फिल्म समीक्षा : तलवार
-अजय ब्रह्मात्मज
नोएडा के
मशहूर डबल मर्डर केस पर आधारित एक फिल्म ‘रहस्य’ पहले आ चुकी है। दूसरी फिल्म का लेखन विशाल भारद्वाज ने
किया है और इसका निर्देशन मेघना गुलजार ने किया है। पिछली फिल्म में हत्या के एक
ही पक्ष का चित्रण था। विशाल और मेघना ने सभी संभावित कोणों से दोनों हत्याओं का
देखने और समझने की कोशिश की है। फिल्म का उद्देश्य हत्या के रहस्य को सुलझाना
नहीं है। लेखक-निर्देशक ने बहुचर्चित हत्याकांड को संवेदनशील तरीके से पेश किया
है। यह हत्याकांड मीडिया,चांच प्रक्रिया और न्याय प्रणाली की खामियों से ऐसी उलझ
चुकी है कि एक कोण सही लगता है,लेकिन जैसे ही दूसरा कोण सामने आता है वह सही लगने
लगता है।
फिल्म
सच्चीर घटनाओं का हूबहू चित्रण नहीं है। घटनाएं सच्ची हैं,लेखक और निर्देशक ने
उसे अपने ढंग से गढ़ा है। उन्होंने पूरी कोशिश की है कि वे मल घटनाओं के आसपास
रहें। बस,हर बार परिप्रेक्ष्य बदल जाता है। मूल घटनाओं से जुड़ा रहस्य फिल्म
में बना रहता है। निर्देशक ने उन्हें मूल परिवेश के करीब रखा है। परिवेश,भाषा और
मनोदशा में फिल्मी नाटकीयता नहीं जोड़ी गई है। किरदारों को भ यथासंभव नैचुरल लुक
और फील दिया गया है। विशाल भारद्वाज की कहानियां मनुष्य के अंतस के द्वंद्व पे
केंद्रित होती हैं। अगर इसी फिल्म को विशाल निर्देशित करते तो अवसाद का रंग थोड़ा
और गहरा होता। उनके कथा निर्वाह और फिल्म
निरूपण में उदासी रहती है। मेघना के फिल्मांकन और चरित्रों के निर्वाह में
संवेदनात्मक तरलता है।
फिल्म
में आरुषि का नाम बदल कर श्रुति कर दिया गया है। तलवार परिवार टंडन परिवार हो गया
है। फिल्म का शीर्षक ‘तलवार’ है,जिसे बाद में न्याय की मूर्ति के एक हाथ की तलवार से
जोड़ दिया गया था। फिर भी स्पष्ट था कि फिल्म आरुषि तलवार की हत्या पर आधारित
है। हालांकि मेघना गुलजार ने न तो स्वीकार किया और न ही इंकार किया। यह एक किस्म
की मार्केटिंग चालाकी हो सकती है। बहरहाल,उस हत्याकांड की जिज्ञासा फिल्म के
प्रति आकर्षित करती है। दर्शक फिल्म देखते समय अपनी धारणाओं और नतीजों का मजबूत
होते या टूटते देख सकते हैं। लेखक और निर्देशक ने कलात्मक होशियारी बरती है। इस
फिल्म में गुलजार की ‘इजाजत’ के गीत और प्रसंग का उल्लेख विशाल की श्रद्धांजलि हो सकती
है,लेकिन फिल्म की प्रवाह में वह बाधक है। इसी प्रकार धर्म प्रचारक अवस्था जुमले
को अधिक खींचा गया है।
‘तलवार’ की सबसे बड़ी विशेषता
कलाकारों का चयन है। श्रुति के माता-पिता नुपूर और रमेश के रूप में कोंकणा
सेनशर्मा और नीरज काबी जंचते हैं। उन्होंने श्रुति के माता-पिता की भूमिकाओं को संजीदगी
के साथ निभाया है। दोनों नैचुरल हैं। एक दृश्य में उनका बोला संवाद खटकता है-चलो
जल्दी करो,अब रोना-धोना भी है। वह उस दृश्य की जरूरत हो सकती है,लेकिन फौरी
अंदाज में बोला गया वह संवाद फिल्म के प्रभाव को अचानक कम कर देता है। नौकरों और
ड्रायवर के लिए चुने गए कलाकारों के साथ इंस्पेक्टर बने गजराज राव फिल्म को
वास्तविक और विश्वसनीय बनाए रखने में सहायक हैं। इरफान की सहजता किसी भी किरदार को आम्तीय बना देती
है। लेखक के संवादों में वे अपनी खासियत और अदायगी जोड़ कर उन्हें अधिक चुटीला और
प्रभावशाली बना देते हें। इस फिल्म में ऐसे कई प्रसंग हैं,जिनमें इरफान का जादू
बोलता है।
अवधि – 132 मिनट
स्टार – साढ़े तीन स्टार
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