दरअसल : छोटी फिल्मों की मुश्किलें
-अजय ब्रह्मात्मज
2015 बीतने
को है। इस साल रिलीज फिल्मों की संख्या पिछले सालों से कम रही। 110 से भी कम
फिल्में रिलीज हुईं। हिंदी फिल्मों के लिए यह चिंताजनक स्थिति है। संख्या कम
होना इस बात का द्योतक है कि हिंदी फिल्मों के निर्माण में स्थापित और नए
निर्माताओं की रुचि घटी है। दरअसल,फिल्म निर्माण,प्रचार और उसके प्रदर्शन-वितरण
की जटिलताओं के बढ़ने से इंडस्ट्री में पहले की तरह स्वतंत्र निर्माता नहीं आ
रहे हैं। स्थापित और अनुभवी निर्माता सचेत हो गए हैं। पूरी नाप-तौल के बाद ही वे
फिल्मों में निवेश कर रहे हैं। फिल्म निर्माण के साथ उसके प्रचार पर हो रहे
बेतहाशा अनियोजित खर्च ने सभी को परेशान कर रखा है। वितरण में पारदर्शिता नहीं है।
सभी फिल्मों को प्रदर्शन के समान अवसर नहीं मिलते।
पिछले हफ्ते
रिलीज हुई ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘दिलवाले’ के पी एंड ए ( प्रमोशन और ऐड) पर नजर डालें और उनके बरक्स बाकी छोटी फिल्मों को रखें तो
स्पष्ट हो जाएगा कि मझोली और छोटी फिल्मों की दिक्कतें कितनी बढ़ गई हैं।
दोनों फिलमें मंहगी थीं। संजय लीला भंसाली आनी क्रिएटिव व्यस्तताओं की वजह से
थोड़े कम सक्रिय रहे,लेकिन उनके मुख्य कलाकारों रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण ने
यह जिम्मेदार निभाई। शाह रुख खान ने फिल्म के प्रमोशन में कोई कसर नहीं रहने दी।
उन्होंने फिल्म की रिलीज के दो दिन पहले तक दिल्ली में प्रेस कांफेंस की। इस
लिहाज से फिल्म की लागत 10 करोड़ से नीचे हो तो भी प्रचार में कम से कम 5-6 करोड़
का खर्च आता है। स्वतंत्र निर्माता को 3-5 करोड़ की फिल्मों के लिए भी कमोबेश
इतना ही खर्च करना पड़ता है। अगर उनकी फिल्मों में नए या कम लोकप्रिय चेहरे हुए
तो परेशानी और बढ़ जाती है। सामान्य खर्च और खर्च के मद बढ़ जाते हैं। लोकप्रिय
सितारों की बड़ी फिल्मों को मीडिया कवरेज और अन्य सहूलियतें मुफ्त में मिल जाती
हैं,उनके लिए भी छोटी फिल्मों के निर्माताओं को एड़ी घिसनी पड़ती है।
छोटी फिल्मों
के अपरिचित,नए और कम लोकप्रिय कलाकारों में मीडिया की रुचि नहीं रहती। उनकी भी
मजबूरी है कि अखबार और चैनल चलाने के लिए उन्हें लोकक्रिय चेहरों को तरजीह देनी
पड़ती है। प्रचार करते समय भी यह खयाल और अनुमान रहता है कि किसी फिल्म और उसके
कलाकारों की कैसी और कितनी स्वीकृति रहेगी। उसी अनुपात में बजट और योजनाएं तैयार
की जाती हैं। निर्माता बताते हैं कि उन्हें अपनी छोटी फिल्मों के लिए चारगुनी
मेहनत करनी पड़ती है। फिर भी सही परिणाम नजर नहीं आते। थिएटर और मल्टीप्लेक्श
के मैनेजर गंदी भूमिकाएं निभाते हैं। वे छोटी फिल्मों के स्टैंडी और पोस्टर तक
ठीक से नहीं लगात। अनेक बार तो दर्शकों को नई फिल्मों के बारे में पता भी नहीं
चलता और वह फिल्म सिनेमाघरों से उतर जाती है। एनके पास ऐसी सुविधाएं नहीं होतीं
कि वे थिएटरों पर निगरानी रख सकें। बड़े निर्माताओं को भी अपनी छोटी फिल्मों के
लिए ऐसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है। धीरे’धीरे मल्टीप्लेक्स चेन
फिल्मों के भविष्य के साथ उसकी कमाई भी निश्चित करने लगे हैं।
समय आ गया
है कि फिल्म इंडस्ट्री,थिएटर मालिक और सरकारी अधिकारी छोटी और मझोली फिल्मों
की रिलीज की सुविचारित प्लानिंग करें। यह सुनिश्चित हो कि छोटी फिल्मों को भी
समुचित रिलीज के साथ दर्शकों की सुविधा के अनुकूल शो टाइमिंग मिले। अभी तो बड़ी
फिल्मों के पाटन में वे साबूत ही नहीं रह पातीं। कुछ निर्माता-निर्देशक फिल्म
फेस्टिवल का बाईपास अपना लेते हैं। विदेशी फेस्टिवल में दिखाए जाने से उन फिल्मों
की चर्चा होने से भारतीय दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ जाती है। उन्हें इसका लाभ भी
मिल जाता है। सारे निर्माता-निर्देशक जानकारी के अभाव में यह बाईपास नहीं अपना
पाते। सीधी रिलीज की भीड़ में उनकी फिल्में धक्के खाती हैं और अनदेखी रह जाती
हैं। ढंग से रिलीज नहीं होने पर उन्हें सैटेलाइट प्रसारण की भी सुविधा नहीं मिल
पाती।
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