मायानगरी के दिल में धड़क रही दिल्‍ली - मिहिर पांड्या

मिहिर ने यह लेख मेरे आग्रह पर फटाफट लिखा है। मिहिर ने शहर और सिनेमा पर शोधपूर्ण कार्य और लेखन किया है। फिल्‍मों के प्रति गहन संवेदना और समझ के साथ मिहिर लिख रहे हैं और अच्‍छा लिख रहे हैं। 

-मिहिर पांड्या 

दिल्ली पर बीते सालों में बने सिनेमा को देखें तो दिबाकर बनर्जी का सिनेमा एक नया प्रस्थान बिन्दु नज़र अाता है। लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में दिल्ली के एकाधिकार के मज़बूत होने का भी यही प्रस्थान बिन्दु है, जिसके बाद दिल्ली को केन्द्र में रखकर बनने वाली फ़िल्मों की बाढ़ अा गई। इसके पहले तक दिल्ली शहर की हिन्दी सिनेमा में मौजूदगी तो सदा रही, लेकिन उसका इस्तेमाल राष्ट्र-राज्य की राजधानी अौर शासन सत्ता के प्रतीक के रूप में होता रहा। राजकपूर द्वारा निर्मित पचास के दशक की फ़िल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' में वो अन्याय के खिलाफ़ अाशा की किरण बन गई तो सत्तर के दशक में यश चोपड़ा की 'त्रिशूल' में वो नाजायज़ बेटे के पिता से बदले का हथियार। इस बीच 'तेरे घर के सामने' अौर 'चश्मेबद्दूर' जैसे अपवाद भी अाते रहे जिनके भीतर युवा अाकांक्षाअों को स्वर मिलता रहा।

लेकिन दिबाकर बनर्जी की 2006 में अाई 'खोसला का घोंसला' लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में दिल्ली को देखने की नई नज़र लेकर अाई। दिबाकर ने दिल्ली के साथ जुड़ी इतिहास अौर सत्ता की पुरानी जड़ पहचान से अपने सिनेमा को बाहर निकालने के लिए एक मज़ेदार काम किया। उन्होंने दिल्ली के तमाम जाने-पहचाने विज़ुअल प्रतीकों को अपनी फ़िल्म से बाहर कर दिया। उनकी दिल्ली में ना इंडिया गेट दिखाई देता है ना राष्ट्रपति भवन। ना कुतुब मीनार दिखाई देता है ना लाल किला। ऐसा कर दिबाकर दिल्ली शहर का अाम जनमानस अौर उसके भीतर मौजूद रोज़मर्रा की गैर बराबरियाँ दर्शकों के सामने ला पाए। 'खोसला का घोंसला' एक सामान्य से दिखते शहरी मध्यमवर्गीय परिवार की कथा है जिसकी एकमात्र ख्वाहिश रिटायरमेंट के बाद 'साउथ दिल्ली' में अपना तिमंज़िला मकान है।  उनकी दूसरी फ़िल्म दिल्ली की अवैध कॉलोनियों में बसे निम्न मध्यमवर्गीय शहर का अब तक अनदेखा चित्र है। 'अोये लक्की लक्की अोये' अाधुनिक शहरी संरचना के केन्द्रीय तत्व 'नागरिक समाज' की अालोचना है अौर इस सभ्य दिखते ढांचे के भीतर मौजूद अमानवीयता को एक चोर की कथा के माध्यम से उजागर करती है। दिबाकर के साथ अाई निर्देशकों की नई पीढ़ी में ज़्यादातर दिल्ली में पढ़े थे अौर उनकी अपने सिनेमा में दिल्ली की अोर परागमन की यह भी एक वजह रही।

दिबाकर के बाद हबीब फैज़ल हैं। 'दो दूनी चार' तथा 'बैंड बाजा बरात' में उन्होंने दिल्ली के मध्यवर्गीय जीवन अौर उनकी अाकांक्षाअों को अपने सिनेमा की कथाअों में पिरोया। 'दो दूनी चार' एक प्राइवेट स्कूल में गणित पढ़ाने वाले मास्टर की कथा है जो समाज में सम्मान हासिल करने के लिए एक अदद कार खरीदना चाहता है। 'बैंड बाजा बरात' के युवा शादी करवाने के बिज़नस के चैम्पियन बन 'जनकपुरी' से 'सैनिक फॉर्म' का उर्ध्वगामी सफ़र तय करना चाहते हैं। इसके साथ इंडी सिनेमा के सबसे बड़े नाम अनुराग कश्यप हैं जिनकी 'देव डी' में पहाड़गंज की अंधेरी गलियाँ पतनशील कलकत्ता का अाधुनिक प्रतीक बन जाती हैं। इम्तियाज़ अली की 'लव अाजकल' अौर 'रॉकस्टार' जैसी फ़िल्मों में दिल्ली प्रेम के पनपने, परवान चढ़ने अौर दिल के टूट जाने का शहर है। जैसे ये फ़िल्में उनके द्वारा अपने पुराने शहर को लिखे प्रेमपत्र हों। राकेश अोमप्रकाश मेहरा की 'दिल्ली 6' भी शहर में अाधुनिकता अौर परंपरा के संगम अौर सामुदायिकता के भाव की गहराई को दिखाती है। राजकुमार गुप्ता 'नो वन किल्ड जेसिका' में दिल्ली शहर के भीतर मौजूद सत्तातंत्र का बदसूरत चेहरा परदे पर लेकर अाते हैं तो साथ ही साथ उसके ख़िलाफ़ अाम अादमी का दुस्साहसी प्रतिरोध भी उनकी फ़िल्म का केन्द्रीय तत्व है।

