ख्वाब कोई बड़ा नहीं होता - स्वरा भास्कर
-अमित कर्ण
स्वरा भास्कर
मेनस्ट्रीम सिनेमा में अपनी दखल लगातार बढ़ा रही हैं। वे ‘प्रेम रतन धन पायो’ के
बाद अब एक और बड़े बैनर की ‘निल बटे सन्नाटा’ में हैं। वह भी फिल्म की बतौर मेन
लीड। इसके अलावा ‘आरावाली अनारकली’ भी उन्हीं के कंधों पर टिकी है।
-बहुत दिनों
बाद विशुद्ध हिंदी में टाइटिल आया है। साथ ही देवनागिरी लिपि में पोस्टर। क्या
कुछ है ‘निल बटे सन्नाटा’ में।
पश्चिमी उत्तर
प्रदेश और दिल्ली के इलाकों में ‘निल बटे सन्नाटा’ बड़ी जाना-पहचाना तकियाकलाम
है। यह उन लोगों के लिए प्रयुक्त होता है, जो गया-गुजरा है। जो गौण है और
जिसका जिंदगी में कुछ नहीं हो सकता हो। बहरहाल इसकी कहानी एक मां और उसकी 13 साल
की ढीठ बेटी के रिश्तों पर केंद्रित है। मां लोगों के घरों में नौकरानी है। वह
दसवीं फेल है। वह नहीं चाहती कि उसकी बेटी का भी वही हश्र हो, मगर उसकी
बेटी फेल होने की पूरी तैयारी में है। दिलचस्प मोड़ तब आता है, जब उसकी मां खुद
दसवीं पास करने को उसी के क्लास में दाखिला ले लेती है। दोनों का द्वंद्व क्या
रंग लाता है, वह इस फिल्म में है। यह फिल्म दरअसल कहना चाहती है कि कोई सपना
बहुत बड़ा नहीं होता और उसे देखने वाला बहुत छोटा नहीं होता। इसे हमने मजेदार अंदाज
व कमर्शियल स्पेस में रखते हुए पेश किया है।
- इसकी कहानी
किसी सच्ची घटना से प्रेरित है। साथ ही क्या यह मौजूदा एडुकेशन सिस्टम की कलई
भी खोलती है।
कहानी वाली बात
तो निर्देशक अश्विनी ही बता सकेंगी। यह फिल्म बेसिकली उन लोगों की कहानी बयां
करती है, जिनके लिए जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई के सिवा और कोई विकल्प है
ही नहीं। जिनके पास बाप-दादा की जायदाद नहीं है। इसकी अपील व्यापक है। हर इंसान
की इच्छा होती है कि उनके बच्चे उनसे तो बेहतर करें हीं। यह शिक्षा प्रणाली के
बाकी पहलुओं में नहीं जाती। यह ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘3इडियट’ के जोन में
नहीं है। यह ‘पीकू’ और ‘क्वीन’ वाले मिजाज की फिल्म है। यह बुनियादी संघर्ष की
कहानी है।
-मां-बेटी के
रिश्तों में सहज भाव तो है, पर पिता के साथ अब भी बेटियां खुली नहीं हैं।
जी हां। खासकर
भारत में। यहां तो पिता के साथ तो आज भी बेटियां मासिक धर्म व यौन शिक्षा से
संबंधित बातें नहीं कर सकती। हमारी फिल्म में भी एक जगह बच्ची मां को धमकाती है वह
उसकी बाप बनने की कोशिश न करे। यानी बच्चे भी यह मानकर चलते हैं कि उसकी मां अपनी
हदों में ही रहा करे।
-विज्ञापन पृष्ठभूमि
से आए फिल्मकार अनूठी कहानियां लेकर आ रहे हैं। उन्हें सिनेमा को किस दिशा में
ले जाते देख रही हैं।
