हर जिंदगी में है प्रेम का फितूर - अभिेषेक कपूर
फितूर की कहानी चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ग्रेट एक्सपेक्टेशंस
पर आधारित है। सोचें कि यह उपन्यास क्लासिक क्यों है? क्योंकि यह मानवीय भावनाओं से परिपूर्ण है। दुनिया में हर आदमी इमोशन के साथ
जुड़ जाता है। जब दिल टूटता है तो आदमी अपना संतुलन खो बैठता है। अलग संसार में चला
जाता है। पागल हो जाता है। मुझे लगा कि इस कहानी से दर्शक जुड़ जाएंगे। हम ने उपन्यास
से सार लेकर उसे अपनी दुनिया में अपने तरीके से बनाया है। इस फिल्म में व्यक्तियों
और हालात से बदलते उनके रिश्तों की कहानी है।
यह फिल्म केवल प्रेम कहानी नहीं है। यह कहानी प्यार
के बारे में है। प्यार और दिल टूटने की भावनाएं बार-बार दोहराई जाती हैं। कोई भी इंसान
ऐसे मुकामों से गुजरे है तो थोड़ा हिल जाए। आप किसी से प्यार करते हैं तो अपने अंदर
किसी मासूम कोने में उसे जगह देते हो। वहां पर वह आकर आपको अंदर से तहस-नहस करने लगता
है। वहां पर आपको बचाने के लिए कोई नहीं होता है। वह प्यार आपको इस कदर तोड़ देता है
कि आपका खुद पर कंट्रोल नहीं रह जाता। यह दो सौ साल पहले हुआ और दो सौ साल बाद भी होगा
। केवलसाल बदलते हैं। मानवीय आचरण नहीं बदलते हैं।
फितूर में कश्मीर
कश्मीर को हमने राजनीतिक बैकड्राप की तरह नहीं रखा है।
ट्रेलर में जो डॉयलाग आता है,उसके अलावा फिल्म में कुछ राजनीतिक नहीं है। कश्मीर का
इस्तेमाल हमने खूबसूरती के लिए किया है। कश्मीर के चिनार के पेड़ हर साल नवंबर में पतझड़
से पहले लाल हो जाते हैं। मेरे लिए उससे खूबसूरत कुछ नहीं है।
जब मैं बड़ा हो रहा था तो मैंने देखा कि फिल्मों
में खूबसूरती के लिए कश्मीर का ही इस्तेमाल होता है। यह मेरी चाह थी कि मैं कश्मीर
को अपनी फिल्म में दिखाऊं। हमने श्रीनगर के बाहर की शूटिंग नहीं की है। श्रीनगर में
निशात बाग है और डल लेक भी है। इन दोनों लोकेशन के बीच फिल्म का फर्स्ट एक्ट है।
तकलीफ होती है कश्मीरियों को देख कर
कश्मीर भारत का हिस्सा जरूर है। वहां के लोग मुझे बहुत
तकलीफ में नजर आए। वहां के लोग हर दिन संघर्ष करते हैं। यह मेरी निजी राय है। हम सब
हमेशा कश्मीर की खूबसूरती की बात करते हैं। वहां पर हमेशा सेना तैनात रहती है। कितनी
तकलीफ होती है। आपके घर के बाहर सेना की लाइन लगी हुई है। आपकी जांच होती रहती है।
मैं समझता हूं कि सुरक्षा के लिहाज से यह जरूरी है। कुल मिलाकर तकलीफ कश्मीरी को ही
हो रही है। देश एक हैं। केबल टीवी के जरिए वे देखते हैं कि बाकी देश और देशों में क्या
हो रहा है। पूरे देश में फिल्में लगती हैं,लेकिन वहां थिएटर नहीं है। यह सब देख के
मुझे बहुत दुख होता है।
फिल्म की कहानी
इंसान जब पैदा होता है तो वह खाली ब्लैकबोर्ड की
