दरअसल : गाने सुनें और पढें भी



-अजय ब्रह्मात्‍मज
    पिछले से पिछले रविवार को मैं लखनऊ में था। दैनिक जागरण ने अभिव्‍यक्ति की विधाओं पर संवादी कार्यक्रम का आयेजन किया था। इस के एक सत्र में चर्चित गीतकार इरशाद कामिल गए थे। वहां मैंने उनसे बातचीत की। इस बातजीत में लखनऊ के श्रोताओं ने शिरकत की और सवाल भी पूछे। बातचीत मुख्‍य रूप से इरशाद कामिल के गीतो और उनकी ताजा फिल्‍म तमाशा पर केंद्रित थी। फिर भी सवाल-जवाब में ऐसे अनेक पहलुओं पर बातें हुई,जो आज के फिल्‍मी गीत-संगीत से संबंधित हैं।
    एक पहलू तो यही था कि क्‍या फिल्‍मी गीतों को कभी साहित्‍य का दर्जा हासिल हो सकता है। इरशाद कामिल ने स्‍वयं अने गीतों की अनेक पंक्तियों से उदाहरण्‍ दिए और पूछा कि क्‍या इनमें काव्‍य के गुण नहीं हैं ? क्‍या सिर्फ फिल्‍मों में आने और किसी पाम्‍पुलर स्‍टार के गाने की वजह से उनकी महत्‍ता कम हो जाती है। यह सवाल लंदनवासी तेजेंन्‍द्र शर्मा भी शैलेन्‍द्र के संदर्भ में उठाते हैं। उन्‍होंने तो वृहद अध्‍ययन और संकलन से एक जोरदार प्रेजेंटेशन तैयार किया है। साहित्‍य के पहरूए या आलोचक फिल्‍मी गीतों को साहित्‍य में शामिल नहीं करते। उनके हिसाब से यह पॉपुलर कल्‍चर से संबंधित है। जो पॉपुलर है,वह भला क्‍लासिकल कैसे हो सकता है ? वक्‍त आ गया है कि हम सभी अपना नजरिया बदलें और खुले दिमाग से सोचें। बिल्‍कुल जरूरी नहीं है कि घटिया गीतों को साहित्‍य में शामिल करें। साहित्‍य में भी तो घटिया कविताओं का लेखन होता है,जो समय के साथ छंट जाते हैं।
    फिल्‍मी गीतों की साहित्यिक गुणवत्‍ता से अधिक यह मामला फिलमों के बारे में बनी समाज की धारणा है। हिंदी समाज अपने ही सिनेमा को लेकर उदार और सहिष्‍णु नहीं रहा। आज भी सिनेमा के अध्‍ययन,पत्रकारिता और शोध को सम्‍मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। मान लिया गया है कि हिंदी सिनेमा में सब कुछ फूहड़ और अश्‍लील है। वहां काम करने वाले लोग अनैतिक और अमर्यादित होते हैं। हम सभी अपने एकांत में भले ही हिंदी फिल्‍मों के गीत गुनगुनाए या अकेले होने पर उन्‍हें सुनना चाहें,लेकिन सार्वजनिक तौर पर हम उनके प्रति तिरस्‍कार भाव रखते हैं।
    इरशाद कामिल ने जोर देकर कहा कि हम लोग फिल्‍मी गीतों में कोई भी बात हल्‍के तरीके से कहते है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम हल्‍की बातें करते हैं। शुरू से फिल्‍मी गीतों ने अपने समय के समाज की भावनाओं को अभिव्‍यक्ति दी है। राष्‍ट्रीय भावना और मानवीय संवेदना की ऐसी अनूठी और सरल अभिव्‍यक्ति साहित्‍य में भी दुर्लभ है। संगीत के साथ आने के कारण ये गीत याद भी रहते है। हमारे मानस में बजते रहते हैं। ये गीत हमारी सांसकृतिक पहचान का हिस्‍सा हैं। इरशाद की बातों की सच्‍चाई मैंने स्‍वयं महसूस की है। विदेशों में जब हर तरफ से अपहिरचित ध्‍वनियां कानों में पड़ रही होती हैं। वैसे विकल माहौल में परिचित और प्रिय फिल्‍मी गीत गहरा सुकून देता है। हमें वहीं पंक्तियां याद रहती हैं,जो मर्मस्‍पर्शी होती हैं। हम अपनी पसंद के गीतों के साथ जीते हैं।
    गीतों में विजुअल और साउंड बढ़ने से उनका प्रतिगामी असर भी होता है। अव्‍वल तो सभी गीत एक बार ध्‍यान से सुनें और मुमकिन हों तो सुनने के साथ उन्‍हें पढ़ें। मेरा दावा है कि सुने हुए गीतों का भी असर नया और मानीखेज होगा। जागिंग करते हुए या चलते हुए या फिर टीवी पर उन्‍हें सितारों के मुंह से गाते हुए सुनने पर गीतों पर एकाग्रता नहीं रहती। गीतों के रसास्‍वादन के लिए जरूरी है कि हम गीतकार की पंक्तियों पर गौर करें। उनसे निकलने वाले अर्थों पर धान दें। गीत देखें और उन पर नाचें भी,लेकिन समय निकाल कर उन्‍हें एक बार जरूर सुनें और पढ़ें। इन दिनों विजुअल और साउंड का तात्‍कालिक आकर्षण होता है। गीत तो उसके बाद भी रेडियो,किताबों और अब इंटरनेट के जरिए जिंदा रहते हैं।

Comments

आपने बहुत सही लिखा है कि - "हमें वहीं पंक्तियां याद रहती हैं,जो मर्मस्‍पर्शी होती हैं। हम अपनी पसंद के गीतों के साथ जीते हैं।" संवादी के उस सत्र में मैं भी मौजूद था। ( मैं हिंदी सिनेमा पर शोध कर रहा हूं और आपसे मिला भी था। ) निवेदन है कि जिस तरह से अच्छे गानों की तारीफ होती है और आज उसे साहित्य के रुप में स्वीकार करने की बात हो रही है उसी तरह घटिया गानों को भी रेखांकित किया जाए, उनकी लोकप्रियता को किनारे करते हुए समाज पर उनके दुष्प्रभाव को सामने लाया जाए। जिससे घटिया गानों के लेखक और गायक दोनों धराशायी हों।

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