दरअसल : सेंसर की दिक्कतें
-अजय
ब्रह्मात्मज
हाल ही में भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण
मंत्रालय ने श्याम बेनेगल के नेतृत्न में एक समिति का गठन किया है,जो सेंट्रल बोर्ड
ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) के कामकाज और नियमों की समीक्षा कर सुझाव देगी। प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी के विजन के अनुसार यह समिति कार्य करेगी। उसके सुझावों के क्रियान्वयन
से उम्मीद रहेगी कि सेंसर को लेकर चल रहे विवादों पर विराम लगेगा। सबसे पहले तो यह
स्पष्ट कर लें कि 1 जून 1983 तक प्रचलित सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर का नाम बदल
कर सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन कर दिया गया था,लेकिन अभी तक सभी इसे सेंसर
बोर्ड ही कहते और लिखते हैं। यहीं से भ्रम पैदा होता है। सीबीएफसी के अध्यक्ष,सदस्य
और अधिकारी सेंसर यानी कट पर ज्यादा जोर देते हैं। वे स्वयं को सेंसर अधिकार ही मानते
हैं। अभी के नियमों के मुताबिक भी सीबीएफसी का काम केवल प्रमाण पत्र देना है। फिल्म
के कंटेंट के मुताबिक यह तय किया जाता है कि उसे यू,यूए,ए या एस प्रमाण पत्र दिया जाए।
ताजा विवाद पिछले साल जनवरी में सीबीएफसी के अध्यक्ष
पहलाज निलानी की नियुक्ति से आरंभ होता है।
केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद स्वाभाविक था कि सरकार और मंत्री के
पसंद का कोई व्यक्ति इस पद के लिए चुना जाए। पिछली सरकारें भी ऐसा करती रही थीं। इस
बार विरोधियों की भवें इसलिए तनीं कि पहलाज निलानी की बतौर फिल्मकार खास पहचान नहीं
है। संक्षेप में माना गया कि वे इस पद के योग्य नहीं हैं। उनकी नियुक्ति के साथ बोर्ड
के कुछ पुराने सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। उनकी जगह नए सदस्यों की नियुक्ति हुई।
ऐसा लगा कि फिर से सब कुछ सामान्य हो जाएगा,लेकिन वर्त्तमान अध्यक्ष की मनमानी और
नियमों की भ्रमित व्याख्या से गड़बडि़यां आरंभ हुईं। अभी ताजा स्थिति यह है कि बोर्ड
के सदस्य फिल्में देखने नहीं जाते। अध्यक्ष और अधिकारी के सहायक भी फिल्मों के
प्रमाण पत्र देने का काम कर रहे हैं।
नए अध्यक्ष ने मौजूदा नियमों की ही नई व्याख्या
की और सबसे पहले ऐसे शब्दों की सूची जारी की,जिनका इस्तेमाल फिल्मों में नहीं किया
जा सकता। अपशब्द और गाली-गलौज के इन शब्दों पर गहरी आपत्ति के साथ सख्ती बरती गई।
अनेक फिल्मकारों को अपनी फिल्मों से ऐसे शब्द हटाने या मूक करने पड़े। चुंबन और
हिंसा के दृश्यों की लंबाई और अवधि पर अनावश्यक बातें हुईं। फिल्मकारों ने अपनी
जल्दीबाजी में ऐसे बेजा निर्देशों को मान भी लिया। सीबीएफसी बोर्ड के एक सदस्य के
मुताबिक अगर कोई फिल्मकार सीबीएफसी के सुझावों को कोर्ट में चुनौती दे दे तो बोर्ड
के माफी मांगने तक की नौबत आ सकती है। शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन का उदाहरण
लें। इस फिल्म के दृश्यों और संवादों पर आपत्तियां हुई थीं तो मामला ट्रिब्यूनल
तक गया था और आखिरकार शेखर कपूर अपनी फिल्म रिलीज कर सके थे। सवाल उठता है कि अगर
कोर्ट ने सालों पहले इन गालियों और दृश्यों को दिखाए जाने की अनुमति दे दी थी तो
21 वीं सदी में अधिक उदारता दिखाने के बजाए बोर्ड संकीर्ण रवैया क्यों अपना रहा है
?
गौर करें तो समस्या
मौजूद नियमों में नहीं है। समस्या उसकी व्याख्या में है। वर्त्तमान अध्यक्ष उन
नियमों की संकीर्ण व्याख्या कर रहे हैं और
मार्गदर्शक निर्देशों का सही पालन नहीं कर रहे हें। उन मार्गदर्शक निर्देशों के तहत
ही 2014 से पहले फिल्में रिलीज होती रही हैं। अभी अचानक दिक्कतें पैदा होने लगी हैं।
श्याम बेनेगल के नेतृत्व में आई समिति निश्चित ही प्रासंगिक सुझाव देगी। श्याम बेनेगल
तो लंबे अर्से से सेंसरशिप के खिलाफ बोलते रहे हैं। वे सेल्फ सेंसरशिप की वकालत भी
करते रहे हैं। यह देखना रोचक होगा कि वे प्रधानमंत्री के विजन के तहत क्या सुझाव देते
हैं और उन्हें कितनी जल्दी लागू किया जाता है। बता दें कि बीच मेकं एक मुद्गल समिति
भी बनी थी। उसके सुझाव अभी तक ठंडे बस्ते में पड़े हैं। देखा जाए तो देश को फिल्म प्रमाणन के ऐसे नियमों
और अधिनियमों की जरूरत है,जिनसे फिल्मकारों को क्रिएटिव स्वतंत्रता मिले। वे अपनी
कल्पनाओं को उड़ान दे सकें और इंटरनेशनल स्तर पर बन रही फिल्मों की बराबरी कर सकें।
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