बीते दस सालों में दिल्ली शहर के हिन्दी सिनेमा में केन्द्रीय भूमिका में उभरने के पीछे दिल्ली में काम की तलाश अौर पढ़ाई के सिलसिले में अाई बड़ी प्रवासी अाबादी का भी योगदान है। 2011 की जनगणना के अांकड़ों के अनुसार दिल्ली की अाबादी में बीते दो दशकों में 70 लाख से ज़्यादा का इज़ाफ़ा हुअा है। इसमें गुड़गाँव, नोयडा अौर गाज़ियाबाद जैसी एनसीअार इलाकों की अाबादी को भी जोड़ लें तो अांकड़ा अौर बड़ा हो जाता है। इसमें बड़ी संख्या प्रवासी अाबादी की है। इस अाबादी ने दिल्ली के एक पंजाबी कल्चर वाला शहर भर होने के मिथ को तोड़ा है अौर थोड़ा सा यूपी, बिहार, हरियाणा, राजस्थान दिल्ली के परिदृश्य अौर यहाँ के साँस्कृतिक माहौल में घोल दिया है। सिर्फ़ उत्तर भारत ही क्यों, अाज दिल्ली उत्तर पूर्वी राज्यों से पढ़ने अाने वाले छात्रों की भी पहली पसन्द है। एक बड़ी तिब्बती शरणार्थी अाबादी भी दिल्ली में निवास करती है। अाज का दिल्ली शहर न सिर्फ़ देश की राजधानी है, यह हिन्दी पट्टी के तमाम राज्यों अौर उनकी संस्कृतियों का प्रतिनिधि शहर भी है।

लोकप्रिय सिनेमा भी शहर की इस विविधरंगी पहचान का भरपूर उपयोग करता है। लेखक हिमांशु जोशी अौर निर्देशक अानंद एल राय की फ़िल्में इसकी बेहतर मिसाल हैं। हाल में अाई सुपरहिट 'तनु वेड्स मनु रिटर्न' में झज्जर से दिल्ली के रामजस कॉलेज में पढ़ने अाई कुसुम सांगवान के किरदार के माध्यम से उन्होंने हरियाणा की बोली-बानी को दिल्ली में जीवित कर दिया। इससे पहले भी 'रांझना' में लेखक निर्देशक की यह जोड़ी बनारस अौर पंजाब के भिन्न परिवेश से अाए किरदारों का प्रेम जेएनयू जैसे अाधुनिक विश्वविद्यालय में परवान चढ़ता दिखा चुकी है। राजकुमार हीरानी निर्देशित अौर अामिर ख़ान द्वारा अभिनीत 'थ्री इडियट्स' अौर उन्हीं द्वारा निर्मित 'डेल्ही बेली' में तिब्बती मूल के पात्रों को केन्द्रीय भूमिका में उपयोग किया गया है अौर इसके लिए भी दिल्ली ही मुख्य घटनास्थल चुना गया। जूही चतुर्वेदी लिखित तथा शुजित सरकार निर्देशित 'विक्की डोनर अौर 'पीकू' जैसी फ़िल्में भी शहर में होते इसी साँस्कृतिक अादान-प्रदान से उपजी हैं। दिल्ली के भीतर ही 'सी अार पार्क' में बंगाल अौर 'लाजपत नगर' में पंजाब की भिन्न संस्कृतियाँ अपना घर बनाए हैं अौर जूही की लिखी फ़िल्मों में वो पब्लिक ट्रांसपोर्ट से लेकर बैंक तक किसी भी सार्वजनिक स्थान पर अापस में टकरा जाती हैं। अौर शुरू हो जाता है अागे जाकर प्यार में बदल जानेवाला वो अात्मीय संवाद, जिसके सिरे दो किरदारों को ही नहीं दो भिन्न जीवनशैलियों को भी अापस में जोड़ देते हैं।

देश का टेलिविज़न मीडिया भी दिल्ली केन्द्रित है अौर यह भी सिनेमा में दिल्ली का प्रतिनिधि बन जाता है। 'रँग दे बसंती', 'रण', 'पा', 'पीपली लाइव', 'नो वन किल्ड जेसिका' अौर हालिया 'पीके' जैसी फ़िल्में इसका उदाहरण हैं। चौबीसों घंटे के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने दिल्ली के विज़ुअल रिप्रेज़ेंटेशन को भारतभर के दर्शकों की नज़र में ज़्यादा सहज बना दिया है। टेलिविज़न की यह महाकाय उपस्थिति कई बार अति की हद तक भी पहुँच जाती है अौर लगता है कि दिल्ली से बाहर की हर महत्वपूर्ण खबर जैसे हाशिए पर पटक दी गई है। लेकिन यह भी एक कारण है कि दिल्ली में अपनी फ़िल्म की कथा को बेस करना अब निर्देशक को अखिल भारतीय पहचान हासिल करने के लिए सबसे उपयुक्त लगता है। दिल्ली शहर की सम्पूर्ण भारत के लिए, या कम से कम उत्तर भारत के लिए प्रतिनिधि किरदार के तौर पर अखिल भारतीय स्वीकृति परेशानी पैदा करनेवाली तो है, लेकिन इस तथ्य को जाने अौर समझे बिना दिल्ली की हालिया सिनेमा में उपस्थिति के पेंच खोलना मुश्किल होगा। बीते सालों में दिल्ली शहर जैसे उत्तर भारत के अन्य नगरों के लिए एक पिट-स्टॉप बन गया है।



Comments

veethika said…
चूँकि फ़िल्म लेखन मेरा भी विषय है अत: उत्सुकता से लेख पढ़ा। पसंद आया। मिहिर पाड्या फ़िल्मों पर मेरे पसंददीदा लेखक हैं।
chavannichap said…
संपर्क करें और आप भी चवन्‍नी के लिए लिखें।

brahmatmaj@gmail.com

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