फिल्म समीक्षा : तमाशा
-अजय ब्रह्मात्मज
प्रेम और जिंदगी की नई तकरीर
इम्तियाज
अली ने रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण जैसे दो समर्थ कलाकारों के सहारे प्रेम और
अस्मिता के मूर्त-अमूर्त भाव को अभिव्यक्ति दी है। सीधी-सपाट कहानी और फिल्मों
के इस दौर में उन्होंने जोखिम भरा काम किया है। उन्होंने दो पॉपुलर कलाकारों के
जरिए एक अपारंपरिक पटकथा और असामान्य चरित्रों को पेश किया है। हिंदी फिल्मों का
आम दर्शक ऐसी फिल्मों में असहज हो जाता है। फिल्म देखने के सालों के मनोरंजक
अनुभव और रसास्वादन की एकरसता में जब भी फेरबदल होती है तो दर्शक विचलित होते
हैं। जिंदगी रुटीन पर चलती रहे और रुटीन फिल्मों से रुटीन मनोरंजन मिलता रहे। आम
दर्शक यही चाहते हैं। इम्तियाज अली इस बार अपनी लकीर बदल दी है। उन्होंने चेहरे
पर नकाब चढ़ाए अदृश्य मंजिलों की ओर भागते नौजवानों को लंघी मार दी है। उन्हें
यह सोचने पर विवश किया है कि क्यों हम सभी खुद पर गिरह लगा कर स्वयं को भूल बैठे
हैं?
वेद और तारा
वर्तमान पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। परिवार और समाज ने उन्हें एक राह दिखाई है। उस
राह पर चलने में ही उनकी कामयाबी मानी जाती है1 जिंदगी का यह ढर्रा चाहता है कि
सभी एक तरह से रहें और जिएं। शिमला में पैदा और बड़ा हुआ वेद का दिल किस्सों-कहानियों
में लगता है। वह बेखुदी में बेपरवाह जीना चाहता है। इसी तलाश में भटकता हुआ वह
फ्रांस के कोर्सिका पहुंच गया है। वहां उसकी मुलाकात तारा से होती है। तारा और वेद
संयोग से करीब आते हैं,लेकिन वादा करते हैं कि वे एक’दूसरे के बारे में न कुछ पूछेंगे और न बताएंगे। वे झूठ ही
बोलेंगे और कोशिश करेंगे कि जिंदगी में फिर कभी नहीं मिलें। वेद की बेफिक्री तारा
को भा जाती है। उसकी जिंदगी में बदलाव आता है। उन दोनों के बीच स्पार्क होता है,लेकिन
दोनों ही उसे प्यार का नाम नहीं देते। जिंदगी के सफर में वे अपने रास्तों पर
निकल जाते हैं। तारा मोहब्बत की कशिश के साथ लौटती है और वेद जिंदगी की जंग में
शामिल हो जाता है। एक अंतराल के बाद फिर से दोनों की मुलाकात होती है। तारा पाती
और महसूस करती है कि बेफिक्र वेद जिंदगी की बेचारगी को स्वीकार कर मशीन बन चुका
है। वह इस वेद को स्वीकार नहीं पाती। वेद के प्रति अपने कोमल अहसासों को भी वह
दबा जाती है। तारा की यह अस्वीकृति वेद को अपने प्रति जागरूक करती है। वह अंदर
झांकता है। वह भी महसूस करता है कि प्रोडक्ट मैनेजर बन कर वह दुनिया की
खरीद-फरोख्त की होड़ में शामिल हो चुका है,क्योंकि अभी कंट्री और कंपनी में फर्क
करना मुश्किल हों गया है। कंट्री कंपनी बन चुकी हैं और कंपनी कंट्री।
इम्तियाज की
‘तमाशा’ बेमर्जी का काम कर जल्दी
से कामयाब और अमीर होने की फिलासफी के खिलाफ खड़ी होती है। रोजमर्रा की रुटीन
जिंदगी में बंध कर हम बहुत कुछ खो रहे हैं। तारा और वेद की जिंदगी इस बंधन और होड़
से अलग नहीं है। उन्हें इस तरह से ढाला जाता है कि वे खुद की ख्वाहिशों से ही
बेखबर हो जाते हैं। इम्तियाज अली के किरदार उनकी पहले की फिल्मों की तरह ही सफर
करते हैं और ठिकाने बदलते हैं। इस यात्रा में मिलते-बिछुड़ते और फिर से मिलते हुए
उनकी कहानी पूरी होती है। उनके किरदारों में बदलाव आया है,लेकिन शैली और शिल्प
में इम्तियाज अधिक भिन्नता नहीं लाते। इस बार कथ्य की जरूरत के अनुरास थ्रिएटर
और रंगमंचीय प्रदर्शन के तत्व उन्होंने फिल्म में शामिल किए हैं। कलाकरों के
अंतस और आत्मसंघर्ष को व्यक्त करने के लिए उन्हें इसकी जरूरत पड़ी है। संभावना
थी कि वे संवादों में दार्शनिक हो जाते,लेकिन उन्होंने आमफहम भाषा और संवादों में
गहरी और परिवर्तनकारी बातें कही हैं।
यह फिल्म
रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण के परफारमेंस पर निर्भर करती है। उन दोनों ने कतई
निराश नहीं किया है। वे स्क्रिप्ट की मांग के मुताबिक आने दायरे से बाहर निकले
हैं और पूरी मेहनत से वेद और तारा को पर्दे पर जीवंत किया है। यह नियमित फिल्म
नहीं है,इसलिए उनके अभिनय में अनियमितता आई है। छोटी सी भूमिका में आए इश्तयाक
खान याद रह जाते हैं। उनकी मौजूदगी वेद को खोलती और विस्तार देती है। ‘तमाशा’ हिंदी फिल्मों की रेगुलर और औसत प्रेमकहानी नहीं है। इस
प्रेमकहानी में चरित्रों का उद्बोधन और उद्घाटन है। वेद और तारा एक-दूसरे की मदद
से खुद के करीब आते हैं।
फिल्म
का गीत-संगीत असरकारी है। इरशाद ने अपने गीतों के जरिए वेद और तारा के मनोभावों को
सटीक अभिव्यक्ति दी है। एआर रहमान ने पार्श्व संगीत और संगीत में किरदारों की
उथल-पुथल को सांगीतिक आधार दिया है। फिलम को बारीकी से देखें तो पता चलेगा कि कैसे
पार्श्व संगीत कलाकारों परफारमेंस का प्रभाव बढ़ा देता है। ‘तमाशा’ के गीतों में आए शब्द भाव
और अर्थ की गहराई से संपन्न हैं। इरशाद की खूबी को एआर रहमान के संगीत ने खास बना
दिया है।
अवधि-151 मिनट
स्टार-साढ़े तीन स्टार
Comments