दरअसल : कास्टिंग के बदलते तरीके



Jul 10




-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों आमिर खान ने अपने होम प्रोडक्शन की आगामी फ़िल्म के लिए सोशल मीडिया पर जानकारी दी कि उन्हें 12 से 17 साल की उम्र के बीच की एक लड़की चाहिए,जो गा भी सकती हो। उन्हें रोज़ाना हज़ारों की तादाद में वीडियो मिल रहे हैं। उन्होंने सभी से वीडियो ही मंगवायें हैं। कहना मुश्किल है कि इस तरीके से उनकी फ़िल्म की कास्टिंग का काम आसान होगा या काम बढ़ जायेगा? विकल्प ज्यादा हों तो चुनाव कठिन हो जाता है। इन दिनों आये दिन फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया साइट पर फिल्मों के लिए उपयुक्त कलाकारों की खोज जारी है। कुछ कलाकारों को काम भी मिल रहा है। मुख्य भूमिकाओं के लिए अवश्य निर्देशक के दिमाग में पॉपुलर स्टार या परिचित एक्टर रहते हैं। बाकी  सहयोगी भूमिकाओं के लिए अब पहले की तरह चाँद कलाकारों में से चुनाव नहीं करना पड़ता।
दस साल पहले की फिल्मों को देखें तो स्पष्ट पता चलता है और फ़र्क़ दीखता है।पहले की फिल्मों में किरदारों के लिए कलाकार सुनिःचित से हो गए थे।मसलन पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में इफ्तखार का आना। माँ हैं तो निरुपा राय ही दिखेंगी। ऐसे ही दोस्त,मां,चाचा और बाकी किरदारों के लिए भी कलाकार तय रहते थे। इस परंपरा के अपने लॉजिक थे। पुराने निर्देशक बताते हैं कि कलाकारों से किरदारों को तुरंत पहचान मिल जाती थी। उन किरदारों को स्थापित करने के लिए दृश्यों की ज़रुरत नहीं पड़ती थी। उनकी बात में सच्चाई दिखती है। हम प्राण या नासिर हुसैन को देखते ही अनुमान लगा लेते थे कि कैसा पिता होगा। यह बात पहले के स्टारों के साथ भी जुडी थी। सभी की अलग इमेज होती थी और वे सभी अपनी इमेज से निकलने की कोई कोशिश नहीं करते थे। अभी के स्टार प्रयोगशील हो गए हैं। इसकी एक  बड़ी वजह यही है कि अब उनकी काटिंग की जाती है। उनका ऑडिशन लिया जाता है यानि जांच जाता है क़ि वे रोल में सही लगेंगे या नहीं? फिल्मों के कास्टिंग डायरेक्टर इस काम में डायरेक्टर की मदद करते हैं।
आजकल फिल्मों के पोस्टर में कास्टिंग डायरेक्टर के नाम आने लगे हैं। वे फ़िल्म निर्माण का ज़रोइरि हिस्सा हो गए हैं। पहले भी कलकारों के चुनाव में सावधानी बरती जाती थी,लेकिन निर्देशकों के पास अधिक विकल्प नहीं रहते थे। ज्यादातर परिचित और प्रचलित कलाकारों से ही काम चलाना पड़ता था। कास्टिंग डायरेक्टर द्वारा कलाकारों के चुनाव को प्रक्रिया को समझना रोचक होगा। 'चिल्लर पार्टी' के लिए बाल कलाकारों को चुनने में मुकेश छाबड़ा 9000 बच्चों से मिले। 'दंगल' में आमिर खान की बेटियों की भूमिकाओं के लिए कलाकार फाइनल करने में मुकेश छाबड़ा को 21000 लड़कियों से मिलना पड़ा। मुकेश छाबड़ा ने कास्टिंग के काम को इज़्ज़त दिलवाई और उसे नए मुकाम पर ले आए। उनकी पहल और पहचान से कलाकारों के साथ ही फ़िल्म यूनिट का काम सुगम हुआ है। दर्शकों को फ़िल्म देखते हुए अधिक मज़ा आता है क्योंकि पता नहीं रहता कि कलाकार का क्या व्यवहार रहेगा। उनके अप्रत्याशित व्यवहार चौंकाते हैं। सबसे बड़ी बात कि नए कलाकारों को मौके मिल रहे हैं।पिछले 10 सालों में प्रति फ़िल्म नए कलाकारों की संख्या बढ़ी है।
नए कलाकारों को यह शिकायत हो सकती है कि फिल्मों में उनकी सेल्फ लाइफ कम हो गयी है। पहले पहचान मिलने पर कैरियर सुरक्षित हो जाता था। अभी ऐसा नहीं है। इस परिवर्तन की वजह से अब किरदारों की पहचान कलाकारों पर हावी रहती है। पहले कलाकारों से हम किरदारों को समझ लेते थे। अब ऐसा नहीं हो पता। निर्देशक भी नए किरदार पेश कर रहे हैं। एक तरह से ज़िन्दगी की विविधता फिल्मों में झलक रही है। किरदार एक-दूसरे से अलग हो रहे हैं।
विदेशों में कास्टिंग की लंबी परंपरा रही है। भारत में पहली बार शेख कपूर की फ़िल्म 'बैंडिट क्वीन" के समय कास्टिंग और ऑडिशन जैसे शब्द सुनाई पड़े थे।। उसकी कास्टिंग तिग्मांशु धुलिया ने की थी। तब से एक लम्बे सफ़र के बाद फ़िल्म निर्माण के इस पक्ष पर सभी का ध्यान गया है।

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