फिल्म समीक्षा : जुबान
एहसास और पहचान की कहानी
-अजय ब्रह्मात्मज
दिलशेर बच्चा है। वह अपने पिता के साथ गुरूद्वारे में
जाता है। वहां पिता के साथ गुरूवाणी और सबद गाता है। पिता बहरे हो रहे हैं। उनकी
आवाज असर खो रही है। और वे एक दिन आत्महत्या कर लेते हैं। दिलशेर का संगीत से
साथ छूट जाता है। वह हकलाता है। हकलाने की वजह से वह दब्बू हो गया है। उसे बचपन
में ही गुरचरण सिकंद से सबक मिलता है कि वह खुद के भरोसे ही कुछ हासिल किया जा
सकता है। वह बड़ा होता है और दिल्ली आ जाता है। दिल्ली में उसकी तमन्ना
गुरदासपुर के शेर गुरचरण सिकंद से मिलने और उनके साथ काम करने की है।
गुरचरण सिकंद खुद के भरोसे ही आज एक बड़ी कंपनी का
मालिक है। कभी उसके रोजगारदाता ने उस पर इतना यकीन किया था कि उसे अपनी बेटी और
संपत्ति सौंप गया। इरादे का पक्का और बिजनेस में माहिर गुरचरण को अपना बेटा ही पसंद
नहीं है। वह उसे चिढ़ाने के लिए दिलशेर को बढ़ावा देता है। बाप,बेटे और मां के
संबंधों के बीच एक रहस्य है,जो आगे खुलता है। गुरचरण सिकंद कुटिल मानसिकता का व्यावहारिक
व्यक्ति है। दिलशेर में उसे अपना जोश और इरादा दिखता है। अपनी पहचान की तलाश में
भटकते दिलशेर सब हासिल करने के बाद महसूस करता है कि उसे तो कुछ और चाहिए। बचपन
में दबाव की वजह से वह संगीत से दूर हो चुका था। अमीरा उसे एहसास करवाती है कि वह
गाते समय नहीं हकलाता है। यह हकलाहट भी उसकी हीनग्रंथि थी। गायकी उसे गंथिहीन कर
सकती है। यहां से दिलशेर और बड़ा हो जाता है। वह समझदार हो जाता है।
मोजेज सिंह ने दिलशेर के बहाने हर उस युवक की कहानी
कही है,जो अपनी जिंदगी में खुद का स्वर और हस्ताक्षर पाना चाहते हैं। कई बार हम
सभी भौतिक सुखों की लालसा में अपने मौलिक चाहत को दरकिनार कर देते हैं। फिर लालसा
का भंवरजाल हमें क्रूर और मतलबी बना देता है। दिलशेर अपनी पहचान और एहसास के बाद
अगला गुरचरण सिकंद बनने से बच जाता है। उसकी जिंदगी में आई अमीरा अपनी जटिलताओं के
बावजूद संबंधों की पवित्रता में यकीन रखती है। निष्कलुष दिलशेर में उसे एक गायक
दिखता है। मोजेज सिंह ने इस कहानी को एकरेखीय नहीं रखा है। वे बिंबों और पगतीकों
का इस्तेमाल करते हैं। वे हिंदी फिल्मों की प्रचलित संरचना मेटाफोरकल विस्तार
करते हैं।
यह फिल्म कलाकारों के सधे अभिनय के लिए देखी जा सकती
है। मनीष चौधरी लगातार अपने किरदारों को थोड़ी गहराई देकर दिलचस्प बना दे रहे
हैं। उन्हें देखना मनोरंजक होता है। मेघना मलिक की मौजूदगी मां के किरदार को रहस्यपूर्ण
अर्थ देता है। उन्होंने उसे निगेटिव नहीं होन दिया है,लेकिन एक औरत की भावना और
तृष्णा को बखूगी जाहिर करती हैं। गौरव चानना ने बेटे की भूमिका निभायी है। वे उस
किरदार की निरीहता का खूबसूरती से पेश करते हैं। सारा जेन डायस में खालिस एनर्जी
है। उनके किरदार को लेखक ने ढंग से परिभाषित नहीं किया है। फिर भी वह दिलशेर की
जिंदगी में उत्प्रेरक बन कर आती है और दी गई भूमिका को सहज तरीके से निभाती हैं।
यह फिल्म विकी कौशल के लिए उल्लेखनीय है। दर्शकों ने
उन्हें ‘मसान’ में
देखा है। उनकी पहली फिल्म ‘जुबान’ ही है।‘मसान’ पहले रिलीज हो गई। बहरहाल,विकी ने दिलशेर के हर अंदाज को
पुरअसर तरीके से पेश किया है। उनके अंदर एक उबाल और अव्यक्त गुस्सा है,जिन्हें
वे कुछ दृश्यों में जाहिर करते हैं। विकी अपनी पीढ़ी के संभावनाशील अभिनेता हैं। ‘जुबान’ देखते हुए लगता है कि वे
कभी भी ऊंची छलांग लगा सकते हैं।
मोजेज सिंह ने इस फिल्म में बाबा बुल्ले शाह और
सुरजीत पातर के गीतों का सदुपयोग किया है। संगीतकारों ने उन्हें सही संगत दी है।
अवधि- 118 मिनट
स्टार- साढ़े तीन स्टार
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