कोई फिल्म नहीं है इम्तियाज़ की तमाशा -शोभा शमी

शोभा शमी भोपाल की रहने वाली हैं. इंदौर दिल्ली से पढ़ाई पूरी करने के बाद फिलहाल पेशे से पत्रकार हैं. दैनिक भास्कर, अमर उजाला में काम करने के बाद फिलहाल का ठिकाना नेटवर्क 18 है. कई रुचियों में एक सिनेमा है. बातूनी और घुमक्कड़ . लिखना और लाइफ, फिलॉसफी, प्रेम जैसे विषयों पर लम्बी बातचीत करना पसन्द है.

चाहे फिल्म की कहानी हो या लम्बाई, सिनेमेटोग्राफी हो या एडिटिंग.  बहुत ही आसानी से कहा जा सकता है कि ये भी कोई फिल्म है? और बात भी तो यही है कि 'तमाशा' असल में फिल्म है ही नहीं! इम्तियाज़ कि ये फिल्म  दरअसल हम सब के भीतर का 'तमाशा' है. 

ये एक किरदार है. एक जूझ है. एक पूरी फिलॉसफी. 

और इस तमाशे को सिर्फ सिनेमाहॉल में बैठकर नहीं देखा जा सकता. उसके लिए उस जगह जाना होगा जो दिल और दिमाग के बीच कि एक जगह है. जिसके लिए पहले खुद का एक दुनियादार नकाब उतारना होगा और स्वीकार करना होगा कि फिल्म उसी तरह के अँधेरे में है जैसी कई बार या लगातार हमारी ज़िन्दगी. 

तमाशा एक दमदार फिल्म है. और वो खास है क्योंकि वो एक ऐसे किरदार के बारे में बात करती है जो हम सब के भीतर मौजूद है. या शायद ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि इस समय की युवा पीढ़ी के करीब का एक किरदार. ज्यादातर फिल्मों में होता है कि हम फिल्म में हीरो की जगह खुद की कल्पना करने लगते हैं लेकिन पर्दे पर खुद की तरह के पागलपन देखना एक अलग अनुभव है. 

पागलपन यूं कि अपने आसापास की भीड़ से दूर कहीं चले जाना. अनजान दोस्त बना लेना. कभी न मिलने का वादा करना. नाचना गाना. पहाड़ से बातें करना. नदी में मुंह डालकर पानी पी लेना. फिर गुम जाना
हम सबके मन में सैकड़ों बार ऐसा कुछ करने के ख्याल आते हैं या कुछ जी भी लेते हैं. 

फिर एक दूसरी तरफ की जिंदगी जिसमें नौकरी है. रोज का अलार्म है. रोबोटिक अंदाज की गुड मॉर्निंग है. बॉस की हां-ना है. मीटिंग्स हैं. अकेले खाना है. और रात को फिर से अलार्म लगा कर सो जाना है. 

लेकिन एक तीसरी चीज और है.. वो है हमारी इच्छाओं के 'पागलपन' और दुनिया की अंधी रेस के बीच हम खुद. मतलब जो हम कर रहे हैं और जो करना चाहते हैं उसके बीच. अब ये कहना बहुत अति की बात होगी कि जिंदगी में वही करना चाहिए जिसका मन हो, लेकिन हकीकत कुछ और ही है न. अपने आसपास के लोगों को रोकिए और देखिए उन्हें एक बार.. हर एक का 'तमाशा' बहुत एक सा ही मिलेगा. 

तो दरअसल फिल्म न उस मस्तीखोरी और पागलपन की है न उस दुनियादारी की. फिल्म उसके बीच कहीं ठहरती है. उस पल के आसपास जहां खुद को पलटकर देखते हैं. जहां दबी इच्छाएं हैं. बचपन है. खुद को आजाद करने की कोशिश है. फ्रस्टेशन है. दुनिया में फिट बैठने की कोशिश की थकान है. जहां सडक किनारे चुप बैठना है और अकेले में चीखना भी है. अपने प्रेम के पास पहुंचना भी है और वहां से तेजी से भाग आना भी. अपने शहर जाना है लेकिन घर से बाहर चले जाना है. आधी रात को सड़क पर खाली चलना है और रणबीर का जोर से चिल्लाना है.... ताराsssssss.  

फिर किसी बहाने से तारा से पास लौट जाना भी है. 

तो बात दरअसल ये है कि फिल्म बहुत डार्क है. और हो सकता है आपको बोर लगने लगे, लेकिन यही खास है और यही इम्तियाज की स्टाइल है-ब्यूटी है. सोचा न था में अरेंज मैरिज से मना करने के बाद भाग के शादी करने वाले अभय देओल या आयशा टाकिया हों, रॉकस्टार का जिद्दी रणबीर हो, लव आजकल में 'ये दूरियां' गाता सैफ हो या 'जब वी मेट' की करीना हो. 'मैं अपनी फेवरेट हूं' एक ऐसी किरदार का डायलॉग है जो इम्तियाज की दुनिया में बसता या उभरता है. और ठीक उलट एक किरदार शाहिद है जो अपना वॉलेट-फोन सब छोड़ कर एक कोट पहन कर किसी भी ट्रेन में चल पड़ता है. ये अनसर्टेनिटी या कहो कि इस तरह का तमाशआ ही उनके किरदारों और फिल्मों की खासियत है. 

फिल्म में रणबीर के किरदार और उनकी एक्टिंग ने उन्हें एक नया विस्तार दिया है. दीपिका पादुकोण के अलावा पियूष मिश्रा की बेहतरीन एक्टिंग है. अगर फिल्म के गाने पहले नहीं सुने हैं तो शायद फिल्म देखने बाद आकर आप यू ट्यूब पर खोज कर 'मटरगश्ती', 'अगर तुम साथ हो', 'हीर' को सुनें.

लेकिन अगर आप कुछ सोच कर फिल्म देखने जा रहे हैं, या उम्मीद कर रहे हैं कि किसे मेले की तरह का 'तमाशा' देखने को मिलेगा तो हो सकता है आप चौंक जाएं. आप पहुंचेंगे तो आपको उसी तरह का तमाशा देखने को मिलेगा जो आपके खुद के भीतर भी मौजूद है.

Comments

मनरंग said…
सोभा , इम्तियाज़ ने अपनी सभी फिल्मों में , प्यार के अनूठे रंग को दिखा के ये बता दिया कि उनके पास प्यार के अनेकों रंग हैं ...
Ramesh M said…
wow you write so well
कमल said…
Chaliye ab nahi dekhenge
एक बार हमारे ब्लॉग पुरानीबस्ती पर भी आकर हमें कृतार्थ करें _/\_
http://puraneebastee.blogspot.in/2015/03/pedo-ki-jaat.html
Avinash Dwivedi said…
This comment has been removed by the author.
Avinash Dwivedi said…
शोभा अच्छा लिखा है आपने।
फ़िल्म को टटोलने का अच्छा प्रयास।
वर्तनी में कुछ अशुद्धियाँ रह गयीं हैं। उन्हें सुधारिए और बहुत के साथ अति का प्रयोग गलत है।

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