फिल्म समीक्षा : मांझी- द माउंटेन मैन
-अजय ब्रह्मात्मज
दशरथ मांझी को उनके जीवन काल में गहरोल गांव के बच्चे पहाड़तोड़ुवा कहते
थे। दशरथ माझी को धुन लगी थी पहाड़ तोड़ने की। हुआ यों था कि उनकी पत्नी
फगुनिया पहाड़ से गिर गई थीं और समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाने की वजह से
प्रसव के दौरान मर गई थीं। तभी मांझी ने कसम खाई थी कि वे अट्टहास करते
पहाड़ को तोड़ेंगे।
रास्ता बनाएंगे ताकि किसी और को शहर पहुंचने में उन जैसी तकलीफ से नहीं
गुजरना पड़े। उन्होंने कसम खाई थी कि ‘जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे
नहीं’। उन्होंने अपनी जिद पूरी की। इसमें 22 साल लग गए।
उन्होंने वजीरगंज को करीब ला दिया। पहाड़ तोड़ कर बनाए गए रास्ते को आजकल
‘दशरथ मांझी मार्ग’ कहते हैं। बिहार के गया जिले के इस अनोखे इंसान की कद्र
मृत्यु के बाद हुई। अभी हाल में उनकी पुण्यतिथि के मौके पर जब फिल्म यूनिट
के सदस्य बिहार गए तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कार्यक्रम
में हिस्सा लिया।
उनके नाम पर चल रही और आगामी योजनाओं की जानकारी दी। दलित नायक के प्रति
जाहिर इस सम्मान में कहीं न कहीं आगामी चुनाव का राजनीतिक दबाव भी रहा
होगा। बहरहाल, संभवत: ‘मांझी-द माउंटेन मैन’ हिंदी सिनेमा में दूसरी
बॉयोपिक है, जो किसी दलित नायक पर बना है। पहली बॉयोपिक डॉ.अंबेडकर पर है।
दशरथ मांझी के इस बायोपिक में निर्देशक केतन मेहता ने गहरोल के समाज की
पृष्ठभूमि ली है। जमींदार के अन्याय और अत्याचार के बीच चूहे खाकर जिंदगी
चला रहे मांझी के परिवार पर तब मुसीबत आती है, जब दशरथ को उसका पिता रेहन
पर देने की पेशकश करता है। दशरथ राजी नहीं होता और भाग खड़ा होता है। वह
कोयला खदानों में सात सालों तक काम करने के बाद लौटता है। इस बीच गांव में
कुछ नहीं बदला है। हां, सरकार ने छुआछूत खत्म करने की घोषणा कर दी है। दशरथ
की खुशी तुरंत ही खत्म हो जाती है, जब जमींदार के लोग उसकी इसी वजह से
धुनाई कर देते हैं। दशरथ मांझी किसी तरह गुजर-बसर कर रहा है। इसी बीच
दुर्घटना में उसकी पत्नी का निधन हो जाता है। यह फिल्म दशरथ के प्रेम और
संकल्प की कहानी है। दशरथ तमाम विपरीत स्थितियों में भी अपने संकल्प से
नहीं डिगता। वह पहाड़ तोड़ने में सफल होता है।
दशरथ मांझी के प्रेम और जिद में एक सामुदायिकता है। वह अपने समुदाय और गांव
के लिए रास्ता बनाने का फैसला लेता है। इस फैसले में उसकी बीवी फगुनिया
उत्प्रेरक का काम करती है। लेखक-निर्देशक मनोरंजन की गरज से इस सामुदायिकता
पर फोकस नहीं करते। वे दशरथ और उसकी बीवी फगुनिया के बीच के प्रेम और
अंतरंग दृश्यों में रमते हैं। वे फगुनिया के शरीर का इस्तेमाल करते हें। इस
कोशिश में फिल्म भटकती है। दोनों की प्रेमकथा रूहानी से अधिक जिस्मानी हो
जाती है। हां,फगुनिया की मौत के बाद दशरथ की जिद और जोश के चित्रण में
फिल्म उस सामुदायिकता की ओर लौटती है।
यह फिल्म पूरी तरह से नवाजुद्दीन सिद्दीकी के कंधों पर टिकी है। उन्होंने
शीर्षक भूमिका के महत्व का खयाल रख है। उन्हें युवावस्था से बुढ़ापे तक के
मांझी के चरित्र को निभाने में अनेक रूपों और भंगिमाओं को आजमाने का मौका
मिला है। उन्होंने मांझी के व्यक्तित्व को समझने के बाद उसे प्रभावशाली
तरीके से पर्दे पर उतारा है।
राधिका दी गई भूमिका के साथ न्याय करती हैं। उनके चरित्र को ढंग से विकसित
नहीं किया गया है। फिल्म के बाकी किरदार गौण है। पंकज त्रिपाठी, तिंग्मांशु
धूलिया और प्रशांत नारायण पिछली पहचानों की वजह से याद रहते हैं। केतन
मेहता ने परिवेश और माहौल के लिए मांझी के गांव और उस पहाड़ को ही चुना है।
उससे एक विश्वसनीयता बनती है। परिवेश का धूसर रंग कथा के भाव को गाढ़ा
करता है।
’मांझी: द माउंटेन मैन’ में संवादों की भाषा किरदारों के अनुरूप नहीं है।
खास कर उसकी अदायगी पर उचित ध्यान नहीं दिया गया है। अगर आप उस क्षेत्र से
परिचित हैं, तो फिल्म की भाषा अखरती है।
अवधिः 124 मिनट
*** 1/2 साढ़े तीन स्टार
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