हंसमुख है मेरा किरदार :पंकज त्रिपाठी
-अमित कर्ण
पंकज त्रिपाठी उन चंद कलाकारों में से एक हैं, जो कमर्शियल व ऑफबीट फिल्मों के
बीच उम्दा संतुलन साध रहे हैं। मसलन हाल के दिनों में ‘मसान’ और ‘दिलवाले’। अब उनकी ‘निल बटे सन्नाटा’ आ रही है। वे इसमें स्कूल प्रिसिंपल
बने हैं।
-फिल्म में आप लोग कहीं प्रौढ़ शिक्षा अभियान का प्रचार तो नहीं कर रहे हैं?
पहली नजर में मुझे भी यही लगा था, पर ऐसा नहीं है। यह आप को हंसा-रुला व प्रेरित
कर घर भेजेगी। इसमें मनोरंजन करने के लिए किसी प्रकार के हथकंडों का इस्तेमाल नहीं
है। बड़ी प्यारी व प्योर फिल्म है। इससे हर वे लोग जुड़ाव महसूस करेंगे, जो अपने
दम पर मकबूल हुए हैं। मैं इसमें हंसमुख श्रीवास्तव की भूमिका में हूं। वह शिक्षक है।
-वह किस किस्म का शिक्षक है। खडूस या नाम के अनुरूप हंसमुख। साथ ही इसमें आप ने
क्या रंग भरे हैं?
मैं निजी जीवन में जिन तीन-चार शिक्षकों का मुरीद रहा हूं, उनकी खूबियों-खामियों
को मैंने इसमें समेटा है। एक लक्ष्मण प्रसाद थे। जगतकुमार जी थे। राम जी मास्टर साहब
थे। गणित पढ़ाने वाले टीचर अमूमन बोरिंग होते हैं, मगर श्रीवास्तव जी ऐसा नहीं है।
वह आशावादी है। वह कमजोर छात्रों को भी प्रखर बनाना चाहता है।
-कई बार वैसे लोग भी टीचर बन जाते हैं, जो कुछ और बनना चाहते थे, पर वह न हो सका।
नतीजतन, उन्होंने बीएड की और बन गए शिक्षक। वे बड़े बेकार अध्यापक साबित होते हैं।
वह कुंठा इस फिल्म में है?
उस मसले पर हम नहीं गए हैं। यहां ‘संतोषम परम सुखम’ की बात है। किसी किरदार को भौतिक सुखों की लालसा नहीं है। वे
अपनी-अपनी जगहों से खुद की लड़ाई लड़ रहे हैं।
वे शिकायती नहीं हैं। लक्ष्य प्राप्ति को वे निरंतर लगे हुए हैं। वे अपने चाहने वालों
का भरोसा नहीं तोड़ना चाहते। वह चीज सीखने योग्य है। मैंने सीख लेते हुए तय किया है
कि मैंने अब तक जो फैन फोलोइंग अर्जित की है, उनका भरोसा न तोडूं। उन्हें पसंद पड़ने
वाली फिल्में ही करता रहूं।
-जिन लोगों से आप कभी टकराए न हों, उस किस्म के किरदारों को कैसे क्रिएट करते
हैं?
मैं किरदारों की बैक स्टोरी पर काफी काम करता हूं। मेरा मानना है कि दुनिया का
कोई व्यक्ति पूरी तरह ब्लैक या ह्वाइट नहीं होता। हर कोई ग्रे है। उसके बाद मैं उसके
कार्यकलापों के कारणों की तह में जाता हूं।
-इतनी डिटेलिंग स्क्रिप्ट में तो नहीं ही मिलती होगी?
जी। वह रूपरेखा तैयार करना तो कलाकारों की जिम्मेदारी है। मिली भूमिका के अतीत
की कल्पना कर उसके मुताबिक अदाकारी करने से रोल जीवंत हो जाता है।
-‘…वासेपुर’ से लेकर ‘दिलवाले’ तक आप अपने किरदारों को ठहराव व सुकून
पसंद रखते रहे हैं। यह आप का सिग्नेचर टोन बनता जा रहा है?आप कह सकते हैं। दरअसल हम, आप या दूसरे
किसी में गांधी भी है और हिटलर भी है। लिहाजा वैसी भूमिकाएं निभाते व्यक्ति विशेष के
व्यक्तित््व की आभा संबंधित रोल पर दिखेगी। हालांकि मैं पिछले किए गए काम को रिपीट
न करने की पूरी कोशिश करता हूं।
- जो जिंदगी कभी जी न हो, उसे कैसे निभाना चाहिए?
कल्पनाशक्ति। वह यथार्थ के मुकाबले कहीं ज्यादा अनूठी होती है। आप असल में कभी
हवा में नहीं उड़ सकते, मगर कल्पना करें तो मिनटों में हवा से बातें करने लगेंगे।
आप की भाव-भंगिमा बदल जाती है। हां आप को क्राफ्ट की बुनियादी जानकारी होनी चाहिए।
वे जितनी पुख्ता होंगी, आप की धारणा बचकानी नहीं लगेंगी। उन जानकारियों में कल्पना
के रंग भरते रहें। आज उस जैसी कल्पनाशक्ति के आधार पर ‘जंगल बुक’, ‘अवतार’, ‘इंटरस्टेलर’ जैसी फिल्म तक बन गई, जो कहीं से महज फंतासी नहीं लगती। ‘…वासेपुर’ में मैं कसाई सुल्तान कुरेशी बना
था। उससे पहले मैं कभी किसी बूचड़खाने में नहीं गया था। शूटिंग दरअसल बूचड़खाने में
ही हुई तो वहां चंद कसाइयों से कुछ देर बातें कर लीं। उसके बाद मैंने अपना सुल्तान
कुरेशी गढ़ा।
-अमित कर्ण
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