दरअसल : मोबाइल पर मूवी
-अजय ब्रह्मात्मज
स्मार्ट
फोन के आने और प्रचलन से हिंदी सिनेमा का भारी नुकसान हुआ है। अभी लोग फोन में
डाटा कार्ड लगाते हैं। उस डाटा कार्ड में पसंद की फिल्में लोड कर ली जाती हैं।
लाेग आराम से फिल्में देखते हैं। पिछले दिनों दीपिका पादुकोण ने अपनी उड़ान में किसी
सहयात्री को मोबाइल पर ‘बाजीराव मस्तानी’ देखते हुए देखा। उन्होंने आपत्ति भी की। यह आम बात है। मुंबई
के लोकल ट्रेनों और बसों में आए दिन यात्री फिल्म रिलीज के दिन ही अपने मोबाइल पर
फिल्में देखते नजर आते हैं।
मोबाइल फोन के स्क्रीन दो इंच से लेकर आठ इंच तक के
होते हें। साधारण स्मार्ट फोन भी अब ऑडियो-वीडियो के लिए उपयुक्त हो गए हैं।
मैंने तो देखा है कि सामान्य मोबाइलधारी अपने छोटे मोबाइल के छोटे स्क्रीन पर भी
फिल्में देखते रहते हैं। उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। फिल्म पत्रकारिता से
जुड़े मेरे साथी नई फिल्मों के ट्रेलर और लुक पहली बार अपने स्मार्ट फोन पर ही
देखते हैं। बेसिक जानकारी मिल जाने पर घर या दफ्तर पहुंच कर वे तसल्ली से पुन:
देखते हैं। तात्पर्य यह है कि मोबाइल का स्क्रीन अब इस योग्य हो चुका है कि वह
कंटेंट की जानकारी दे दे। और फिर मैंने यह भी देखा है कि कुछ लोग अपनी पसंद की
फिल्में बार-बार देखते हैं।
मेरी बिल्डिंग में मेरी उम्र के एक सिक्युरिटी गार्ड
हैं। प्राय: देर रात में फिल्मी पार्टियों और शो से लौटने पर मैं उन्हें मोबाइल
पर फिल्में देखते पाता हूं। वे रजिस्टर पर मोबाइल फोन को औंधे टिका देते हैं और
फिल्में देखने के साथ आने-जाने वालों पर भी नजर रखते हें। उनकी प्रिय फिल्म है ‘शोले’। एक बार मैंने उनसे पूछा कि
इस दो इंच के स्क्रीन पर वे फिल्म का मजा कैसे लेते हैं ? उन्होंने अपनी तर्जनी उंगली से ललाट के किनारे दो-तीन बार
ठोका और कहा फिल्म यहां चलती रहती है। मोबाइल तो सिर्फ याद दिलाता है कि कोन सा
सीन है। वास्तव में यह रोचक अध्ययन का विषय है कि देखी हुई फिल्में बार-बार
देखते समय एक आम दर्शक के रसास्वादन की क्या प्रक्रिया होती होगी? क्या मोबाइल
पर फिल्में देख रहे सारे लोगों की रुचि और रसास्वादन में कोई फर्क भी है? तकनीकी
रूप से दक्ष लोग बता सकते हैं कि मोबाइल से देखी गई फिल्मों की मानसिक ग्राह्यता
किस स्तर की होती है।
मोबाइल पर फिल्में देखने के अनेक कारण हैं। महानगरों
में समय और पैसों की कमी एक बड़ा कारण है। घर-दफ्तर के आवागमन में फिल्में देखने
से अतिरिक्त समय नहीं खर्च करना पड़ता। बीस से तीस रुपए में नई फिल्में फोन पर
डाउनलोड या अपलोड हो जाती हैं। सुना है कि मूवी की शेयरिंग भी होती है। मोबाइल पर
मूवी देख रहे दर्शकों को इस बात का अहसास भी नहीं रहता कि वे कोई गैरकानूनी काम कर
रहे हैं। वे किसी अपराध में शामिल हैं। सभी के पास अपने तर्क और कारण हैं। गौर
करें तो वे एक स्तर पर वाजिब भी लगने लगते हैं।
हाल ही में आरा निवासी एक दर्शक मिले। संस्कारी और
भोले किस्म के उस दर्शक ने मुझे बताया कि वह बड़े आराम और अधिकार से मोबाइल की
दुकान से अपनी पसंद की फिल्में ले लेता है। उसने तर्क दिया... आप नर्द फिल्मों के
बारे में अपने अखबार में बताते हैं। उनके स्टार और निर्माता-निर्देशक के इंटरव्यू
छापते हैं। आप के अखबार से हमें सारी जानकारियां मिल जाती हैं। रिलीज के दिन वह
फिल्म मेरे शहर में नहीं लगती। अब मैं फिल्म देखने के लिए तो पटना नहीं जाऊंगा न? आप निर्माताओं से पूछिए और मुझे बताइए कि वे मेरे शहर में अपनी
फिल्म का प्रदर्शन क्यों नहीं सुनिश्चित करते? क्या
मुझे पहले दिन या जल्दी से जल्दी फिल्में देखने का हक नहीं है। मेरे जैसे आम
दर्शकों को निर्माता और वितरक क्यों वंचित रखते हैं? भाई,हम ने तो फिल्में देखने का रास्ता निकाल लिया है। अब यह गलत है या सही,यह आप सभी सोचते रहें।
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