फिल्‍म समीक्षा : निल बटे सन्‍नाटा





मलिन बस्‍ती में उजास

-अजय ब्रह्मात्‍मज
स्‍वरा भास्‍कर अपनी पीढ़ी की साहसी अभिनेत्री हैं। दो कलाकारों में किसी प्रकार की तुलना नहीं करनी चाहिए। फिर भी कहा जा सकता है कि नवाजुद्दी सिद्दीकी की तरह उन्‍होंने मुख्‍यधारा और स्‍वतंत्र स्‍वभाव की फिल्‍मों में एक संतुलन बिठाया है। हम ने उन्‍हें हाल ही में प्रेम रतन धन पायो में देखा। निल बटे सन्‍नाटा में उन्‍होंने 15 साल की बेटी की मां की भूमिका निभाई है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में इमेज के प्रति अतिरिक्‍त सजगता के दौर में ऐसी भूमिका के लिए हां कहना और उसे पूरी संजीदगी और तैयारी के साथ निभाना उल्‍लेखनीय है।
आगरा की इस कहानी में ताजमहल के पीछे की मलिन बस्‍ती में रह रही चंदा सहाय बर्तन-बासन और खाना बनाने का काम करती है। उसकी एक ही ख्‍वाहिश है कि उसकी बेटी अपेक्षा पढ़-लिख जाए। मगर बेटी है कि उसका पढ़ाई में ज्‍यादा मन नहीं लगता। गणित में उसका डब्‍बा गोल है। बेटी की पढाई के लिए वह हाड़-तोड़ मेहनत करती है। बेटी है कि मां की कोशिशों से बिदक गई है। वह एक नहीं सुनती। उल्‍टा मां को दुखी करने की पूरी कोशिश करती है। कुछ उम्र का असर और कुछ मां से नाराजगी... उसे लगता है कि मां अपने सपने उसके ऊपर थोप रही है। चंदा के सपनों की हमराज हैं दीदी। दीदी के सुझाव पर वह ऐसा कदम उठाती है,जिससे बेटी और भी नाराज हो जाती है। इस कहानी में दीदी के साथ प्रिंसिपल श्रीवास्‍तव जी भी हैं। अपेक्षा के सहपाठियों की फिल्‍म में खास भूमिका है।
निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने निल बटे सन्‍नाटा को मां-बेटी के रिश्‍ते और पढ़ाई पर केंद्रित रखा है। उन्‍होंने इस फिल्‍म में उदासी और मलिनता नहीं आने दी है। मलिन बस्‍ती में अधिक देर तक कैमरा नहीं ठहरता। दुख दर्शाने की अतिरिक्‍त कोशिश नहीं है। उल्‍लास भी नहीं है,लेकिन मुख्‍य कलाकार में अदम्‍य उत्‍साह है। मुख्‍य किरदार की कोई बैक स्‍टोरी भी नहीं है,जिससे पता चले कि चंदा सहाय क्‍यों बर्तन-चौका का काम कर रही है? जो है से वर्तमान है और उस वर्तमान में बेहतर भविष्‍य के सपने और संघर्ष हैं। फिल्‍म कुछ दृश्‍यों में उपदेशात्‍मक होती है,लेकिन प्रवचन पर नहीं टिकती। अगले ही दृश्‍य में सहज और विनोदी संवाद आ जाते हैं। निर्देशक ने दृश्‍य संरचना से कथ्‍य को बोझिल नहीं होने दिया है। भावनाओं का घनत्‍व गाढ़ा नहीं किया है। निर्देशक ने लेखकों की मदद से सरल शब्‍दों में गंभीर बातें की हैं। यह मलिन बस्‍ती के वंचित चरित्रों के सपनों और उजास की फिल्‍म है।
निल बटे सन्‍नाटा स्‍वरा भास्‍कर की उम्‍दा कोशिश है। चंदा सहाय को आत्‍मसात करने और उसे पर्दे पर उतारने में उन्‍होंने संवाद अदायगी से लेकर बॉडी लैंग्‍वेज तक पर मेहनत की है। अनुभव और जानकारी की कमी से कुछ चीजें छूट जाती है या खटकती हैं तो वह अकेले एक्‍टर का दोष नहीं है। स्‍वरा ने चंदा सहाय को पर्दे पर यथासंभव सही तरीके से उतारा है। अपेक्षा के दोस्‍त सहपाठी और गण्ति में मदद करने वाले कलाकार ने उम्‍दा काम किया है। सारे बच्‍चे नैचुरल और सहज हैं। दीदी की भूमिका में आई रत्‍ना पाठक शाह ने चंदा का मनोबल बढा़ने में पूरी मदद की है। उनकी सहायता से चंदा सहाय का किरदार निखरता है। निल बटे सन्‍नाटा में पंकज त्रिपाठी याद रह जाते हैं। उन्‍होंने खुशमिजाज टीचर की भूमिका को दमदार बना दिया है। वे आर्गेनिक एक्‍सप्रेशन के कलाकार हैं। उनकी अदाओं में हमेशा नवीनता रहती है। यों लगता है कि आसपास का कोई चरित्र उठ कर पर्दे पर चला गया हो।
निल बटे सन्‍नाटा। वैसी चंद फिल्‍मों में शुमार होगी,जिसमें हिंदी समाज और मिजाज है। हिंदी फिल्‍मों से गायब हो रहे हिंदी समाज की बहुत चार्चा होती है। निल बटे सन्‍नाटा भरोसा देती है कि उम्‍मीद कायम है। कलाकार और निर्देशक अपने तई कोशिश कर रहे हैं।
अवधि- 100 मिनट
स्‍टार- साढ़े तीन

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