फिल्‍म समीक्षा : ग्‍लोंबल बाबा



फिल्‍म रिव्‍यू
धर्म का धंधा
ग्‍लोबल बाबा
-अजय ब्रह्मात्‍मज

सूर्य कुमार उपाध्‍याय की कथा और विशाल विजय कुमार की पटकथा लेकर मनोज तिवारी ने प्रासंगिक फिल्‍म बनाई है। पिछलें कुछ सालों में बाबाओं की करतूतों की सुर्खियां बनती रही हैं। हमें उनके अपराधों और कुकृत्‍यों की जानकारियां भी मिलती रही है। मनोज तिवारी ने ग्‍लोबल बाबा को उत्‍तर प्रदेश की कथाभूमि और पृष्‍ठभूमि दी है। यों ऐसी कहानियां और घटनाएं किसी भी प्रदेश में पाई जा सकती हैं।
यह चिलम पहलवान की कहानी है। संगीन अपराधी पुलिस की गिरफ्त से भाग जाता है। वह अपनी पहचान बदलता है और मौनी बाबा के सहयोग से कुंभ के मेले के दौरान नई वेशभूषा और पहचान धारण करता है। दोनों जल्‍दी ही ग्‍लोबल बाबा का आश्रम स्‍थापित करते हैं। धर्मभीरू समाज में उनकी लोकप्रियता बढ़ती है और वे स्‍थानीय नेता व गृह मंत्री के लिए चुनौती के रूप में सामने आते हैं। पूरी फिल्‍म नेता और बाबा के छल-फरेब के बीच चलती है। केवल टीवी रिपोर्टर ही इस दुष्‍चक्र में सामान्‍य नागरिक है,जिसका दोनों ही पक्ष इस्‍तेमाल करते हैं। फिल्‍म में आए समाज का कोई स्‍पष्‍ट चेहरा नहीं है। वे सभी भीड़ के हिस्‍से हैं। सचमुच भयावह स्थिति है।
मनोज तिवारी की ईमानदार कोशिश से इंकार नहीं किया जा सकता। उन्‍होंने बाबाओं के ट्रेंड को समझा है और उसे पर्दे पर उतारने का प्रयत्‍न किया है। इस कोशिश में वे किरदारों के मानस में प्रवेश नहीं करते हैं। हम पर्दे पर केवल उनके कार्य व्‍यापार देखते हैं। दृश्‍यों के रूप में वैसी प्रचलित छवियों को ही घटनाओं की तरह पेश कर दिया गया है,जिनमें उनके सेक्‍स,अपराध और छल की खबरें रहती हैं। भारतीय समाज के लिए जरूरी और प्रांसगिक ग्‍लोबल बाबा एक सिनेमाई अवसर था,जिसका समुचित उपयोग नहीं हो पाया। कलाकारों में पंकज त्रिपाठी और रवि किशन के अलावा बाकी सभी की संलग्‍नता कम दिखाई पड़ती है। अभिमन्‍यु सिंह ने बालों का झटकने-संभालने और स्मित मुस्‍कान बिखेरने पर अधिक ध्‍यान दिया है। हम उन्‍हें बेहतर अभिनेता के तौर पर जानते हैं। इस फिल्‍म में वे संतुष्‍ट नहीं करते। पंकज त्रिपाठी और रवि किशन ने अपने किरदारों पर काम किया है और उन्‍हें रोचक तरीके से पेश किया है। पंकज त्रिपाठी मौनी बाबा के किरदार को अंत तक पूरी सलाहियत के साथ निभा ले जाते हें। वे अभिनय की मुकरियों से दश्‍यों को जीवंत कर देते हें।
ग्‍लोबल बाबा सीमित बजट और संसाधनों से बनी फिल्‍म है। इस सीमा का प्रभाव पूरी फिल्‍म में दिखाई पड़ता है। दृश्‍य खिल नहीं पाते। इस फिल्‍म की दृश्‍य संरचना और बनावट में देसी टच है,जो शहरी दर्शकों को भदेस लग सकता है। सच्‍चाई यह है कि हिंदी सिनेमा ने कस्‍बों और देहातों समेत उत्‍तर भारत की एक काल्‍पनिक छवि पेश की है। उससे इतर जब भी कोई लेखक-निर्देशक सच के करीब जाता है तो वह हमें उजड्ड और गंवार लगने लगता है। ग्‍लोबल बाबा के अनेक दृश्‍य ऐसा एहसास देते हैं। मनोज तिवारी हमें देसी काहौल में ले जाते हैं। चिलम पहलवान और मौनी बाबा की अपनी भाषा में खुसुर-पुसुर बहुत खास है। इसी प्रकार पर्दाफाश के समय स्‍टेज पर चल रहे लौंडा नाच का संदर्भ नहीं मालूम हो तो वह फूहड़ और अश्‍लील लग सकता है।  
ग्‍लोबल बाबा बहुत अच्‍छी तरह धर्म के ढोंगी ठेकेदार और राजनीति के चालबाज चौकीदारों के बीच के संबंधों और स्‍वार्थ को जाहिर करती है। लेखक-निर्देशक ने अनेक मुद्दों को समेटने का प्रयास तो किया है,लेकिन उनके आवश्‍यक विस्‍तार में नहीं जा सके हैं। फिर भी ग्‍लोबल बाबा और बाबओं से संबंधित खबरों में साम्‍य तो है। यही बात इस फिल्‍म को जरूरी बना देती है।
अवधि- 118 मिनट
स्‍टार- ढाई स्‍टार

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को