औरतों पर ही आती है कयामत- इला बेदी दत्ता
हथ लांयां कुमलान नी लाजवंती दे बूटे
(ऐ सखि ये लाजवंती के पौधे हैं, हाथ लगाते ही कुम्हला जाते हैं।)
राजिन्दर सिंह बेदी की
कहानी ‘लाजवंती’ की पहली और आखिरी पंक्ति यही है। पार्टीशन की पृष्ठभूमि की यह कहानी विभाजन की
त्रासदी के साथ मानव स्वभाव की मूल प्रवृतियों की ओर भी इशारा करती है। यह
सुदरलाल और लाजवंती की कहानी है। कभी राजिन्दर सिंह बेदी स्वयं इस कहानी पर फिल्म
बनाना चाहते थे। ‘देवदास’ के दरम्यान दिलीप कुमार से हुई दोस्ती को आगे बढ़ाते हुए
राजिन्दर सिंह बेदी उनके साथ इस फिल्म की प्लानिंग की थी। लाजवंती की भूमिका के
लिए नूतन के बारे में सोचा गया था,लेकिन किसी वजह से वह फिल्म नहीं बन सकी। फिर
अभी से 12-13 साल पहले उनकी पोती इला बेदी दत्ता ने फिल्म के बारे में सोचा। अजय
देवगन से आरंभिक बातें हुई। तभी डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘पिंजर’ आई और ‘लाजवंती’ की योजना पूरी नहीं हो सकी।
अब वह इसे धारावाहिक के रूप में ला रही हैं। सितंबर के अंत में जीटीवी से इसका
प्रसारण होगा।
इला का अपने दादा जी की रचनाओं से परिचय थोड़ी देर से
हुआ। उनके देहांत के समय वह किशोर उम्र की थीं। वह कहती हैं,’बड़ी होने पर मैंने पाया कि दादा जी की रचनाओं में इतनी गहराई
और भावुकता है कि कहानी पढ़ते समय अनायास ही आंखें छलक जाती हैं। दादा जी मसलों की
तह में जाते थे। उनकी रचनाएं इंटरनेशनल रायटर के संगत में रखी जाती हैं। मैंने जब
उनकी कहानियां पढ़नी शुरू कीं तो मुझे ‘लाजवंती’ कुछ खास लगी। मुमकिन है नाम की वजह से ऐसा हुआ हो। कहानी
पढ़ने पर आप पाएंगे कि इस उन्होंने पार्टीशन की बड़ी घटना को दस पृष्ठों में
समेट लिया है। वे मसले की सतह पर नहीं रहते। वे उसकी तह में जाते हैं। मुझे आश्चर्य
हुआ कि उन्होंने इस पर फिल्म क्यों नहीं बनाई ? कहानी
का शीर्षक लाजवंती है,लेकिन इसे सुंदरलाल के दृष्टिकोण से लिखा गया है। मैंने
धारावाहिक के लिए इस कहानी का विस्तार किया है।उस समय को चित्रित किया है। मैंने पंक्तियों
के बीच में छिपी कहानी और शब्दों में व्यक्त किरदारों के मिजाज को पकड़ा है।‘
इला बताती
हैं,’पार्टीशन के समय के इन किरदारों को
मैंने कहानी से ही समझा। कहानी में जिक्र आता है,जहां लाजवंती की तुलना पारा से की
गई है। हाथ लगाने से कुम्हला जाती है लाजवंती। लाजवंती एक शादी में गाती है कि
मैं शहर के लड़के से शादी नहीं करूंगी। वे तो बूट पहनते हैं और मेरी कमर इतनी पतली
है। यहां से मुझे सुंदरलाल का कैरेक्टर मिल गया। मैंने इसे सीरियल और आज के
दर्शकों के हिसाब से विस्तार दिया है। सुंदरलाल को मैंने मैट्रोसेक्सुअल रखा है।
वह लाहौर का है। सभी जानते हैं कि पार्टीशन के पहले लाहौर हिंदुस्तान का माडर्न
शहर था। हमारी फिल्म इंडस्ट्री वहां थी। वह विभिन्न संस्कृतियों का मेल्टिंग
पॉट था।‘
इला जानती
हैं कि फिल्म और टीवी में पार्टीशन के विषय को कम छुआ गया है। वजह पूछने पर वह
कहती हैं,’ पार्टीशन एक घाव है। घाव भर गए
हैं,लेकिन दिल अभी भी जख्मी हैं। यह बेदी जी की लाइन है। पार्टीशन की कहानियां उस
घाव को कुरेद देती हैं। शायद इस वजह से फिल्मकार बचते रहे हैं। फिल्मों में वे
फिर से उन दिनों का नहीं देखना-दिखाना चाहते। ‘लाजवंती’ की कहानी आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। यह स्त्री-पुरूष
के रिश्तों की कहानी है। आज भी पुरूष को पता चले कि उसकी औरत किसी दूसरे मर्द के
साथ किसी कारणव श रह कर आई है तो क्या वह
उसे छू पाएगा ? उसके दिमाग में क्या चलता रहेगा ? ‘लाजवंती’ इसलिए भी प्रासंगिक है कि
जब-जब जंग हुई,कयामत औरतों पर ही आई है। आज भी जहां युद्ध हो रहे हैं,वहां आप
लाजवंती और सुंदरलाल का पा सकते हैं। ‘लाजवंती’ में अंकिता शर्मा शीर्षक भूमिका में हैं। सुंदरलाल की भूमिका
सिड मक्कड़ निभा रहे हैं। इसकी शूटिंग पंजाब के पटियाला और कश्मीर के पहलगाम में
हुई है। बाद में वागह भी जाना है। अभी फिल्मसिटी में सेट लगाया गया है। वहां हम
ने पंजाब रचा है। ‘
1 सितंबर को
राजिन्प्दर सिंह बेदी का जन्मदिन था। इस साल उनकी जन्मसदी मनायी जा रही है।‘
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