दरअसल : फितूर में कट्रीना कैफ
-अजय ब्रह्मात्मज
अभिषेक कपूर की पिछली रिलीज ‘फितूर’ दर्शकों को पसंद नहीं आई। फिल्म
पसंद न आने की सभी की वजहें अलग-अलग हो सकती हैं। फिर भी सभी की नापसंद में एक
समानता दिखी। कट्रीना कैफ का काम अधिकांश को पसंद नहीं आया। कुछ ने तो यहां तक कहा
कि उन्होंने बुरा काम किया है। वह फिरदौस के किरदार में कतई नहीं जंची। अभिषेक
कपूर ने उन्हें जिस तरह पेश किया,वह भी दर्शकों को नागवार गुजरा। किरदार ढंग से
संवर नहीं पाया। वह जिस रंग-ढंग के साथ पर्दे पर दिखा,उसे भी कट्रीना संवार नहीं
सकीं। कट्रीना की कुछ बदतरीन फिल्मों में ‘फितूर’ शामिल रहेगी।
मैंने खुद अभिषेक कपूर से कट्रीना की पसंद की वजह पूछी
थी? मेरे सवाल में यह संदेह जाहिर था कि कट्रीना ऐसी गहन
भूमिकाओं के योग्य नहीं हैं। तब अभिषेक कपूर ने स्पष्ट शब्दों में अपना तर्क
दिया था। उनका कहना था,’ फिल्म देखेंगे तो आपको लगेगा कि मेरा फैसला सही है।
मैं उनके चुनाव के कारण नहीं देना चाहता। मेरे बताने से धारणा बदलने वाली नहीं है।
यह तो देख कर ही हो सकता है। कुछ लोगों में अलग तरह की खूबी होती है। खासकर फिल्म में
मेरे किरदार की है,जिसे कट्रीना निभा रही हैं। किरदार और कट्रीना की छवि में थोड़ी समानता
है। यह जरूरी है कि हम एक्टरों को मौका दें। पहली बार वह भी अपने कम्फर्ट जोन से बाहर
आई हैं। एक बार किसी को मौका देकर देखना चाहिए। वह कर सकता है या नहीं। यह पहले देखना
चाहिए। मैंने देखा है कि कट्रीना के उच्चारण की आलोचना होती है,लेकिन एक्टर केवल अपने
उच्चारण से नहीं जाना जाता है। एक्टर अपनी पूरी ऊर्जा के लिए पहचाना जाता है। मुझे
उच्चारण इतना आवश्यक नहीं लगता है। एक हद के बाद भाषा भी महत्व नहीं रखती है। अगर आप
के इमोशन सही हैं तो भाषा बाधक नहीं बनती है। आप जो महसूस कर रहे हैं,वह सही तरीके
से दर्शकों तक पहुंचना जरूरी है। कट्रीना में वह काबिलियत है। इस फिल्म में वह अपनी
आलोचनाओं को खत्म करती नजर आएंगी।‘
फिलम रिलीज होने के बाद अभिषेक कपूर के सारे तर्क आधारहीन निकले।
दरअसल,फिरदौस के चरित्र में भी कमियां थीं। 21 वीं सदी में इस तरह के किरदार स्वीकार
नहीं हो सकते। अभिषेक कपूर ने परीकथा और परिस्थिति को बेमेल पैदा किया था। किरदार
ढंग से गढ़ा नहीं गया हो तो दर्शक उससे जुड़ नहीं पाते। एक फांक रह जाती है।
कट्रीना कैफ की संबसे बड़ी दिक्कत संवाद अदायगी है। सभी जानते हैं कि वह हिंदी
नहीं बोल पाती हैं। इतने सालों के अभ्यास और कीर्ति के बावजूद भाषा सीखने और उसके
अभ्यास पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया हैं। जिन फिल्मों में उन्हें गुडि़या या
शोपीस बन कर पेश होना होता है,उनमें तो वह अपनी अदा और अंदाज से संभाल लेती हैं।
वह बला की खूबसूरत हैं,लेकिन अदा से अदायगी में आने पर उनका हुस्न भी काम नहीं
आता। खासकर फितूर जैसी फिल्मों में उनकी कमियां उजागर हो जाती हैं। उच्चारण दोष
तो आदित्य रॉय कपूर के संवादों में भी था,लेकिन वे भ्रष्ट भाषा बोल पा रहे थे।
उन्हें संवादों से अधिक प्रतिक्रिया और मनोभावों से काम लेना था।
कट्रीना की दूसरी बड़ी समस्या यह हुई कि इस फिल्म में उन्हें तब्बू
के साथ आना पड़ा। दर्शकों को मां-बेटी के बीच बड़ा फर्क दिखा। जब आप समर्थ
कलाकारों के साथ एक फ्रेम में आते हैं तो पता चलता है कि आप कितने व्यर्थ हैं। दर्शकों
को कट्रीना की इस व्यर्थता का अहसास इस फिल्म में हुआ। साथ के दृश्यों में तो
वह कमजोर पड़ीं ही। यहां तक कि टेलीफोन पर हो रही बातचीत में भी वह तब्बू के करीब
नहीं पहुंच सकीं। ऐसी फिल्में प्रस्तुति में अपूर्ण होते हुए भी किसी कलाकार की
औकात जाहिर कर देती हैं। कट्रीना की अयोग्यता इसलिए भी उभर कर सामने आई कि फितूर
फिल्म में भी कमियां थीं।
संवाद अदायगी में फिल्म की भाषा के लहजे,उच्चारण,ठहराव,जोर और विराम पर
ध्यान देने की जरूरत होती है। इसके साथ ही प्रयुक्त शब्दों के अर्थ की जानकारी
हो तो बोलने में भावार्थ अभिनय में बहुत कुछ जुड़ जाता है।
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