तमाशा : डॉ. दुष्यंत
'तमाशा' पर प्रतिक्रियाएं जारी हैं। इस बार डा.. दुष्यंत की प्रतिक्रिया। उन्होंने यह फिल्म मंगलवार को देखा। वे इन दिनों ज्यादातर मुंबई में रहते हैं और फिल्म्ा बिरादरी के संगत में पाए जाते हैं। उनके बारे में जानने के लिए उनके ब्लॉग पर जाया जा सकता है।
भारत-पाक सीमा पर बसे कस्बे केसरीसिंहपुर
में 13 मई 1977 को जन्मे दुष्यंत ने इतिहास में उपलब्ध सब डिग्रियां (यानी
बीए ऑनर्स, एमए, नेट, जेआरएफ, पीएच.डी.) हासिल कीं, कॉलेज में पढाया।
एफटीआईआई, पुणे में कुछ समय सिनेमा की
तमीज सीखने की कोशिश करने वाले दुष्यंत पत्रकारिता से जुडे हैं और अब तक
जयपुर, दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में रहे हैं।
उनकी पहली ही किताब (2005) को स्टेट
अकादमी अवॉर्ड मिला जबकि दूसरे कविता संग्रह ‘प्रेम का अन्य’ को 2012 का
रामकुमार ओझा अवॉर्ड दिया गया।
उनकी कविताओं का अंग्रेजी सहित कई अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।
उन्होंने कहानियां लिखीं तो उन्हें हिंदी की श्रेष्ठ पत्र -पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया।
उन्होंने दर्जन भर यूरोपीय और लेटिन
अमेरिकन कवियों का हिंदी तथा रूसी कवि येवेग्नी येव्तुशेंको की कविताओं का
राजस्थानी में अनुवाद किया हैं।
‘स्त्रियां :पर्दे से प्रजातंत्र तक’ (राजकमल प्रकाशन) को हिंदी नॉनफिक्शन में 2012 में आई किताबों में बहुत महत्वपूर्ण माना गया है।
कहानियों की किताब जुलाई की एक रात नाम से पेंगुइन से 2013 में आई है।
तमाशा
डॉ. दुष्यंत
मुम्बई में प्राय: मंगलवार को सिनेमा देखता हूँ, क्योंकि सस्ता होता है।
जयपुर में था तो पहले दिन पहला शो देखता था। तो कल 'तमाशा' देखली। 'तमाशा'
मेरे लिए आदम और हव्वा के बीच की आदिम रागात्मकता का नूतन नवीन पाठ है।
फ़िल्म अपने विस्तृत कैनवस में स्त्री पुरुष प्रेम के विपुल आयामों,
जटिलताओं और अंतर्विरोधों को समझने, खोलने की कोशिश करती है।
दो अजनबी मिले, पारस्परिक वचन दिया कि अपने बारे में नहीं
बताएंगे कि कौन हैं, कहां से हैं, क्या करते हैं। यही बिंदु मुझे प्रतीत
हुआ कि स्त्री पुरुष प्रेम की देशीय विभाजनरेखा को इम्तियाज ने लांघ कर इसे
सच में ग्लोबल बना दिया, यूनिवर्सल बना दिया। दो युवा स्त्री पुरुषों के
बीच की क्रमिक रासायनिक निकटता को बिना टैबुओं के, दैहिक आजादियों और
सम्मान के साथ ( न्यूनतम फिजिकेलिटी के साथ) रूपायित करने की चेष्टा का
विचार बहुत सम्भव है कि क्रांतिकारी रूप से नया ना हो, पर उसे दृश्य माध्यम
में जीवन्त करना बड़ी चुनौती है, खासकर तब, जब वे युवा उस पीढ़ी के हों
जिनके लिए सब कुछ सहज उपलब्ध है, उस पीढ़ी की चुनौती प्रेम को प्लेटोनिक या
देहेत्तर रूप में कल्पना तक करना हो, कुछ पल जी लेना तो युद्ध जैसा हो, और
उससे अधिक तो यक़ीनन पहाड़ तोड़ना।
बहरहाल, पिकनिक की तरह भारत से दूर दो अजनबी पर शक्ल और भाषा
से भारतीय लड़का लड़की मिले, टर्म्स एन्ड कन्डीशन बनीं, दिन गुजरे, रातें भी,
पर वे उस भाव में नहीं, जिनकी उत्सुक भारतीय सिनेमाई दर्शक अपेक्षा करता
है। ऐसे स्त्री पुरुष का साथ -संग आग और पानी का नहीं, आग और कपास का होता
है। आग की लपट और उसका चराग बनना या विध्वंसक रूप अख्तियार करना यही
रोमांचक होता है, यही दुनिया की हर क्लासिक प्रेमकथा करती है -अग्निकुंड
में राख होना या विरह की आग बनके सदियों जलना। यहां यह विचार भी करना चाहिए
कि दुनिया की प्राय: हर महान प्रेमकथा ट्रेजिक अंत या बिछोह की कथा है और
हिंदी सिनेमा प्राय: प्रेम के सुखान्त वाला, दर्शक भी उसी उम्मीद में
प्रतीत होता है तो इन दो आधार वाक्यों के आधार पर अरस्तु प्रणीत
तर्कशास्त्र की विधियों से निष्कर्ष निकाले तो हिंदी सिनेमाई सुखान्त
प्रेमकथाओं में प्रेम ही नहीं है या वे महान नहीं है, महानता के बोझ से
सर्वथा मुक्त हैं।
तमाशा की ही बात करें, (हालांकि फ़िल्म देखते हुए फ़िल्म हमें
बार बाहर ले जाकर पटकती है, यही इसकी ताक़त है) नायक नायिका के बीच प्रथम
सघन दैहिक मिलन केवल लिपलॉक के रूप में तब होता है जब अजनबी के रूप में ही
कोर्सिका में कुछ दिन गुजारकर नायिका एक सुबह नायक को सोता हुआ छोड़कर जाते
हुए पनीली आँखों से बिना मिले घर से सड़क पर आती है और फिर लौटकर नायक को
जगाकर कहती है कि आज के बाद हम कभी नहीं मिलेंगे और दो जोड़ी होठ उस अजनबीपन
को देह की नदी के किनारे नया संस्कार देते हैं।
संवादों के बीच के अंतराल फ़िल्म की संवेदना को प्रकट करते
हैं, यह अंग्रेजी के मुहावरे 'रीडिंग बीटविन द लाइन्स' को बदलकर संवादों के
मध्य की चुप्पियों पर कान लगाके सुनना है, जैसे बचपन में रेल की पटरियों
पर कान लगाकर रेल की आहट को महसूस किया जाता है। कहानी कहने के नए
क्षितिजों को अनावृत्त करती फ़िल्म बार बार हिलाती है हमारे विश्वासों को,
अपेक्षाओं को और हमारे मूल्यों को पुनर्परिभाषित करने की मांग करती है।
किसी इंडिविजुअल की प्रशंसा या जिक्र मुझे अपनी पूर्णता में
इस फ़िल्म को (कम से कम इस फ़िल्म को) देखने -समझने और उसके लिए कुछ कहने से
बाधित करेगा, इसलिए मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, निर्देशक का भी नहीं।
Comments
धन्यवाद