दरअसल : खलनायक बन जाते हैं थिएटर एक्‍टर



-अजय ब्रह्मात्‍मज
    ऐसा नहीं कह सकते कि यह किसी साजिश के तहत होता है,लेकिन यह भी सच है कि ऐस होता है। थिएटर से फिल्‍मों में आए ज्‍यादातर एक्‍टर आरंभिक सफलता के बाद खलनायक की भूमिकाओं में सिमट कर रह जाते हैं। लंबे समय से यही होता आ रहा है। आठवें दशक के आरंभ में राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय से आए ओम शिवपुरी समर्थ अभिनेता थे। छोटी-मोटी भूमिकाओं से उन्‍होंने पहचान बनाई। बाद में मुख्‍यधारा की फिल्‍मों में उन्‍हें मुख्‍य रूप से खलनायक की भूमिकाओं में ही इस्‍तेमाल किया गया। कभी-कभार चरित्र भूमिकाओं में भी हम ने उन्‍हें देखा। इस तरह उनकी बहुमुखी प्रतिभा का सदुपयोग नहीं हो पाया। उनके बाद अमरीश पुरी,मोहन आगाशे,अनुपम खेर,परेश रावल,आशीष विद्यार्थी,आशुतोष राणा,मुकेश तिवारी,मनोज बाजपेयी,इरफान खान,यशपाल शर्मा,जाकिर हुसैन,गोविंद नामदेव,के के मेनन,नीरज काबी,पंकज त्रिपाठी,दिब्‍येन्‍दु भट्टाचार्य,राजकुमार राव और मानव कौल जैसे अनेक नाम इस सूची में शामिल किए जा सकते हैं।
    दरअसल,हिंदी फिल्‍मों के नायक(हीरो) के खास प्रतिमान बन गए है। इस प्रतिमान के साथ उनकी उम्र भी जुड़ जाती है। गौर करें तो हिंदी फिल्‍मों में ज्‍यादातर अभिनेता 19 से 25 की उम्र में हीरो के तौर चुन लिए जाते हैं। अगर वे फिल्‍म इंडस्‍ट्री से हों तो पूरी तैयारी के साथ उनकी लांचिंग होती है। अमिताभ बच्‍चन और शाह रुख खान जैसे अपवाद कम ही होते हैं। थिएटर से आए ज्‍यादातर एक्‍टर पहले अवसर के पूर्व थिएटर में कई साल बिता चुके होते हैं। प्रशिक्षित एक्‍टर दो-तीन सालों की ट्रेनिंग और पढ़ाई के बाद मुंबई की तरफ मुखातिब होते हैं। फिल्‍मों की राह और प्रवेश की संभावना खोजने में कुछ महीने और साल निकल जाते हैं। जब तक पहला मौका मिलता है,तब तक वे हीरो बन पाने की उम्र पार कर चुके होते हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री की एक सच्‍चाई यह भी है कि हीरो के तौर पर स्‍थापित होने के बाद वे 50 की उम्र तक भी हीरों की भूमिकाओं के लिए उचित और स्‍वीकृत रहते हैं। हिंदी फिल्‍मों के निर्माता 30 से अधिक उम्र के आउटसाइडर अभिनेताओं को कम ही मौके देते हैं।
    यह सच है कि खलनायक की भूमिकाओं के लिए जब नामों पर विचार हाता है तो हिंदी फिल्‍मों के निर्माताओं को थिएटर एक्‍टर का ही खयाल आता है। नई फिल्‍मों की कास्टिंग में सपोर्टिव और निगेटिव भूमिकाओं के लिए कास्टिंग डायरेक्‍टर थिएटर बैकग्राउंड के एक्‍टर ही चुनते हैं। निस्‍संदेह प्रशिक्षित अभिनेता छोटी से छोटी भूमिकाओं को भी खास बना देते हैं। अदाकारी में माहिर ये अभिनेता अपनी भाव-भंगिमाओं से किरदारों को बखूबी निभाते हैं। हर साल एक-दो ऐसे अभिनेता उभरते हैं,जो तुरंत ही खल भूमिकाओं तक सीमित हो जाते हैं। वहां उनकी तारीफ होती है। और वे चाहने पर भी मनोज बाजपेयी या इरफान खान की तरह खींची गई हद नहीं तोड़ पाते। आप कभी मनोज या इरफान से बातें करें और वे खुलें तो ऐसे अनेक किस्‍से पता चलेंगे जिनमें उन्‍हें खल भूमिकाओं के लिए बाध्‍य किया गया। मना करने पर उन्‍हें बहिष्‍कृत किया गया।
पिछले सालों में राजनीति में मनोज बाजेयी न शानदार खल भूमिका से करारा जवाब दिया तो एक बार फिर उन्‍हें खल भूमिकाओं की हद में बांधने की कोशिश की गई। उन्‍हें मुश्किल फैसला लेना पड़ा कि वे निरंतर खल भूमिकाएं नहीं करेंगे। कमोेश यही हाल थिएटर से अधिकोश एक्‍टर का है। वे मजबूरी में पिसते और सिमटते जाते हैं। मानव कौल समर्थ अभिनेता हैं,लेकिन हम देख रहे हैं कि उन्‍हें फिर से खल भूमिकाएं ही दी जा रही हैं। पंकज त्रिपाठी किसी भी प्रकार की भूमिका के लिए सक्षम हैं, लेकिन उनकी भी घेराबंदी आरंभ हो चुकी है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री थ्‍िाएटर एक्‍टर की प्रतिभा का उपयोग तो करती है,लेकिन उन्‍हें नायक या प्रमुख किरदार बनाने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाती। सिनेमा बदल रहा है। फिर भी थिएटर एक्‍टर के प्रति फिल्‍मकारों का रवैया नहीं बदल पा रहा है।

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