वाकई शुजित सरकार, जूही चतुर्वेदी हों या राजकुमार हिरानी। अब राम माधवानी व अश्विनी अय्यर तिवारी। वे नाजुक पलों से प्यारे इमोशन खोद निकालने में बड़े माहिर होते हैं, क्योंकि वे बरसों से वही करते रहे हैं। हिंदी सिने जगत इस दौर का कर्जदार रहेगा कि ऐसी किस्सागोई करने वाले लोग हैं, जो हाशिए पर पड़े लोगों व नजरअंदाज कर दिए जाने वाले मुद्दों को पूरी दुनिया के समक्ष ला रहे हैं। अच्छी बात यह हो रही है उस पृष्ठभूमि के फिल्मकार व कहानीकार महिलाओं के सशक्तिकरण की पैरोकारी कर रहे हैं। वे घिस चुके तर्क ‘यही चलता है’ को ठेंगा दिखा रहे हैं।
-कलाकार को जब
कमर्शियल स्वीकृति मिल जाए तो उसे आगे किस किस्म की रणनीति अख्तियार करनी
चाहिए।
अच्छी कहानी व
किरदार जिस किसी जॉनर में मिले कर लेनी चाहिए। एक्टर की कौम वैसे भी अच्छे किरदारों
की भूखी होती है। लिहाजा उसे जॉनर का मोहताज नहीं होना चाहिए। जो लोग ऐसा करते
हैं, वे घाटे में रहेंगे। ‘गाइड’ अपने पति को छोड़ चुकी विधवा महिला की कहानी थी।
वहीदा जी जॉनर के फेर में पड़तीं तो आज यकीनन उन्हें मलाल रहता। ‘नीरजा’ आठ हफ्ते
तक चली। मैंने ‘मछली जल की रानी’ कर ली थी। वह मेरे कंफर्ट जोन की नहीं थी, मगर
मैंने फिर भी की। ‘रांझणा’ लगा था कि लोगों को पसंद नहीं आएगी, पर उसकी वजह से
मुझे ‘प्रेम रतन धन पायो’ मिल गई। अच्छी कहानी की परख बेहद जरूरी है। अब तो कमर्शियल
फिल्मों की परिभाषा भी बदल गई है। टिपिकल जन रुचि की फिल्में भी जरूरी हैं। मुझे
जितनी ज्यादा लोकप्रियता ‘प्रेम रतन धन पायो’ से मिली, उतनी ‘ लिसेन अमाया’ से
नहीं मिली, जबकि वह भी मेरे दिल के उतनी ही करीब थी। मुझे ‘तनु वेड्स मनु’ ढेर
सारी ‘लिसने अमाया’, ‘आरावाली अनारकली’ और ‘नील बटे सन्नाटा’ दे रही है।
-आप पॉलिटिकली
करेक्ट नहीं हैं। अब तक बेबाक बोलती रही हैं, जबकि वैसी बयानबाजी से हाल में एक
बड़ी फिल्म को नुकसान हुआ है। आप आगे कैसे रहने वाली हैं।
जी हाल में
जेएनयू मुद्दे पर मैं बड़ी मुखर रही हूं। हालांकि आनंद एल राय सर और अश्विनी ने मुझे रोका नहीं। मजाक-मजाक में इतना
भर कहा, ‘तू हमारी फिल्म टैक्स फ्री तो करवा नहीं रही, ऊपर से कहीं उसे बैन न कर
दिया जाए।‘ मुझे धक्का तब लगा, जब मुझे प्रतिबंधित करने के कॉल आने लगे। मैं
‘रंगोली’ कर रही हूं तो वहां भी अधिकारियों को फोन गए कि यह तो देशद्रोही है। इससे
आप लोग कैसे कार्यक्रम होस्ट करवा रहे हैं। इतना ही नहीं मुझे नेशनल अवार्ड की
सूची से भी बाहर करने की खबरें हैं। तो मुझे डर लगा है, पर भय के मौजूदा माहौल से संस्थानों व फिर आर्ट का कबाड़ा करना
गलत है। यह माहौल देश के सुनहरे भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है।
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