फिल्‍म समीक्षा : की एंड का




बदली हुई भूमिकाओं में

-अजय ब्रह्मात्‍मज
गृहलक्ष्‍मी,गृहस्थिन,गृहिणी,गृहस्‍वामिनी यानी हाउस वाइफ।
फिर हाउस हस्‍बैंड भी कोई शब्‍द होता है या हो सकता है ? इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में एक विचार और अवधारणा के रुप में ऐसे मर्दों(हाउसा हस्‍बैंड) की बात की जाती है,जो घर संभालते हैं ताकि उनकी बीवियां अपने करिअर और शौक पर ध्‍यान दे सकें। ऐसे मर्दो के लिए हिंदी में अभी तक कोई शब्‍द प्रचलित नहीं हुआ है। उन्‍हें गृहविष्‍णु नहीं कहा जाता। गृहस्‍वामी शब्‍द चलन में है,लेकिन वह हाउस हस्‍बैंड का भावार्थ नहीं हो सकता। फिल्‍म का नायक कबीर बताता है...घर संभाले तो की,बाहर जाकर काम करे तो का... अकॉर्डिंग टू हिंदुस्‍तानी सभ्‍यता। आर बाल्‍की की फिल्‍म की एंड का हिंदुस्‍तानी सभ्‍यता की इस धारणा का विकल्‍प पेश करती है और इसी बहाने बदले हुए समाज में स्‍त्री-पुरुष संबंधों में वर्चस्‍व के सवाल को छूती है। अगर भूमिकाएं बदल जाएं तो क्‍या होगा? इस फिल्‍म में हाउस हस्‍बैंड बना कबीर तो अपवाद होने की वजह से एक सेलिब्रिटी बन जाता है। कल्‍पना करें कि अधिकांश पुरुष हाउस हस्‍बैंड की भूमिका में आ जाएं तो देश-दुनिया की सामाजिक सोच और संरचना में किस तरह के बदलाव आएंगे। आर बाल्‍की या कोई और निर्देशक भविष्‍य में ऐसी फिल्‍म लिख और बना सकता है।
फिलहाल, की एंड का कबीर और किया की कहानी है। कबीर का है और पुरुषों का प्रतिनिधि है। किया की है,वह स्त्रियों का प्रतिनिधित्‍व कर रही है। दोनों की मुलाकात जमीन से 30,000 फीट ऊपर एक हवाई यात्रा में होती है। फटाफट डेटिंग और अंडरस्‍टैंडिंग के बाद दोनों शादी के लिए सहमत होते हैं। तय होता है कि किया अपने करिअर पर ध्‍यान देगी और कबीर षर संभालेगा। किया की मां को अधिक परेशानी नहीं होती। वह एनजीओ चलाती हैं। माना जाता है कि एनजीओ चलाने वाली महिलाएं खुले दिमाग की होती हैं। कबीर के पिता बंसल हैं। वे दिल्‍ली के मशहूर बिल्‍डर हैं। उनके इकलौते बेटे की उनके बिजनेस में कोई रुचि नहीं है। कबीर के फैसले से वे नैचुरली भड़क जाते हैं और उसकी मर्दानगी को ललकारते हैं। फिल्‍म मर्दानगी की जिस अवधारणा को तोड़ती है,उसी अवधारणा को एक दृश्‍य में जोड़ती भी है। एक द,श्‍य में कबीर फिकरे कस रहे कुछ उच्‍छृंखलों की पिटाई कर देता है।
