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Showing posts from August, 2015

दरअसल : ट्रेलर लांच के दुखद पहलू

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     पहले केवल फिल्‍म आरंभ होने के पहले ट्रेलर दिखाए जाते थे। चल रही फिल्‍म के साथ आगामी फिल्‍म के इन ट्रेलर का बड़ा आकर्षण होता था। दर्शकों को फिल्‍मों की झलक मिल जाती थी। मुझे लगता है कि पहले दर्शक फिल्‍मों को लेकर जजमेंटल नहीं होते थे। वे सभी फिल्‍में देखते थे। प्रति फिल्‍म दर्शकों का प्रतिशत अधिक रहता होगा। इसके समर्थन में मेरे पास कोई सबूत नहीं है। अपने दोस्‍तों और रिश्‍तेदारों के बचपन की बातों से इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा हूं। तब फिल्‍में अच्‍छी या बुरी होने के बजाय अच्‍छी और ज्‍यादा अच्‍छी होती थीं। तात्‍पर्य यह कि दर्शक सीधे फिल्‍में देखते थे। वे उसके प्रचार या मार्केटिंग से प्रभावित नहीं होते थे। तब ऐसा आक्रामक प्रचार भी तो नहीं होता था।     ट्रेलर के बारे में कहा जाता है कि यह पहले फिल्‍में खत्‍म होने के बाद दिखाया जाता था। पीछे दिखए जाने की वजह से इसे ट्रेलर कहा जाता था। प्रदर्शकों और निर्माताओं ने पाया कि दर्शक ट्रेलर देखने के लिए नहीं रुकते। वे फिल्‍में खत्‍म होते ही सीटें छोड़ कर दरवाजे की तरफ निकल जाते हैं। लिहाजा इसे फि...

फिल्‍म समीक्षा : मांझी- द माउंटेन मैन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  दशरथ मांझी को उनके जीवन काल में गहरोल गांव के बच्चे पहाड़तोड़ुवा कहते थे। दशरथ माझी को धुन लगी थी पहाड़ तोड़ने की। हुआ यों था कि उनकी पत्नी फगुनिया पहाड़ से गिर गई थीं और समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाने की वजह से प्रसव के दौरान मर गई थीं। तभी मांझी ने कसम खाई थी कि वे अट्टहास करते पहाड़ को तोड़ेंगे। रास्ता बनाएंगे ताकि किसी और को शहर पहुंचने में उन जैसी तकलीफ से नहीं गुजरना पड़े। उन्होंने कसम खाई थी कि ‘जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं’। उन्होंने अपनी जिद पूरी की। इसमें 22 साल लग गए। उन्होंने वजीरगंज को करीब ला दिया। पहाड़ तोड़ कर बनाए गए रास्ते को आजकल ‘दशरथ मांझी मार्ग’ कहते हैं। बिहार के गया जिले के इस अनोखे इंसान की कद्र मृत्यु के बाद हुई। अभी हाल में उनकी पुण्यतिथि के मौके पर जब फिल्म यूनिट के सदस्य बिहार गए तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कार्यक्रम में हिस्सा लिया। उनके नाम पर चल रही और आगामी योजनाओं की जानकारी दी। दलित नायक के प्रति जाहिर इस सम्मान में कहीं न कहीं आगामी चुनाव का राजनीतिक दबाव भी रहा होगा...

संग-संग : दीया मिर्जा-साहिल संघा

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दीया मिर्जा और साहिल संघा ने अपने प्रेम,विाह और स्‍त्री-पुरुष संबंधों पर खुल कर बातें कीं। यह सीरिज प्रेम के परतें खोलती है।21 वीं सदी में रिश्‍ते के बदलते मायनों के बीच भी प्रेम  स्‍पंदित होता है। - अजय ब्रह्मात्मज साहिल- सच की यह समस्या है कि एक बार बोल दो तो बताने के लिए कुछ नहीं रह जाता है। मैं दिया को एक कहानी सुनाने आया था। उस वक्त उन्हें वह कहानी पसंद आई थी। गलती से मैं भी पसंद आ गया था। तभी दीया ने अपनी कहानी सुनाई थी। उस कहानी पर भी मैं काम कर रहा था। स्क्रिप्ट लिखने के समय स्वाभाविक तौर पर हमारा समय साथ में बीत रहा था और हमारे कुछ समझने के पहले ही जैसा कि कहा जाता है कि ‘ होना था प्यार , हो गया ’ । दीया:- वह एक लव स्टोरी थी। बहुत ही संवेदनशील किरदार थे उस कहानी के। इनके लिखने में जिस प्रकार की सोच प्रकट हो रही थी , वह सुनते और पढ़ते हुए मेरा दिल इन पर आ गया। फिल्म इंडस्ट्री में इतना समय बिताने के बाद हम यह जानते हैं कि लोग कैसे सोचते हैं और क्या बोलते हैं ? किस मकसद से कहानियां लिखी जाती हैं ? ऐसे में कोई एक अनोखा इंसान ऐसी कहानी और खूबसूरत सोच लेकर आ जाता...

