फिल्म समीक्षा : अलीगढ़
साहसी और संवेदनशील
अलीगढ़
-अजय ब्रह्मात्मज
हंसल मेहता की ‘अलीगढ़’ उनकी पिछली फिल्म ‘शाहिद’ की तरह ही हमारे समकालीन समाज का दस्तावेज है। अतीत की
घटनाओं और ऐतिहासिक चरित्रों पर पीरियड फिल्में बनाना मुश्किल काम है,लेकिन अपने
वर्त्तमान को पैनी नजर के साथ चित्रबद्ध करना भी आसान नहीं है। हंसल मेहता इसे
सफल तरीके से रच पा रहे हैं। उनकी पीढ़ी के अन्य फिल्मकारों के लिए यह प्रेरक
है। हंसल मेहता ने इस बार भी समाज के अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को चुना
है। प्रोफेसर सिरस हमारे समय के ऐसे साधारण चरित्र हैं,जो अपनी निजी जिंदगी में
एक कोना तलाश कर एकाकी खुशी से संतुष्ट रह सकते हैं। किंतु हम पाते हैं कि समाज
के कथित संरक्षक और ठेकेदार ऐसे व्यक्तियों की जिंदगी तबाह कर देते हैं। उन्हें
हाशिए पर धकेल दिया जाता है। उन पर उंगलियां उठाई जाती हैं। उन्हें शर्मसार किया
जाता है। प्रोफेसर सिरस जैसे व्यक्तियों की तो चीख भी नहीं सुनाई पड़ती। उनकी
खामोशी ही उनका प्रतिकार है। उनकी आंखें में उतर आई शून्यता समाज के प्रति व्यक्तिगत
प्रतिरोध है।
प्रोफेसर सिरस अध्ययन-अध्यापन से फुर्सत पाने पर दो
पैग ह्विस्की,लता मंगेशकर गानों और अपने पृथक यौन व्यवहार के साथ संतुष्ट हैं।
उनकी जिंदगी में तब भूचाल आता है,जब दो रिपोर्टर जबरन उनके कमरे में घुस कर उनकी
प्रायवेसी को सार्वजनिक कर देते हैं। कथित नैतिकता के तहत उन्हें मुअत्तल कर
दिया जाता है। उनकी सुनवाई तक नहीं होती। बाद में उन्हें नागरिक अधिकारों से भी
वंचित करने की कोशिश की जाती है। उनकी अप्रचारित व्यथा कथा से दिल्ली का युवा और
जोशीला रिपोर्टर चौंकता है। वह उनके पक्ष से पाठकों को परिचित कराता है। साथ ही
प्रोफेसर सिरस को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी करता है। प्रोफेसर सिरस बेमन
से कोर्ट में जाते हैं। तब के कानूनी प्रावधान से उनकी जीत होती है,लेकिन वे
जीत-हार से आगे निकल चुके हैं। वे सुकून की तलाश में बेमुरव्वत जमाने से चौकन्ने
और चिढ़चिढ़े होने के बावजूद छोटी खुशियों से भी प्रसन्न होना जानते हैं।
पीली मटमैली रोशनी और सांवली छटा के दृश्यों से
निर्देशक हंसल मेहता प्रोफेसर सिरस के अवसाद को पर्दे पर बखूबी उतारते हैं। उन्होंने
उदासी और अवसन्न्ता को अलग आयाम दे दिया है। पहले दृश्य से आखिरी दृश्य तक की
फीकी नीम रोशनी प्रोफेसर सिरस के अंतस की अभिव्यक्ति है। हंसल मेहता के शिल्प
में चमक और चकाचौंध नहीं रहती। वे पूरी सादगी से किरदारो की जिंदगी में उतरते हैं
और भावों का गागर भर लाते हैं।दरअसल,कंटेंट की एकाग्रता उन्हें फालतू साज-सज्जा
से बचा ले जाती है। वे किरदार के मनोभावों और अंतर्विरोधों को कभी संवादों तो कभी
