फिल्म समीक्षा : लाल रंग
माटी की खुश्बू और रंग
-अजय ब्रह्मात्मज
सय्यद अहमद अफजाल की ‘लाल
रंग’ को नजरअंदाज या दरकिनार नहीं कर
सकते। हिंदी की यह ठेठ फिल्म है,जिसमें एक अंचल अपनी भाषा,रंग और किरदारों के साथ
मौजूद है। फिल्म का विषय नया और मौजूं है। पर्दे परदिख रहे नए चेहरे हैं। और साथ
ही पर्दे के नीछे से भी नई प्रतिभाओं का योगदान है। यह फिल्म अनगढ़,अधपकी और
थोड़ी कच्ची है। यही इसकी खूबी और सीमा है,जो अंतिम प्रभाव में कसर छोड़ जाती है।
अफजाल ने दिल्ली से सटे हरियाणा के करनाल इलाके की
कथाभूमि ली है। यहां शंकर मलिक है। वह लाल रंग के धंधे में है। उसके घर में एक
पोस्टर है,जिस पर सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर है। उनके प्रसिद्ध नारे में आजादी
काट कर पैसे लिख दिया गया है- तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हें पैसे दूंगा। शंकर मलिक
अपने धंधे में इस कदर लिप्त है कि उसकी प्रेमिका परिवार के दबाव में उसे छोड़
जाती है। नृशंस कारोबार में होने के बावजूद वह दोस्तों की फिक्र करता है। इस
कारोबार में वह एक नए लड़के(अक्षय ओबेराय) को शामिल करता है। धंधे के गुर सिखता
है,जो आगे चल कर उसका गुरू बनने की कोशिश करता है। हिस्से के लिए कॉलर तक पकड़
लेता है। दूसरी तरफ कुछ ही दृश्यों के बाद दिलदार शंकर है,जो पूरी कमाई उसके लिए
न्योछावर कर देता है। शंकर जटिल किरदार है।
यह फिल्म रणदीप हुडा और पिया बाजपेयी के लिए देखी
जानी चाहिए। रणदीप हुडा ने पिछली कुछ फिल्मों में अभिनय को साधा है। वे पूरे आत्मविश्वास
में इतने सहज और तरल होते जा रहे हैं कि आसानी से नए किदारों में ढल जाते हैं। इस
फिल्म की जमीन तो उनकी अपनी है। भाषा और तेवर में इसी कारण वास्तविकता नजर आती
है। उन्होंने फिल्म के मुश्किल दृश्यों को भी आसान कर दिया है। दोस्त,प्रेमी,कारोबारी
और दुस्साहसी व्यक्ति के रूप में वे सभी आयामों में प्रभावशाली लगते हैं। पूनम
के किरदार में आई पिया बाजपेयी की सादगी और निश्छलता मोहती है। फिल्म का यह सबसे
शुद्ध चरित्र है। पिया बाजपेयी ने अपनी अदायगी से उसे और प्रिय बना दिया है। ‘लाल रंग’ की यह नई लड़की के रंग
भविष्य में और चटखदार हो सकते हैं। मीनाक्षी दीक्षित ने राशि के किरदार को विश्वसनीय
तरीके से पेश किया है। चूंकि इस किरदार को अधिक स्पेस नहीं मिला है,इसलिए
मीनाक्षी को अपना कौशल दिखाने का मौका नहीं मिला है। फिल्म के सहयोगी किरदारों को
निभा रहे कलाकार भी उल्लेखनीय हैं।
सय्यद अहमद अफजाल ने एक साथ कई भावों और विषयों को
फिल्म में बुना है। इसकी वजह से फिल्म कहीं थोड़ी बिखरी तो कहीं थोड़ी ठहरी
महसूस होती है। ‘लाल रंग’ के धंधे के विस्तार और गहराई में कहानी नहीं उतरती। खून का
कारोबार पृष्ठभूमि में चला जाता है। फिर रिश्तों,दोस्ती और त्याग की कहानी
चलने लगती है। रणदीप हुडा को अक्षय ओबेराय से बराबर का सहयोग नहीं मिलता। वे कमजोर
पड़ते हैं। नतीजे में दोनों के साथ के दृ
य भी कमजोर हो जाते हैं। कलाकारों की सही संगत न हो तो
परफारमेंस की जुबलबंदी नहीं हो पाती।
इस फिल्म के संगीत में माटी के सुर और शब्द हैं।
गीतकारों,गायकों और संगीतकारों ने हरियाणा के संगीत की खूबियों से फिल्म को सजाया
है। फिल्म का छायांकन खूबसूरत है। आकाश से देखने पर करनाल भी व्यवस्थित और सुंदर
नजर आता है।
फिल्म के कई संवादों में हरियाणवी समझने में दिक्कत
होती है। प्रवाह में भाव तो समझ में आता है। अर्थ भी मालूम होता तो प्रभाव बढ़
जाता।
अवधि- 147 मिनट
स्टार- ढाई स्टार
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