तरह होता है। उसके अनुभव और आस पास का माहौल उसे शख्सियत देते हैं। कोई आदमी पैदा होते
ही अच्छा या बुरा नहीं होता है। अनुभव उसे अच्छा या बुरा बनाते हैं। उनमें से ही एक
अनुभव प्यार है। कुछ लोगों के प्यार का अनुभव अच्छा होता है,जो उन्हें और बेहतर इंसान
बनाता है। अगर किसी इंसान का दिल टूटता है तो उसके व्यक्तित्व में खरोंच आ जाती है।
उस खरोंच से इंसान निगेटिव बन जाता है। वह हर चीज में शक करने लगता है। प्यार की एनर्जी
ही ऐसी है। सही चैनल से आए तो आपको कमाल का इंसान बना देती है। अगर उसने आपको गलत तरीके
से टच कर लिया तो सब कुछ निगेटिव हो जाता है। यह निगेटिविटी संक्रामक होती है।
फैलती है।
कट्रीना कैफ का चुनाव
फिल्म देखेंगे तो आपको लगेगा कि मेरा फैसला सही है।
मैं उनके चुनाव के कारण नहीं देना चाहता। मेरे बताने से धारणा बदलने वाली नहीं है।
यह तो देख कर ही हो सकता है। कुछ लोगों में अलग तरह की खूबी होती है। खासकर फिल्म में
मेरे किरदार की है,जिसे कट्रीना निभा रही हैं। किरदार और कट्रीना की छवि में थोड़ी समानता
है। यह जरूरी है कि हम एक्टरों को मौका दें। पहली बार वह भी अपने कम्फर्ट जोन से बाहर
आई हैं। एक बार किसी को मौका देकर देखना चाहिए। वह कर सकता है या नहीं। यह पहले देखना
चाहिए। मैंने देखा है कि कट्रीना के उच्चारण की आलोचना होती है,लेकिन एक्टर केवल अपने
उच्चारण से नहीं जाना जाता है। एक्टर अपनी पूरी ऊर्जा के लिए पहचाना जाता है। मुझे
उच्चारण इतना आवश्यक नहीं लगता है। एक हद के बाद भाषा भी महत्व नहीं रखती है। अगर आप
के इमोशन सही हैं तो भाषा बाधक नहीं बनती है। आप जो महसूस कर रहे हैं,वह सही तरीके
से दर्शकों तक पहुंचना जरूरी है। कट्रीना में वह काबिलियत है। इस फिल्म में वह अपनी
आलोचनाओं को खत्म करती नजर आएंगी।
तब्बू का चुनाव
सच कहूं तो फिल्म लिखते समय सबसे पहले मेरे दिमाग में
तब्बू ही थी। मैंने तब्बू को २०१३ में एक मैसेज भेजा था कि मैं एक कहानी पर काम कर
रहा हूं। आप उस किरदार के लिए परफेक्ट हैं। एक आइडिया भेजा था। हमने एक दूसरे के कुछ
मैसेज भी किए थे। फिर जैसे कहानी बनती गई। किरदार बनते गए। फिर रेखा जी आ गईं। मुझे
तीन किरदारों के माहौल के लिए वह सही लगा। फिर से बदलाव हुआ और अंत में तब्बू ही फिल्म कर रही हैं। वह तीन दिनों
में मेरे पास आ गईं। वह सीधे सेट पर ही आ गई। मुझे उनके साथ तैयारी का मौका ही नहीं
मिला। ऐसे किरदार के लिए एक्टर तीन महीने तैयारी में लगाते हैं। ऐसे किरदार परतें
होती हैं। यह फिल्म मेरे लिए कठिन रही। यह फिल्म ज्यादातर बिटवीन द लाइन है। किरदारों
को भी उसी तरह तैयार करना था।
आदित्य राय कपूर
उनमें मासूमियत है। उन्होंने ज्यादा काम नहीं किया है।
उसका मजा ही कुछ और है। जब ऐसा कोई एक्टर आता है तो वह खुले दिमाग से आता है। वह किरदार