मूक दूश्यों से जाहिर करते हैं। इस फिल्म में उन्होंने मुख्य कलाकारों की
खामोशी और संवादहीन अभिव्यक्ति का बेहतरीन उपयोग किया है। वे प्रोफेसर सिरस का
किरदार गढ़ने के विस्तार में नहीं जाते। ‘शाहिद’ की तरह ही वे प्रोफेसर सिरस के प्रति दर्शकों की सहानुभूति
नहीं चाहते। उनके किरदार हम सभी की तरह परिस्थितियों के शिकार तो होते हैं,लेकिन
वे बेचारे नहीं होते। वे करुणा पैदा करते हैं। दया नहीं चाहते हैं। वे अपने तई
संघर्ष करते हैं और विजयी भी होते हैं,लेकिन कोई उद्घोष नहीं करते। बतौर निर्देशक
हंसल मेहता का यह संयम उनकी फिल्मों का स्थायी प्रभाव बढ़ा देता है।
अभिनेताओं में पहले राजकुमार राव की बात करें। इस फिल्म
में वे सहायक भूमिका में हैं। अमूमन थोड़े मशहूर हो गए कलाकार ऐसी भूमिकाएं इस वजह
से छोड़ देते हेंकि मुझे साइड रोल नहीं करना है। ‘अलीगढ़’ में दीपू का किरदार निभा रहे राजकुमार राव ने साबित किया है
कि सहायक भूमिका भी खास हो सकती है। बशर्ते किरदार में यकीन हो और उसे निभाने की
शिद्दत हो। राजकुमार के लिए मनोज बाजपेयी के साथ के दृश्य चुनौती से अघिक
जुगलबंदी की तरह है। साथ के दृश्यों में दोनों निखरते हैं। राजकुमार राव के अभिनय
में सादगी के साथ अभिव्यक्ति का संयम है। वे एक्सप्रेशन की फिजूलखर्ची नहीं
करते। मनोज बाजपेयी ने फिर से एक मिसाल पेश की है। उन्होंने जाहिर किया है कि सही
स्क्रिप्ट मिले तो वे किसी भी रंग में ढल सकते हैं। उन्होंने प्रोफेसर सिरस के
एकाकीपन को उनकी भंगुरता के साथ पेश किया है। उनकी चाल-ढाल में एक किस्म का
अकेलापन है। मनोज बाजपेयी ने किरदार की भाव-भंगिमा के साथ उसकी हंसी,खुशी और उदासी
को यथोचित मात्रा में इस्तेमाल किया है। उन्होंने अभिनय का मापदंड खुद के साथ ही
दूसरों के लिए भी बढ़ा दिया है। उन्होंने यादगार अभिनय किया है। फिल्म के कुछ
दृश्यों में वे कविता की तरह संवादों के बीच की खामोशी में अधिक एक्सप्रेसिव
होते हैं।
निश्चित ही यह फिल्म समलैंगिकता के प्रश्नों को छूती
है,लेकिन यह कहीं से भी उसे सनसनीखेज नहीं बनाती है। समलैंगिकता इस फिल्म का खास
पहलू है,जो व्यक्ति की चाहत,स्वतंत्रता और प्रायवेसी से संबंधित है। हिंदी फिल्मों
में समलैंगिक किरदार अमूमन भ्रष्ट और फूहड़ तरीके से पेश होते रहे हैं। ऐसे
किरदारों को साधरण निर्देशक मजाक बना देते हैं। हंसल मेहता ने पूरी गंभीरता बरती
है। उन्होंने किरदार और मुद्दा दोनों के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाया है। लेखक
अपूर्वा असरानी की समझ और अपनी सोच से उन्होंने समलैंगिकता और सेक्शन 377 के
प्रति दर्शकों की समझदारी दी है। ‘अलीगढ़’ साहसिक फिल्म है।
अवधि- 120 मिनट
स्टार- साढ़े चार स्टार
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