फिल्म समीक्षा : तितली
रियल सिनेमा में रियल लोग
-अजय ब्रह्मात्मज
पहले ही बता दूं कि ‘तितली’ देखते हुए मितली आ सकती है।
नियमित
तौर पर आ रही हिंदी फिल्मों ने हमें रंग,खूबसूरती,सुदर लोकेशन,आकर्षक चेहरों और
सुगम कहानी का ऐसा आदी बना दिया है कि अगर पर्दे पर यथार्थ की झलक भी दिखे तो सहज
प्रतिक्रिया होती है कि ये क्या है ? सचमुच सिनेमा का मतलब
मनोरंजन से अधिक सुकून और उत्तेजना हो गया है। अगर कोई फिल्म हमें अपने आसपास की
सच्चाइयां दिखा कर झकझोर देती हैं तो हम असहज हो जाते हैं।‘तितली’ कोई रासहत नहीं देती। पूरी
फिल्म में सांसत बनी रहती है कि विक्रम,बावला और तितली अपनी स्थितियों से उबर क्यों
नहीं जाते ?
जिंदगी इतनी कठोर है कि जीने की ललक में आदमी घिनौना
भी होता चला जाता है। तीनों भाइयों की जिंदगी से अधिक नारकीय क्या हो सकता है ? अपने स्वर्थ के लिए किसी का खून बहा देना उनके लिए साधारण सी
बात है। जिंदगी की जरूरतों ने उन्हें नीच हरकतों के लिए मजबूर कर दिया है। पाने
की कोशिश में जिंदगी उनके हाथ से फिसलती जाती है। वे इस कदर नीच हैं कि हमें उनसे
अधिक सहानुभूति भी नहीं होती। अपनी आरामतलब जिंदगी में पर्दे पर किरदारों के रूप
में उनकी मौजूदगी भी हमें डिस्टर्ब करती है। हमें कनु बहल का प्रयास अच्छा नहीं
लगता। उबकाई आती है कि अरे भाई बस भी करो। क्या कोई इतना क्रूर भी हो सकता है कि
अपनी ब्याहता को आर्थिक लाभ के लिए शारीरिक जख्म दे। और बीवी भी कैसी है कि
तैयार हो जात है। अपना हाथ आगे बढ़ा देती है कि लो मेरा हाथ,सुन्न करो और तोड़
दो।
कनु बहल की ‘तितली’ कई स्तरों पर एक साथ
प्रभावित करती है। कनु ने अपनी कहानी के लिए जो यथार्थवादी शिल्प चुना है। वे ‘जैसा है वैसा’ आज और समाज प्रस्तुत करते
हें। फिल्म के सभी प्रमुख किरदारों को उन्होंने वास्तविक रंग दिया है। उन्होंने
अपने किरदारों के लिए उपयुक्त चेहरों के एक्टर चुने हें। चूंकि हम उन्हें पहले
से नहीं जानते,इसलिए उनकी प्रतिक्रियाएं कहानी के अनुसार स्वाभाविक लगती हैं।
फिल्म में रणवीर शौरी ही परिचित चेहरा है। उन्होंने विक्रम की व्याकुलता को
प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति दी है। रणवीर शौरी अपनी पीढ़ी के उम्दा अभिनेता है,जो
छोटी भूमिकाओं में सिमट कर रह गए हैं। कनु की तरह अन्य निर्देशकों को भ उनका सही
उपयोग करना चाहिए। नीलू के किरदार में आई शिवानी रघुवंशी भी अपनी सहजता से
प्रभावित करती हैं।
फिल्म आरंभ
से ही अपने दृश्यों और ध्वनि के तालमेल से बांध लेती है। यों लगता है कि हम खुद
उन किरदारों के बीच हैं और उन्हें देख-सुन रहे हैं। साउंड डिजायन उत्तम और असरकारी
है। फिल्म का मटमैला रंग भी किरदारों और उनकी स्थितियों से मेल खाता है। कनु बहल
अपनी पहली फिल्म में खतरों से वाकिफ नहीं हैं,इसलिए मौलिक,ईमानदार और सरल हैं।
उन्होंने दर्शकों को खुश रखने या करने की कोई कोशिश नहीं की है। दिबाकर बनर्जी की
‘खोसला का घोसला’ की तरह कनु बहल की ‘तितली’ में भी दिल्ली अपनी वास्तविकता
के साथ नजर आई है।
फिल्म के
लेखक शरत कटारिया और कनु बहल अलग से बधाई के पात्र हैं। उन्होंने दृश्यों और
संवादों को फिल्म की थीम के अनुरूप रखा है। सबसे अच्छी बात है कि वे कहीं भी
बहके नहीं हैं। उन्होंने संवेदना और सपने को भी धड़कन दी है। उन्हें परिस्थिति
की कठोरता से चकनाचूर नहीं होने दिया है।‘तितली’ एक उम्मीद है कि अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है।
ऐसी फिल्म
के निर्माण के लिए दिबाकर बनर्जी और समर्थन के लिए यशराज फिल्म्स को भी बधाई। यह
मेलजोल आगे भी बनी रहे।
अवधि- 117 मिनट
स्टार- चार स्टार
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