में अलग-अलग तरीके से ढलने की कोशिश करता है। हम उसका हाथ पकड़ के बातचीत करते थे। खूब
चर्चा करते थे। इस फिल्म से उसकी ग्रोथ होगी। उसे भी नया अनोखा अनुभव मिला है। यह आगे
उसके काम आएगा। उसकी अंदरूनी मासूमियत मुझे सबसे खास लगती है।
लव स्टोरी बनाने की ख्वाहिश
मैंने कुल तीन फिल्में बनायी है। यह चौथी फिल्म है।
मुझे हमेशा से था कि लव स्टोरी बनाऊंगा। लव स्टोरी में मुझे रॉमकॉम नहीं बनाना था।
वह हल्की होती है। ऐसी कहानियों में मेरा पेट नहीं भरता। मैं अपनी फिल्मों में जान
लगा देना चाहता हूं। ऐसा न लगे कि टेबल टेनिस बॉल के साथ फुटबाल खेल रहे हैं। मुझे
फुटबाल खेलने का शौक है। मुझे चाहिए कि कहानी में जान हो, जिसे बनाने में संघर्ष करना
पड़े। मैं हमेशा यादगार फिल्में बनाना चाहता हूं। मेरी कोशिश यही रहती है। यह फिल्म
प्यार के संघर्ष की कहानी है। खासकर दिल टूटने की। यह कहानी १९८० से लेकर अब तक की
है। हम फिल्म में फ्लैश बैक से वर्तमान में जाते हैं। थोड़ी एपिक की तरह दिखेगी।
सोच-समझ में ग्लोबल,फिल्में लोकल
भारत जैसा कोई देश नहीं है। हॉलीवुड सारी दुनिया को
टेक ओवर कर चुका है। दुनिया में कही पर फिल्म इंडस्ट्री खड़ी नहीं हो पा रही,हर देश
में हॉलीवुड अपनी जगह बना चुका है भारत के आलावा। भारत पर अभी हॉलीवुड का जादू नहीं
चल रहा है। यहां पर स्टार वॉर जैसी फिल्में आती हैं। मगर दिलवाले और बाजीराव मस्तानी
उसे टक्कर देती हैं। और जीत जाती हैं। यह इसलिए नहीं कि हमारी फिल्में बहुत कमाल की
है। हमारे देशवासी ही ऐसे ही हैं। वे अपनी सभ्यता-संस्कृति देखने के लिए हिंदी फिल्मों
का चुनाव करते हैं। इसमें ही वे बहुत खुश है। हमारी इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री अपने बलबूते
पर चल रही है। यह सब मजाक नहीं है। हमारी फिल्में समाज का आईना है। हम जैसी भी फिल्में
परोसें,दर्शक अपने लिए कुछ ना कुछ निकाल ही लेते हैं। वे अपनी पसंद की फिल्में देखते
हैं। राजकपूर और बिमल रॉय कमाल की फिल्में बनाते थे। उनमें कहानियां होती थी। भारतीयता
होती थी। उन फिल्मों को बनाने में वक्त लगता था। साल में एक या दो फिल्में आती थीं।
मैं भी भारतीय फिल्में ही बनाना चाहता हूं। मैं हॉलीवुड की फिल्में नहीं बनाना चाहता।
मुझे वहां की सभ्यता ही नहीं पसंद है।
फिल्म का संगीत
अमित त्रिवेदी ने संगीत दिया है। वह काइ पो छे में भी
मेरे साथ थे। वह प्रतिभाशाली हैं। इस फिल्म का संगीत कहानी से ही निकला है। हमने अलग
से नहीं सोचा था। हमने कोई स्टाइल के बारे में नहीं सोचा था। फिल्म तय करती है। हम
तो गुलाम है। फिल्म ही बताती है कि कपड़े और खूबसूरती क्या होनी चाहिए। किरदार और संगीत
कैसे होने चाहिए।
Comments
धन्यवाद