तलाश है खुद की ‘तमाशा’: इम्तियाज अली
-अजय ब्रह्मात्मज
प्रेम, भावना और संबंध के संवेदनशील फिल्मकार इम्तियाज अली इन दिनों ‘तमाशा’ पूरी करने में व्यस्त हैं। तकनीकी बारीकियां हासिल करने की सुविधाएं बढऩे से फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन में भी निर्देशक की तल्लीनता बढ़ जाती है। रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण की ‘तमाशा’ में इम्तियाज अली ने प्रमुख किरदारों को बिल्कुल नए अंदाज में पेश किया है। 21 वीं सदी के दूसरे दशक की इस प्रेम कहानी में स्वयं की खोज के साथ समाज भी है।
-क्या है ‘तमाशा’?
‘बाचीजा-ए-अतफाल है दुनिया मेरे आगे. होता है शब-ओ-रोज तमाशा मेरे आगे’ कह लें या ‘दुनिया रंगमंच है और हम एक्टर हैं। अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं।’ हमेशा यह एहसास होता है कि यह जिंदगी एक खेल है, तमाशा है। हमारे इर्द-गिर्द जो चल रहा है, वह सच है कि माया है, हमें पता नहीं। शायरों, कवियों, दार्शनिकों ने अपने-अपने समय पर हमें समझाने की कोशिश की है। ऐसा कहते हैं कि सारी दुनिया की कहानियां एक जैसी होती हैं।
मेरी फिल्म में शिमला का एक बच्चा है। उसकी कहानियों में रुचि है, वह पैसा चुरा कर कहानी सुनने एक किस्सागो के पास रहता है। शिमला में ही एक किस्सागो रहता है। वह आजीविका के लिए तो कुछ और करता है, लेकिन पैसे देने पर वह कहानियां सुनाता है। वह बताता है कि सारी कहानियां एक जैसी होती हैं और तुम्हारी जिंदगी में भी वही कहानी चल रही है। मेरे नायक वेद वद्र्धन साहनी की कहानी सुनी हुई कहानियों के किरदारों से टकराती है। वह अपनी जिंदगी में उनकी कहानियां देखता है।
-वेद वद्र्धन साहनी रोचक किरदार लग रहा है? थोड़ा विस्तार से बताएं?
वेद को एहसास नहीं है कि उसकी क्या क्षमताएं और योग्यताएं हैं। एक लडक़ी उसे याद दिलाती है कि तुम तो कोई और हो। मुझे तुम्हारे अंदर कुछ खास दिखता है, जबकि तुमने कोई और चोला पहन रखा है।
-आज पूरे समाज में एक खलबली सी मची है। इस दौर में वेद का समाज से ताल्लुक है या वह अपनी कहानियों की दुनिया में खोया रहता है?
यही मेरी फिल्म की कहानी है। दुनिया में जीने और आगे बढऩे के साथ उसका अपना ‘आप’ छूटता रहता है। यही स्ट्रगल है। सभी की नियति है कि दुनियादारी की वजह से अपनी खासियत दबा कर आम (साधारण) हो जाना होता है। यह लड़ाई ताजिंदगी चलती है। एक जो हम ऑर्गेनिक रूप में होते हैं और दूसरा जो हमारा सामाजिक रूप होता है। यह हम सभी के तसव्वुर और हकीकत की लड़ाई है।
-क्या वेद पर कोई सामाजिक दवाब भी है? क्या उसे खुशी मिल पाती है?
वेद का अंतस अलग है। बाह्य रूप में उसका अंतस नहीं उभर पा रहा है। वह असंतुष्ट रहता है। अपनी जिंदगी में उसका स्ट्रगल चल रहा होता है। हम कहते हैं कि समाज हमें रोकता है। मुझे लगता है कि हम खुद भी अपनी सीमाएं तय कर लेते हैं। हम जिसे समाज कहते हैं, हम वही समाज हो जाते हैं। खुद पर ही दवाब डालते हैं। वेद की लड़ाई खुद से है। वह सेफ प्ले करता है। वह डरा हुआ है। आईने के सामने खड़े होने पर दिल और दिमाग दोनों की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। हम उनसे जूझते हैं और एक फैसला लेकर निकल पड़ते हैं।
-हम सभी कुछ करने या न करने के लिए कहानी खोजते या तोड़ते हैं? हीरो तोड़ते हैं तो जीत जाते हैं। ज्यादातर लोग कुछ न करने के बहानों और फैसलों से ही हारते हैं?
