दरअसल - फिर से पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध
-अजय ब्रह्मात्मज
पहले गुलाम अली के गायन पर पाबंदी लगी। महाराष्ट्र
में सक्रिय शिसेना के नुमाइंदों ने गुलाम अली के कार्यक्रम पर आपत्ति की तो
आयोजकों ने तत्काल कार्यक्रम ही रद्द कर दिया। हालांकि महाराष्ट्र के मुख्य
मंत्री पे सुरक्षा का आश्वासन दिया,लेकिन उस आश्वासन में ऐसा भरोसा नहीं था कि
गुलाम अली मुंबई में गा सकें। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी शिवसेना के
कार्यकर्ता इसी तरह के हुड़दंग करते रहे हैं। उन्होंने पहले भीद पाकिस्तानी
कलाकारों के खिलाफ बयान दिए हैं। कई बा उनका विरोध आक्रामक और हिंसक भी हुआ है।
पाकिस्तानी कलाकारों के वर्त्तमान विरोध का खास पहरप्रेक्ष्य है। इस बार तो
केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है। रात्ज्य में शिवसेना का उसे सकर्थन भी
प्राप्त है। न केवल कलाकार, क्रिकेटरों का भी विरोध हो रहा है। उसके पहले एक राजनयिक के पुस्तक विमोचन के अवसर पर तो
सुधींद्र कुलकर्णी का मुंह भी काला किया गया।
एक तर्क दिया जाता है कि पाकिस्तान से आतंकवादी
गतिविधियां चलती रहती हैं और बोर्डर पर हमेशा दोनों देशों के बीच कलह रहती
है,जिसमें पाकिस्तान ही शुरुआत करता है। आजादी और बंटवारे के बाद से भारत और
पाकिस्तान के रिश्ते कभी भी लंबे समय तक नॉर्मल नहीं रहे। हमेशा एक तनाव कायम
रहता है। सांस्कृतिक मेलजोल और नागरिकों के मेल-मिलाप से रिश्ता नरम और दोस्ती
का बन रहा होता है कि सीमा पर गोलियां चलती हैं और दोनों देश लहूलुहान हो जाते
हैं। आशंका और अनिश्चितता बढ़ जाती है। सालों की मेहनत फिर से खटाई में पड़ जाती
है। रिश्तों की मजबूती फिर से ढीली पड़ती है। फिरकापरस्त कामयाब होते हैं। गौर
करें तो दोनों देशों के नागरिक साझा संस्कृति की वजह से एका महसूस करते हैं।
विदेशों में भारतीय और पाकिसनियों की दोस्ती देखते ही बनती है,लेकिन अपने मुल्कों
में लौटते ही वैमनस्य और संदेह बढ़ने लगता है। जरूरत है कि दोनों देशों में
समझदारी और मेलजोल बढ़े।
हिंदी
सिनेमा के संदर्भ में दोनों देशों के साहर्य का इतिहास देखें तो रोचक तथ्य
मिलेंगे। देश की आजादी से हिंदी सिनेमा में फिल्म निर्माण के तीन मुख्य केंद्र
थे- कोलकाता,लाहौर और मुंबई। कोलकाता में छिटपुट रूप से ही हिंदी इफिल्मों का
निर्माण होता रहा। लाहौर और मुंबई ही ज्यादार कलाकार और फिल्म कंपनियां थीं।
आजादी के पहले मुंबई और लाहौर के बीच सीधा संबंध था। गौरतलब है कि राजीनीति का
केंद्र दिल्ली रही,लेकिन सांस्कृतिक राजधानी लाहौर ही रहा। आजादी के पहले उत्तर
भारत में सिनेमाई गतिविधियां लाहौर में ही सिमटी रहीं। आजादी और बंटवारे के बाद
लाहौर से अनेक प्रतिभाओं ने मुंबई को अपना ठिकाना बनाया। सच्चाई है कि धर्म की
वजह से अनेक फिल्मकारों और कलाकारों को मुंबई का रुख करना पड़ा और मुटो समेत अनेक
मुसलमान कलाकारो,लेखकों और तकनीशियनों ने लाहौर का रास्ता देखा। सुरक्षा और करिअर
के लिए गए इन फैसलों पर कभी अध्ययन नहीं किया गया।
अगर पाकिस्तानी
संबंध को हिंदी सिनेमा से अलगाया जाएगा तो हिंदी सिनेमा के इतिहास का एक तिहाई से
ज्यादा हिस्सा हमें काटना या छोड़ना पड़ेगा। हिंदी सिनेमा की पहली लोकप्रिय
त्रयी दिलीप कुमार,देव आनंद और राज कपूर का रिश्ता पाकिस्तान से रहा है। अनके
लेखक,संगीतकार और कलाकारों ने लाहौर में रहते हुए काम किया और बंटवारे के बाद वे
भारत आ गए। हिंदी सिनेमा के विकास में उन सभी के योगदान को हम नजरअंदाज नहीं कर
सकते। हम सभी जानते हें कि आजादी के बाद मुंबई में हिंदी सिनेमा का तेजी से विकास
हुआ। पाकिस्तान में सिनेमा ने वैसी प्रगति नहीं की। भाषा और संस्कृति की समानता
की वजह से दोनों देशों में सिनेमा के दर्शक हिंदी फिल्में पसंद करते हें। पाकिस्तानी
कलाकर संभावनाओं और एक्सपोजर के लिए भारत आते रहे हें। उन प्रतिभाओं को भारत में
सराहा भी गया है। आज भी यह सिलसिला जारी है।
दरअसल,हमें
अधिक उदारता बरतनी होगी। इस तर्क में अधिक दम नहीं है कि पाकिस्तान में भारतीय
कलाकारों का मौके नहीं मिलते। पाकिस्तान का मनोरंजन उद्योग इस स्थिति में नहीं है
कि वह भारतीय प्रतिभाओं को खपा सके। हां,हम पाकिस्तानी प्रतिभाओं को अवसर दे सकते
हें। और यह कहना बेमानी है कि कलाकार और क्रिकेटर भी अतंकवादी होते हैं या उसी
मानसिकता के होते हें।
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