब पुराने दिनों जैसी बात भी नहीं है, जब
कैरेक्टर रोल के लिए अधिकांश फिल्मों में किरदार विशेष के लिए कलाकार विशेष ही
रिपीट किए जाते थे।
मसलन, सातवें दशक में इंस्पेक्टर के रोल के
लिए इफ्तेकार, जगदीश राज लगातार रिपीट होते थे। खडूस पिता या बॉस के लिए उत्पल
दत्त और चाचा के लिए नासिर हुसैन और मजबूर पिता के लिए एके हंगल कास्ट कर लिए
जाते थे। नरमदिल मामा, नाना व दादू के लिए डेविड इब्राहिम होते थे और काइंया पुलिस
अधिकारी के लिए ओम शिवपुरी। आठवें व नौंवे दशक में वह विरासत अनुपम खेर, कादर खान,
आलोक नाथ, श्रीराम लागू व उन जैसे अन्य कलाकारों ने आगे बढ़ाई। नतीजतन दोहराव की
अति हुई और दर्शकों का उन कलाकारों से मोहभंग हो गया। अब ऐसे हालात नहीं हैं।
हमारे पास समर्थ कलाकारों की अच्छी-खासी खेप है। उनका यथोचित सम्मान सितारा व
निर्माता दोनों बिरादरी करती है। अब वे महज ‘कैरेक्टर आर्टिस्ट’ भर नहीं रहे।
मौजूदा बदलाव पर पंकज त्रिपाठी कहते हैं, ‘
सितारे ओपनिंग दिलाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है, मगर दर्शक संडे के बाद आगे
देखने तब जाते हैं, जब उसमें उन्हें कोई जानदार परफारमेंस दिखे। वह जानदार परफारमेंस
यकीनन नवाज भाई, केके मेनन, दीपक डोबरियाल व अन्य कलाकारों का होता है। उन सबका
काम लोगों को अलग अनुभूति व संतुष्टि प्रदान करता है। यह बात हमारे निर्माता समझ
चुके हैं। तभी अपनी फिल्मों में वे कथित कैरेक्टर कलाकारों का चयन भी पूरी
सावधानी से करते हैं। फिल्म में सितारों से कम अहमियत नहीं देते।‘
पंकज त्रिपाठी की बातों में दम है। यही वजह है,
जो ‘सुल्तान’ और ‘रईस’ की कॉमन धुरी नवाजुद्यीन सिद्यीकी
हैं। वे उन चंद चर्चित कलाकारों में शुमार हो गए हैं, जिन्होंने खानत्रयी के संग
काम कर लिया है। उनके मौजूदा कद का अंदाजा इसी बात से लगता है कि ‘सुल्तान’ में जहां उनकी आवाज का इस्तेमाल
फिल्म के सर्वप्रथम टीजर के लिए हुआ, वहीं ‘रईस’ में वे शाह रुख खान के किरदार के मंसूबों का सबसे बड़े रोड़े बने हैं। ‘
सिने इतिहासकार जयप्रकाश चौकसे कहते हैं, ‘अब
यदि फिल्मों में समर्थ कलाकार होंगे तो बजट छोटा हो या बड़ा दर्शकों को कोई फर्क
नहीं पड़ेगा। वे घरों से निकल सिनेमाघर यकीनन जाएंगे। नवाज और उन जैसे कलाकारों की
नस्ल मोतीलाला, बलराज साहनी, संजीव कुमार और ओमपुरी की परंपरा से वास्ता रखते
हैं। जिस काल खंड में देव साहब और राज कपूर की तूती बोली जाती थी, मोतीलाल भी उस
दौर में मशहूर थे। संजीव कुमार भी अपने समकालीन सितारों को बराबर टक्क्र देते
थे। अब वह काम नवाज वगैरह बाकी कलाकार कर रहे हैं। ‘
तभी आने वाला समय कथित कैरेक्टर आर्टिस्ट
के लिए पलक-पांवड़े बिछा कर बैठा हुआ है। नए साल में ‘एयरलिफ़ट’, ‘जय गंगाजल’, ‘जुगनी’, ‘फितूर’, ‘वजीर’, ‘मोहनजो दाड़ो’ जैसी बड़े बजट की फिल्में कैरेक्टर आर्टिस्ट से गुलजार हैं।