सही कह रहे हैं आप। हम अपने फैसलों के ही नतीजे हैं। ‘तमाशा’ के वेद को ही लें। उसके पिता विभाजन के बाद शिमला में आए थे। वेद के दादा को अपनी ड्यूटी पर अटल रहना पड़ा था। दिल के ख्यालों को बेकार मान कर छोडऩा पड़ा था। आज तीसरी पीढ़ी का लडक़ा विभाजन के समय का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं है। यह उस परिवार का लडक़ा है। पिता समझाते भी हैं कि बचपन में सभी कहानियां सुनते हैं, लेकिन कोई उन कहानियों में नहीं रह जाता। तुम भी निकलो।
-लडक़ी उसकी जिंदगी में कब और कैसे आती है?
लडक़ी पेरिस में है। वह कोर्सिका आने पर वेद से मिलती है। वह खुद एक क्राइसिस में है। दोनों की मुलाकात के बाद तय करते हैं कि हम अपनी कहानी को एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी बनाएंगे। कैसे बनाएंगे? हम एक-दूसरे को बताएंगे ही नहीं कि हम कौन हैं? वादा करते हैं कि हम फिर कभी नहीं मिलेंगे। एक-दूसरे को अपने बारे में बताते समय केवल झूठ कहेंगे। आठ दिनों के बाद वे अलग हो जाते हैं। कई सालों के बाद वे फिर मिलते हैं। फिर लडक़ी कोा लगता है कि लडक़े में इतना फर्क कैसे आ गया? ‘तमाशा’ की लडक़ी म्यूज है, जो किसी इंसान को कलाकार बना देती है।
-‘तमाशा’ में लडक़ी और लडक़े के संबंधों और प्रेम की गहराई और तीव्रता कैसी है?
उन लोगों ने वादा किया था कि वे फिजिकल नहीं होंगे। दोनों के बीच दिल का रिश्ता बनता है। लडक़ी वेद से बहुत प्रभावित होती है। उसकी फ्री स्पिरिट से खुश होती है। उसके साथ रहने में उसे अच्छा लगता है। वह मौज-मस्ती में लापरवाह जिंदगी जीता है। वह पहाड़ों से भी बातें कर सकता है।
- आप की फिल्मों में नायक-नायिका प्राय: शारीरिक संबंध बनाने से बचते हैं?
ऐसा नहीं है। मेरा मानना है कि अगर दिल न मिले तो शरीर के मिलने का मतलब नहीं है। मेरे किरदार पहले दिल से मिलते हैं।
-क्या ‘तमाशा’ के किरदार भी आप की दूसरी फिल्मों की तरह ट्रैवल करते हैं?
हां, करते हैं। शिमला, कोर्सिका, टोक्यो, दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में किरदार मिलते हैं। वेद शिमला का है और तारा माहेश्वरी कोलकाता की है। फिल्म में उन दोनों की जर्नी है तो ट्रैवल भी है।
-खुद इम्तियाज के ख्यालों की दुनिया और वास्तविक दुनिया कितनी करीब है?
मुझे बराबर लगता रहा है कि यहां मैं ऐसे रह रहा हूं, लेकिन मैं कुछ और भी हूं। यह हम सभी को लगता है कि हम कुछ और हैं या होना चाहते हैं। मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? समझ में नहीं आता। शायद यह मेरी अपनी समस्या है। मेरी खुशकिस्मती है कि मैं फिल्मों में आ गया। फिर भी यह नहीं लगता कि मैं उसके करीब आ पाया हूं, जो मेरा शुद्ध स्वयं है। मुझे खुद में ही प्रदूषण दिखता है। अच्छा आदमी बनने या होने का भ्रम पाल रखा है मैंने। कई बार खुशी के मौकों पर उदास हो जाता हूं और उदासी के मौकों पर दुखी नहीं होता।
-इस फिल्म का गीत-संगीत कैसा है?
इस फिल्म में म्यूजिक सूत्रधार है। मेरी फिल्मों में ऐसा संगीत कभी नहीं आया। गीतों में रंगमंचीय तरीके से कहानी कही गई है। हमने लोकगीतों और लोकगाथाओं का इस्तेमाल किया है। एआर रहमान ने काफी मधुर संगीत दिया है। इरशाद कामिल ने अपने गीतों में काफी प्रभावी संगीत दिया है। पारंपरिक तमाशा, नौटंकी आदि से प्रभाव लिए गए हैं। इस फिल्म के संगीत की ध्वनि में तमाशा है। एआर रहमान की प्रतियोगिता अपने आप से है। वे फिर से सरप्राइज करेंगे।
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