मायानगरी के दिल में धड़क रही दिल्‍ली - मिहिर पांड्या

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मिहिर ने यह लेख मेरे आग्रह पर फटाफट लिखा है। मिहिर ने शहर और सिनेमा पर शोधपूर्ण कार्य और लेखन किया है। फिल्‍मों के प्रति गहन संवेदना और समझ के साथ मिहिर लिख रहे हैं और अच्‍छा लिख रहे हैं।  -मिहिर पांड्या  दिल्ली पर बीते सालों में बने सिनेमा को देखें तो दिबाकर बनर्जी का सिनेमा एक नया प्रस्थान बिन्दु नज़र अाता है। लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में दिल्ली के एकाधिकार के मज़बूत होने का भी यही प्रस्थान बिन्दु है, जिसके बाद दिल्ली को केन्द्र में रखकर बनने वाली फ़िल्मों की बाढ़ अा गई। इसके पहले तक दिल्ली शहर की हिन्दी सिनेमा में मौजूदगी तो सदा रही, लेकिन उसका इस्तेमाल राष्ट्र-राज्य की राजधानी अौर शासन सत्ता के प्रतीक के रूप में होता रहा। राजकपूर द्वारा निर्मित पचास के दशक की फ़िल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' में वो अन्याय के खिलाफ़ अाशा की किरण बन गई तो सत्तर के दशक में यश चोपड़ा की 'त्रिशूल' में वो नाजायज़ बेटे के पिता से बदले का हथियार। इस बीच 'तेरे घर के सामने' अौर 'चश्मेबद्दूर' जैसे अपवाद भी अाते रहे जिनके भीतर युवा अाकांक्षाअों को स्वर मिलता रहा। ...

फिल्‍म समीक्षा : ब्रदर्स

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-अजय ब्रह्मात्‍मज           अशोक लोखंडे, किरण कुमार और आशुतोष राणा ‘ब्रदर्स’ के अहम कलाकार हैं। छोटी और सहयोगी भूमिकाओं में आए ये कलाकार फिल्म के मुख्यि कलाकारों अक्षय कुमार, सिद्घार्थ मल्होत्रा और जैकी श्रॉफ के निखरने में मददगार रहे। जैकलीन फर्नांडिस के बदले कोई और अभिनेत्री रहती तो फिल्मी का इमोश्नेल प्रभाव और बढ़ता। खुशी में उछलने और दुख में माथा पीटने की एक्टिंग उन्होंने की है। मुमकिन है निर्देशक ने उनकी क्षमता को देख कर यही करने को कहा हो। ‘ब्रद्रर्स’ हालीवुड फिल्म ‘वॉरियर’(2011) की रीमेक है। निर्देशक करण मल्होत्रा ने 2012 में अमिताभ बच्चन की 1990 की फिल्म ‘अग्निपथ’ की रीमेक बनाई थी, जिसमें रितिक रोशन थे। रीमेक फिल्मों में निर्देशक की मौलिकता इतनी ही रहती है कि वह मूल के करीब रहे और उसकी लोकप्रियता को भुना सके। पिछली बार ‘अग्निपथ’ में करण मल्होेत्रा सफल रहे। इस बार ‘ब्रद्रर्स’ के लिए वही बात नहीं कही जा सकती।               ‘ब्रदर्स’ नाम के अनुरूप दो भाइयों मोंटी और ...

