दरअसल : फिल्मों का सालाना बाजार
-अजय ब्रह्मात्मज
गोवा में हर साल इंटरनेशनल फिल्म फस्टिवल
आयोजित होता है। पिछले आठ सालों से इसी दौरान फिल्म बाजार भी आयोजित हो रहा है।
एनएफडीसी की देखरेख में इसका आयोजन होता है। एनएफडीसी की चेयरपर्सन नीना लाठ गुप्ता(पढ़ें
इंटरव्यू) ने अपनी टीम के सहयोग से इसे खास मुकाम पर पहुंचाया है। यहां अब
देश-विदेश के वितरक,निर्माता और फिल्मकार जमा होने लगे हैं। विभिन्न श्रेणियों
में आई फिल्मों को सभी देखते और समझते हैं। उनमें रुचि दिखाते हैं। पसंद आने पर
खरीदते हैं,निवेश करते हैं और संभावित फिल्मकारों को अभिव्यक्ति का मंच देते
हैं।
फिल्म बाजार में देश के फिलमकार अपनी योजनाओं के लिए संभावित
निर्माता से लकर सहयोगी तक पा सकते हें। विभिन्न अवस्था में पहुंची फिल्मों को
लेकर आ सकते हैं। यहां वे अपनी फिल्मों के बाजार और खरीददार को टटोल सकते हैं।
फिल्म के विचार से लेकर तैयार फिल्म तक के फिल्मकार यहां मौजूद थे। कोई अभी सोच
रहा है तो किसी को फिल्म पूरी करने के लिए कुछ फंड चाहिए। किसी को फिल्म बेचनी
है तो कोई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की संभावनाएं तलाश कर रहा है। इस फिल्मी
मेले में हर तरह की इच्छाएं माहौल में तैरती मिलती हैं। ऐसा लगता है कि नए और
युवा फिल्मकारों की मुश्किलें कम करने के लिए ही गोवा में यह चार दिनों का आयोजन
होता है।
यहां अग्रज और अनुभवी फिल्मकारों की मौजूदगी और उनकी अनौपचारिक
बोतें नए फिल्मकारों के लिए प्रेरणादायक होती हैं। एक छोटी सी सलाह से दिशा मिल
सकती है। इस बार श्याम बेनेगल,रमेश सिप्पी,प्रकाश झा,अनुराग कश्यप,राकेश
ओमप्रकाश मेहरा,राजकुमार हिरानी,कबीर खान,अनुभव सिन्हा और संजय सूरी वहां मौजूद
थे। उन्होंने नए फिल्मकारों को दीक्षित किया। इनमें से कुछ ने बाजार के दौरान
आयोजित नॉलेज सीरिज में शिरकत की। अपने विचार रखने के साथ ही उन्होंने मौजूद
श्रोताओं की जिज्ञासाओं के जवाब भी दिए। इसी सीरिज में एआर रहमान ने भी अपने अनुभव
शेयर किए।
भारत में सिनेमा का बाजार बहुत बड़ा है। कमर्शियल सिनेमा की अपनी
खूबियां और पाबंदियां हैं। मुख्यधारा में नए फिल्मकारों को आसयानी से प्रवेश
नहीं मिलता। ऐसे फिल्मकारों के लिए फिल्म बाजार मुफीद जगह है। गौर करें तो
एनएफडीसी यह काम दशकों से करता आ रहा है। किसी समय पैरेलल सिनेमा की अधिकांश फिल्में
एनएफडी सहयोग से बनी थीं। बीच के कुछ सालों में ठहराव आ गया था। नीना लाठ गुप्ता
के नेतृत्व में एनएफडीसी ने अपने तौर-तरीके बदले और नए समय में बड़ मददगार के तौर
पर उभरा। पिछले कुछ सालों की चर्चित और पुरस्कृत फिल्में एनएफडीसी के सहयोग से
फिल्म बाजार के जरिए ही आई हैं।
इस साल फंडिंग,वितरण और बिक्री,फिल्म फेस्टिवल,पहली फिल्म,वर्ल्ड
प्रीमियर और समाप्ति की तलाश में आई सैकड़ो फिल्मों को बाजार में आए प्रतिनिधियों
ने देखा। शंकर रमण की ‘गुड़गांव’,अमित राय की ‘आई पैड’,मीरांशा नाइक की ‘जुजे’ विशेष चर्चा में रहीं। अमित राय
ने एक बातचीत में कहा कि यहां मुझे महत्वपूर्ण सुझाव मिले। उनकी फिल्म के विषय
और अप्रोच की सभी ने तारीफ की। फिल्म बाजार में आई फिल्में मुख्यधारा से अलग
दृष्टिकोण और उद्देश्य की थीं। नए फिलमकार अपनी प्रसतुति में साहसी और नवीन होते
हैं। फिल्म इंडस्ट्री चलती है मुख्यधारा की मसाला फिल्मों से ,लेकिन उसे गहराई
और विस्तार नए फिल्मकार ही देते हैं। वे नई लताओं की तरह होते हैं,जिन्हें शुरु
में मजबूत सहारे की जरूरत होती है।
फिल्म बाजार में फिलहाल महानगरों से ही युवा फिल्मकार आ रहे हैं।
दिलली और मुंबई के अलावा दूसरे इलाकों का प्रतिनिधित्न नगण्य सा ही है। फिल्म
बाजार में प्रविष्िट की बड़ी बाधा अंग्रेजी भाषा है। देश की प्रतिभाएं जरुरी नहीं
कि अंग्रेजी में निष्णात हों। अगर फिल्म बाजार हिंदी समेत सभी भारतीय भाषओं में
स्क्रिप्ट और नई फिल्में स्वीकार करे तो इस आयोजन का प्रभाव और उपयोग बढ़
जाएगा। हालांकि फिल्में तो किसी भी भी भाषा में आ सकती हैं,लेकिन स्क्रिप्ट के
स्तर पर प्रविष्टि के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता अनेक प्रतिभाओं को अवसरों से
वंचित कर देती है।
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