फिल्म समीक्षा : मेरठिया गैंगस्टर
-अजय ब्रह्मात्मज
मेरठिया गैंगस्टर
जीशान कादरी
की ‘मेरठिया गैंगस्टर’ के साथ अनेक दिक्कतें हें। फिल्म देखने से पहले यह खयाल
आता है कि इसे जीशान कादरी ने लिखा और निर्देशित किया है। जीशान कादरी ने ही
अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपूर’ की मूल कहानी लिखी थी। उसी कहानी के बचे-खुचे किरदारों और वॉयलेंस
को लेकर उन्होंने फिल्म बना दी होगी। फिर अनुराग कश्यप अपने पसंदीदा प्रतिभाओं
को तवज्जो देते हैं। उन्होंने इसे एडिट और प्रेजेंट किया है। अभी अनेक व्यक्तियों
को लगता है कि अनुराग कश्यप चूक गए है। उनके सहयोग और समर्थन में दम नहीं रहा। सो
इस फिल्म से अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। और फिर मेरठ के गैंगस्टर को क्या
देखना? गैंगस्टर तो मुंबई और दिल्ली में
रहते हैं। ऊपर से संजय मिश्रा और मुकुल देव के अलावा कोई परिचित कलाकार भी तो नहीं
हैं।
न देखने की
इन पूर्वाग्रहों को किनारे कर दें तो ‘मेरठिया गैंगस्टर’ देखने की वजहें भी यही हो जाएंगी। फिल्म के छह मुख्य
कलाकार अपेक्षाकृत नए हैं- जयदीप अहलावत(निखिल),आकाश दहिया(अमित),वंश
भारद्वाज(गगन),जतिन सरना(संजय फॉरेनर),चंद्रचूड़ राय(राहुल) और शादाब कमल(सनी)। इन
सभी ने अपने किरदारों को पूरी तन्मयता से जिया है। वे इन किरदारों से ही लगते
हैं। गौर करें तो वे हिंदी फिल्मों के प्रचलित गैंगस्टर नहीं लगते। वे उनकी तरह
न तो बोलते हैं और न बिहेव करते हैं। ये सभी किरदार देसी है। मेरठ या मेरठ जैसे
कस्बाई शहरों में इन्हें पाया जा सकता हैं। इन छिछोरे छोरों की क्षुद्रताएं छोटी
हैं। कॉलेज कैंपस की दादागिरी से क्राइम की दुनिया में घुसने में इन्हें वक्त
लगता है। लाखों से बढ़ा कर करोड़ों की फिरौती मांगने में ही इनके पसीने छूट जाते
हें। उत्तर भारत के शहरों और कस्बों से वाकिफ दर्शक इनकी करतूतों को समझ सकते
हें। हिंदी फिल्मों ने गैंगस्टर के पहचान और लक्षण तय कर दिए हैं। ‘मेरठिया गैंगस्टर’ में उनका पालन नहीं किया
गया है।
‘मेरठिया गेंगस्टर’ कच्चा प्रयास नहीं है। हां,कुछ
दृश्यों में यह फिल्म अधपकी लग सकती है। यह रॉनेस ही इसकी खूबी है। कुछ दृश्यों
की लय इतनी गतिपूर्ण और रोचक है कि लेखक-निर्देशक की सोच पर ताज्जुब होता है।
मजेदार यह है कि निर्देशक की उस सोच को कलाकारों ने पूरे विश्वास से पर्दे पर
उतारा है। ट्यूब वेल के पास के दृश्यों और पुलिस से होने वाली झड़प में निर्देशक
और कलाकारों की संगति देखते ही बनती है। सभी कलाकारों ने अपने संवादों और दृश्यों
को निजीपन से विशेष बनाया है। उनके परफारमेंस में सामूहिकता दिखती है। इस फिल्म
का कोई अकेला हीरो नहीं है। जतिन सरना इन सभी में उल्लेखनीय हैं। आकाश दहिया
कहीं-कहीं एक सीनियर थिएटर एक्टर की झलक मिलती है,लेकिन यह स्वाभाविक है। जयदीप
अहलावत गैंग लीडर के हिसाब से पेश आते हें। मुकुल देव ने बहुत अच्छी तरह लहजा और
एटीट्यूड पकड़ा है। संजय मिश्रा का उपयोग नहीं हो पाया है।
जीशान कादरी
की ‘मेरठिया गैंगस्टर’ उल्लेखनीय फिल्म है। यह भविष्य की उन फिल्मों का सकेत
है,जो होगी तो हिदी में,लेकिन उन पर क्षेत्र या प्रदेश विशेष की छाप होगी। संभव है
यह फिल्म शहरी और मल्टीप्लेक्स दर्शकों को अधिक पसंद नहीं आए। यह कस्बाई ढंग
और परिवेश की फिल्म है। इसके दर्शक भी वहीं हैं। जीशान कादरी ने किसी तरकीब से
चौंकाया होता तो यह फिल्म अधिक ध्यान खींचती। फिलहाल इसकी सादगी काफी है।
अवधि- 129 मिनट
स्टार- तीन स्टार
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