फिल्म समीक्षा : अलीगढ़
साहसी और संवेदनशील अलीगढ़ -अजय ब्रह्मात्मज हंसल मेहता की ‘ अलीगढ़ ’ उनकी पिछली फिल्म ‘ शाहिद ’ की तरह ही हमारे समकालीन समाज का दस्तावेज है। अतीत की घटनाओं और ऐतिहासिक चरित्रों पर पीरियड फिल्में बनाना मुश्किल काम है,लेकिन अपने वर्त्तमान को पैनी नजर के साथ चित्रबद्ध करना भी आसान नहीं है। हंसल मेहता इसे सफल तरीके से रच पा रहे हैं। उनकी पीढ़ी के अन्य फिल्मकारों के लिए यह प्रेरक है। हंसल मेहता ने इस बार भी समाज के अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को चुना है। प्रोफेसर सिरस हमारे समय के ऐसे साधारण चरित्र हैं,जो अपनी निजी जिंदगी में एक कोना तलाश कर एकाकी खुशी से संतुष्ट रह सकते हैं। किंतु हम पाते हैं कि समाज के कथित संरक्षक और ठेकेदार ऐसे व्यक्तियों की जिंदगी तबाह कर देते हैं। उन्हें हाशिए पर धकेल दिया जाता है। उन पर उंगलियां उठाई जाती हैं। उन्हें शर्मसार किया जाता है। प्रोफेसर सिरस जैसे व्यक्तियों की तो चीख भी नहीं सुनाई पड़ती। उनकी खामोशी ही उनका प्रतिकार है। उनकी आंखें में उतर आई शून्यता समाज के प्रति व्यक्तिगत प्रतिरोध है। प्रोफेसर सिरस अध्ययन-अध्यापन स