फिल्म समीक्षा # जज़्बा
-अजय ब्रह्मात्मज
संजय
गुप्ता की ‘जज्बा’ दक्षिण कोरियाई फिल्म ‘सेवन डेज’ की अधिकृत रीमेक है। दक्षिण कोरिया में यह फिल्म आठ साल
पहले रिलीज हुई थी। संजय गुप्ता अपनी अनधिकृत रीमेक के लिए बदनाम रहे हैं,इस बार
उन्होंने अधिकार लेकर हिंदी फिल्म बनाई है। उनकी फिल्मों में एक्शन के साथ जांबाज
मर्दों की खास मौजूदगी रहती है। यहां भी एक मर्द है योहान,लेकिन इस बार एक्शन के
साथ फिल्म के सेंटर में है एक महिला। अनुराधा वर्मा पेशे से वकील हैं। वह कोई भी
केस नहीं हारतीं। अपनी वकालत में व्यस्त होने के साथ ही वह मां भी हैं। वह मां
के सारे दायित्व निभाती हैं। आम फिल्मों की तरह निर्देशक ने यह नहीं दिखाया है
कि कामकाजी महिला होने की वजह से वह पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह
हैं।
अनुराधा
वर्मा और योहान की भूमिका निभा रहे ऐश्वर्या राय बच्चन और इरफान की अनोखी जोड़ी
हैरान करती है। भारतीय दर्शक दोनों ही एक्टर की पृष्ठभूमि जानते हैं और उनके
करिअर ग्राफ से परिचित रहे हैं। इस फिल्म में दोनों का साथ बेमेल तो नहीं
है,लेकिन दोनों की सार्वजनिक छवि फिल्म के संयुक्त प्रभाव के आड़े आती है। विश्वसुंदरी
ऐश्वर्या राय बच्चन की निजी छवि चर्चित और चमकदार है। उसके बरक्स अनुराधा वर्मा
का किरदार छोटा जान पड़ता है। यही वजह है कि ऐश्वर्या की कोशिशों के बावजूद अनुराधा
का व्यवहार सम्मोहित नहीं करता। मां के रूप में वह फबती हैं। बेटी का किरदार
निभा रही लड़की की स्वाभाविकता प्रशंसनीय है। उन दोनों की केमेस्ट्री में ममत्व
है। अनुराधा वर्मा वकालत के साथ एक्शन दृश्यों में कमजोर दिखती है1 योहान के साथ
के लगाव के दृश्यों में वह सहज नहीं हैं।
इरफान
ने पहले भी ऐसे पॉपुलर कैरेक्टर निभाए हैं। इस बार वे दर्शकों को अपने एक्शन और
संवादों से आकर्षित करते हैं। फिल्म के आरंभिक दृश्यों में ही अमिताभ बच्च्न
के उल्लेख से स्पष्ट कर दिया जाता है कि हम उन्हें अलग अंदाज में देखेंगे। वे
दर्शकों को लुभाने की भरसक कोशिश करते हैं। अपनी खास संवाद अदायगी से वे समुचित
प्रभाव डालते हैं। योहान का किरदार कलाकार इरफान को नया आयाम देता है। वे पॉपुलर
जोनर और स्टायल में प्रवेश करते हैं। इस ट्रांजीशन में निहित हिचक कुछ दृश्यों
में जाहिर होती है।
अभिमन्यु
सिंह,चंदन रॉय सान्याल,सिद्धांत कपूर,अतुल कुलकर्णी,प्रिया बनर्जी और शबाना आजमी
ने अपनी भूमिकाओं से फिल्म को संवारा और प्रभावशाली बनाया है। सभी की संक्षिप्त
भूमिकाएं हैं,लेकिन वे अपने दृश्यों में रमे हैं। खास कर चंदन रॉय सान्याल और
प्रिया बनर्जी अपने सीन में छाप छोड़ते हैं। प्रिया के किरदार को कुछ और सीन मिलते
तो वह और निखरतीं। शबाना आजमी तो हैं ही बेहतर कलाकार। उन्होंने गरिमा चौधरी की
जटिल भूमिका को अपने अनुभव से सरल कर दिया है।
ऊपरी
तौर पर यह फिल्म थ्रिलर और इमोशन का आकर्षक योग है। संजय गुप्ता ने थ्रिलर
क्रिएट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मुंबई को अलग कोणों और रंगों से दिखाने
में भी वे सफल रहे हैं। फिल्म में आरंभ से ही गति बनी रहती है। घटनाएं घटती रहती
है। उत्सुकता बढ़ती है। फिल्म के क्लाइमेक्स को लेकर कुछ नैतिक सवाल हो सकते
हैं,लेकिन कुछ फैसले इतने इंटेंस और इमोशनल होते हैं कि मोरैलिटी दरकिनार हो जाती
है। वर्ना क्यों कोई सजायाफ्ता मुजरिम को छुड़ाने की जिद करे?
इस
फिल्म की मुख्य समस्या दोनों मुख्य कलाकारों का अपने किरदारों से भिन्न और
बड़ी सार्वजनिक छवि रखना है। ऐश्वर्या राय बच्चन की अदाकारी में विरोधाभास है।
वह एक्शन और रफ दृश्यों में भी अपनी खूबसूरत इमेज से नहीं निकल पातीं। यह
निर्देशक संजय गुप्ता की असफलता है। आखिरकार उसे ही कलाकार को किरदार में ढालना
होता है। इरफान दर्शकों को लुभा रहे थे तो उन्हें भी अपना संकोच छोड़ना चाहिए था।
अवधि- 122 मिनट
स्टार- ढाई स्टार
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