ऐसा अचानक क्या हुआ कि कैरेक्टर आर्टिस्ट
इतने डिमांडिंग हो गए। ‘वजीर’ में यजाद कुरेशी बने मानव कौल कारण जाहिर करते हैं, ‘डिजिटल क्रांति ने दर्शकों को क्वॉलिटी फिल्मों का स्वाद
चखाया है। औसत काम खारिज होने लगे हैं। अब वरायटी परफॉर्मर की डिमांड बढ़ चुकी है।
‘वजीर’ में मेरे काम की भी सराहना हो रही
है। उसके तुरंत बाद बिजॉय नांबियार ने मुझे एक रॉम’-कॉम ऑफर की है। वहां मैं हीरो
हूं। ‘
सिने जानकार इस बदलाव की वजह कास्टिंग
डायरेक्टर और युवा फिल्मकारों को भी मानते हैं। ‘शाहिद’, ‘दम लगा के हईसा’, ‘मसान’,
‘पान सिंह तोमर’, ‘काय पो छे’, ‘फिल्मिस्तान’ में नायाब कलाकार ढूंढकर लाए गए।
उनकी परफारमेंस से फिल्म में चार चांद लग गए। ‘दम लगा के हईसा’ में शीबा चड्ढा ने
बुआ की रोचक भूमिका निभाई। ‘काय पो छे’ में सुशांत सिंह राजपूत, राजकुमार राव और
अमित साध को एक साथ ला उनकी केमिस्ट्री से फिल्म निखर गई। मानव कौल उस फिल्म की
खोज बने, जबकि ‘हैदर’ में शाहिद कपूर के पिता बने नरेंद्र झा को चौतरफा तारीफ
मिली। फिल्म के प्रमोशन में उनका वॉयस ओवर जमकर इस्तेमाल हुआ। इस साल वे ‘मोहनजो
दाड़ो’ व ‘घायल वंस अगेन’ में मेन विलेन हैं।
कास्टिंग डायरेक्टर के अलावा युवा फिल्मकारों
ने भी पूरा सिनेरियो बदल दिया है। पहले पैसे वाले ही फिल्म बनाते थे। वे सिनेमा
को मनी मेकिंग मशीन मानते थे। अब वह चलन बदला है। मानव कौल कहते हैं, ‘25 साल के चैतन्य तम्हाणे
‘कोर्ट’ बना उसे ऑस्कर तक ले जाते हैं।
वह भी तब, जब उससे पहले उनके पास कोई सिनेमाई अनुभव नहीं था। उस फिल्म में कथित
नामी चेहरे नहीं थे। उसके बावजूद वह अपील कर गई। यही अच्छी ही बात है। सितारों पर
से हमारी निर्भरता कम होती जा रही है। ’
‘एयरलिफ्ट’ में कुवैती आर्मी अफसर बने इनामुल
हक के मुताबिक, ‘सिने लिटरेसी में खासा इजाफा हुआ है। ईरानी
फिल्मकार माजिद मजीदी व जफर पनाही जैसों ने भी यहां के फिल्मकारों को प्रेरित
किया। उन्हें बात समझ में आ गई कि कैरेक्टर आर्टिस्ट की मौजूदगी से एक तो किफायत
में फिल्म बन जाएगी, दूसरा हर इलाके व तबके की कहानियां लोगों के पास आएंगी। वे
दिल को छूने के अलावा रोमांचक और प्रेरक रहेंगी।’
लब्बोलुआब यह कि अब अब सितारों व
कलाकारों के बीच को-एग्जिस्टेंस का मामला बन चुका है। सलमान खान जैसे सितारे भी अपने उन सहकलाकारों की मदद करने लगे हैं। लोगों
को याद होगा कि उन्होंने ट्वीट कर अपने प्रशंसकों
व जनता-जनार्दन से ‘मांझी- द माउंटेनमैन’ देखने की अपील की। यह ट्रेंड हाल के बरसों की ही उपज है।
किरण राव ‘शिप ऑफ थीसियस’ के सपोर्ट में खड़ी होती हैं और कैरेक्टर आर्टिस्ट से
सजी फिल्म को बड़ा फलक मिलक जाता है। यह उम्दा सिनेमा व कलाकारों को स्थापित करने के लिए शुभ संकेत हैं।
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