निदा फाजली : तंज और तड़प है उनके लेखन में
-अजय ब्रह्मात्मज
खार दांडा में स्थित उनका फ्लैट मुंबई आए और बसे
युवा पत्रकारों और साहित्यकारों का अड्डा था। न कोई निमंत्रण और ना ही कोई रोक। उनके
घर का दरवाजा बस एक कॉल बेल के इंतजार में खुलने के लिए तैयार रहता था। आप किसी के
साथ आएं या खुद पहुंच जाएं। उनकी बैठकी में सभी के लिए जगह होती थी। पहली मुलाकात में
ही बेतकल्लुफ हो जाना और अपनी जिंदादिली से कायल बना लेना उनका बेसिक मिजाज था। बातचीत
और बहस में तरक्कीपसंद खयालों से वे लबालब कर देते थे। विरोधी विचारों को उन्हें
सुनने में दिक्कत नहीं होती थी, लेकिन वे इरादतन बहस को उस मुकाम तक ले जाते थे, जहां
उनसे राजी हो जाना आम बात थी। हिंदी समाज और हिंदी-उर्दू साहित्य की प्रगतिशील धाराओं
से परिचित निदा फाजली के व्यक्तित्व, शायरी और लेखन में आक्रामक बिंदासपन रहा। वे
मखौल उड़ाते समय भी लफ्जों की शालीनता में यकीन रखते थे। शायरी की शालीनता और लियाकत
उनकी बातचीत और व्यवहार में भी नजर आती थी। आप अपनी व्यक्तिगत मुश्किलें साझा करें
तो बड़े भाई की तरह उनके पास हल रहते थे। और कभी पेशे से संबंधित खयालों की उलझन हो
तो वे अपने अनुभव और जानकारी से सुलझा कर उसका सिरा थमा देते थे। मुंबई में पत्रकारों
और सात्यिकारों की कई पीढि़यां उनकी बैठकी से समझदार और सफल हुईं। हम सभी उनकी जिंदगी
में शामिल थे और हमारी जिंदगी में उनकी जरूरी हिस्सेदारी है।
1992 के मुंबई के दंगों ने उनकी मुस्कारहट छीन
ली थी। उन्हें अपना फ्लैट छोड़ कर एक दोस्त के यहां कुछ रातें बितानी पड़ी थीं। और
फिर उन्होंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा दर्दनाक फैसला लिया था कि वे मुस्लिम बहुल बस्ती
में रहेंगे। उन दंगों ने मुंबई के बाशिंदों को धर्म के आधार पर बांटा था। अनेक हिंदू
और मुस्लिम परिवारों ने अपने ठिकाने बदल लिए लिए थे। मजबूरी में उन्हें अपनी धार्मिक
पहचान ओढ़नी पड़ी थी। निदा फाजली ताजिंदगी नई रिहाइश और पहचान में बेचैन रहे। उन्होंने
मस्जिद,अल्लाह,मुसलमान सभी पर तंज कसे। भारत पाकिस्तान बंटवारे के बाद अपने दोस्तों
को खो देने के डर से पाकिस्तान नहीं गए निदा फाजली अपने चुने हुए शहर के नए बंटवारे
के शिकार हुए। उन सभी के प्रति उनके दिल में रंज था, जो इस बंटवारे के जिम्मेदार थे।
उन्होंने उन्हें कभी माफ नहीं किया। उनकी तड़प और नाराजगी गजलों,नज्मों,दोहों और
संस्मरणों में व्यक्त होती रही। मुशायरों में वे अपनी बातें करते रहे। अपने मशहूर
कॉलम ‘अंदाज-ए-बयां और’ में उन्होंने साहित्यकारों को याद
करने के साथ ही उस परंपरा को भी रेखांकित किया,जिसकी आखिरी कड़ी के रूप में हम उन्हें
देख सकते हैं। हिंदी फिल्मों के गीतकारों की साहित्यिक जमात के वे मशहूर नाम हैं।
साहित्य में उनकी दखल बराबर बनी रही।
‘खोया हुआ सा कुछ’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मनित निदा फाजली की गद्य और पद्य में
समान गति रही। उनकी आत्मकथात्मक कूतियों ‘दीवारों के बीच’ और ‘दीवारों के बाहर’ में हिंदी-उर्दू मिश्रित भाषा की रवानी
और अमीरी दिखती है। निदा साहब हमारे समय के कबीर हैं। उन्होंने दोनों ही धर्मो के
कट्टरपथियों को आड़े हाथों लिया। बच्चो,मेहनतकशों,फूलों और पक्षियों के पक्ष में लिखा
औा सुनाया। हिंदी फिल्मों में कमाल अमरोही की ‘रजिया सुल्तान’ से उनका आगमन हुआ। उन्होंने अपनी शर्तों पर ही गीत लिखे। उन गीतों में साहित्य
की सादगी और गंभीरता बरती।
Comments
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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चर्चा मंच परिवार की ओर से स्व-निदा फाजली और स्व. अविनाश वाचस्पति को भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'