आर बाल्‍की की फिल्‍मों में नयापन रहता है। वे संबंधों की ही कहानियां कहते हैं,लेकिन किसी अनछुए पहलू को उजागर करते हैं। स्‍त्री-पुरुष संबंधों पर अनेक फिल्‍में बनी हैं,जिनमें महिलाओं की आजादी,विवाहेतर संबंध,बराबरी का द्वंद्व आदि मुद्दों पर कभी सामाजिक तो कभी काल्‍पनिक तरीके से बातें होती हैं। आर बाल्‍की ने की एंड का में स्‍त्री-पुरुष संबंधों का चित्रण एक नए आयाम के साथ किया है। वे किसी विमर्श में नहीं फंसते। अत्‍यंत व्‍यावहारिक तरीके से वे दो मॉडर्न किरदारों के जरिए स्‍त्री और पुरुष को बदली हुई भूमिकाओं(रोल रिवर्सल) में पेश करते हैं। उन्‍होंने सरस तरीके से दोनों किरदारों की सोच व समझ को कहानी में गूंथा है। बाल्‍की की फिल्‍में दर्शकों से औसत से बेहतरीन समझदारी की अपेक्षा रखती हैं। किया और कबीर जैसे किरदार हिंदी सिनेमा के पर्दे पर नहीं आए हैं,इसलिए फिल्‍म रोचक तरीके से आगे बढ़ती है। उनके बीच की बातों,संवादों और दृश्‍यों में इस नएपन की आभा है। अन्‍य किरदार भी घिसे-पिटे रूप में नहीं आते। नायिका की मां और नायक के पिता के चित्रण का भी अलग अंदाज है।
आर बाल्‍की की सभी फिल्‍मों में कुछ दृश्‍य ऐसे होते हैं,जहां किरदारों के कार्य-व्‍यापार होते हैं। अगर कलाकार समर्थ और संवगी हों तो वे दृश्‍य प्रभावशाली हो जाते हैं। की एंड का में भी ऐसे अनेक दृश्‍य हैं,लेकिन इस बार वे न तो फिल्‍म में कुछ जोड़ते हैं और न मुग्‍ध करते हैं। कुछ दृश्‍यों में मुख्‍य कलाकारों(करीना और अर्जुन) की जुगलबंदी नहीं हो सकी है। इस फिल्‍म में संवादों की प्रचुरता खलती है। कुछ दृश्‍यों में पारंपरिक अतिनाटकीयता निराश करती है। निश्चित ही बाल्‍की के लिए यह चुनौती रही होगी कि कैसे वे हिंदी फिल्‍मों के प्रचलित ढांचे में रहते हुए कुछ नया कर सकें।
करीना कपूर खान एक अंतराल के बाद अपनी योग्‍यता का उपयोग करती नजर आती हैं। इस समर्थ अभिनेत्री ने अपनी प्रतिभा का सदुपयोग नहीं किया है। किया की अाक्रामकता,महात्‍वाकांक्षा और भावुकता को व‍ह बखूबी किरदार में उतारती हैं। अर्जुन कपूर में प्रशंसनीय सुधार और निखार दिखा है। उन्‍होंने इस चुनौतीपूर्ण किरदार को सहजता से निभाने में मेहनत की है। वे इमोशनल उतार-चढ़ाव में भाव के अनुरूप हैं। की एंड का में स्‍वरूप संपत और रजित कपूर की मौजूदगी महत्‍वपूर्ण है।
की एंड का में अमिताभ बच्‍चन और जया बच्‍चन भी हैं। वे अपने वास्‍तविक चरित्र में हैं। उनके बीच की बातें दोनों से जुड़े संदर्भ को ताजा कर देती हैं। भले ही कैमियो या फिल्‍म की आवश्‍यकता के रूप में उन्‍हें पेश किया गया हो लेकिन जया बच्‍च्‍न का यह सवाल कचोटता तो है कि अमिताभ बच्‍चन किचेन में रहते और जया बच्‍चन रविवार को अपने प्रशंसकों का दर्शन देतीं। इन दिनों निर्देशक फिल्‍म कलाकारों की वास्‍तविक जिंदगी और संबंधों को पर्दे पर पेश करने की मनोरंजक युक्ति का इस्‍तेमाल करने लगे हैं। 
फिल्‍म का संगीत कमजोर है। एक ही गीत को बार-बार अलग अंतरों के साथ पृष्‍ठभूमि में सुनना भी अखरने लगता है।
अवधि-126 मिनट
स्‍टार तीन स्‍टार    

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