दरअसल : हिंदी प्रदेशों में सिनेमा और सरकार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     आए दिन उत्‍तर प्रदेश के अखबारों में फिल्‍म कलाकारों के साथ वहां के मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव की तस्‍वीरें छप रही हैं। नीचे जानकारी रहती है कि फलां फिलम को टैक्‍स फ्री कर दिया गया। टैक्‍स फ्री करने से फिल्‍म निर्माताओं को राहत मिलती है। उन्‍हें थोड़ा लाभ भी होता है। उत्‍तर प्रदेश सरकार फिल्‍मों को बढ़ावा देने के साथ प्रदेश की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अनुदान भी देती है। अगर किसी फिल्‍म की उत्‍तर प्रदेश में शूटिंग की गई हो तो प्रतिशत के हिसाब से अनुदान दिया जाता है। मसलन 75 प्रतिशत फिल्‍म उत्‍तर प्रदेश में शूट की गई हो तो दो करोड़ और 50 प्रतिशत पर एक करोड़ का अनुदान मिलता है। हिंदी फिल्‍में अभी जिस आर्थिक संकट से गुजर रही हैं,उस परिप्रेक्ष्‍य में ऐसे अनुदान का महत्‍व बढ़ जाता है। उत्‍तर प्रदेश में फिल्‍मों से जुड़ी सारी गतिविधियां फिल्‍म विकास परिषद के तहत हो रही हैं। इन्‍हें विशाल कपूर और यशराज सिंह देखते हैं। कहा जा सकता है कि मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्‍व में यह अनुकरणीय काम हो रहा है। बाकी हिंदी प्रदेशों को भी सबक लेना चाहिए। ...

जोशीले इंसान की प्रेमकहानी है माझी - केतन मेहता

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-अजय ब्रह्मात्‍मज       दशरथ माझी के जीवन पर आधारित केतन मेहता की फिल्‍म ‘माझी-द माउंटेनमैन’ एक आम आदमी की बॉयोपिक है,जिसने अपने जिद और जोश से पहाड़ को काटा। अपने गांव-समुदाय के लिए उसने वह असंभव काम किया,जो आज भी चकित करता है। दशरथ माझी की मृत्‍यु के बाद उनकी कहानी देश भर में छपी तो अनेक फिल्‍मकारों ने उनमें रुचि दिखाई। उनके जीवन पर फिल्‍म बनाना पहाड़ काटने की तरह ही मुश्किल रहा। केतन केहता ने यह मुश्किल हल की। उन्‍होंने नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्‍टे के साथ साहसी व्‍यक्ति की गाथा को प्रेमकहानी के रूप में निरूपित किया। -माझी को किस रूप में प्रेजेंट करने जा रहे हैं ? 0 माझी हमारे देश के सुपरमैन हैं। वह एक फैंटेसी फिगर हैं। उन्‍हें आप रियल लाइफ सुपरहीरो कह सकते हें। ‘माझी’ आवेशपूर्ण प्रेमकहानी है। विजय की प्रेरक कहानी है। एक तरफ इश्‍क की दीवानगी है और दूसरी तरफ कुछ कर गुजरने का जुनून है। इनके बीच पहाड़ काट कर रास्‍ता बनाने   की जिद है। नामुमकिन को मुमकिन बनाने का जज्‍बा है। यह बहुत ही पावरुुल कहानी है। - आप के जीवन में माझी कै...

यादगार रहा है 15 सालों का सफर : अभिषेक बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्मज अभिनेता अभिषेक बच्चन ने हाल ही में फिल्म इंडस्ट्री में 15 साल पूरे किए हैं। 30 जून 2000 को उनकी पहली फिल्म जेपी दत्ता निर्देशित ‘रिफ्यूजी’ रिलीज हुई थी। उनकी उमेश शुक्ला निर्देशित ‘ऑल इज वेल’ 21 अगस्त को रिलीज होगी।         15 सालों के सफर यादगार और रोलरकोस्टर राइड रहा। उस राइड की खासियत यह होती है कि सफर के दरम्यान ढेर सारे उतार-चढ़ाव, उठा-पटक आते हैं, पर आखिर में जब आप उन मुश्किलों को पार कर उतरते हैं तो आप के चेहरे पर लंबी मुस्कान होती है। मेरा भी ऐसा ही मामला रहा है। मुझे बतौर अभिनेता व इंसान परिपक्व बनाने में ढेर सारे लोगों का योगदान रहा है। आज मैं जो कुछ भी हूं, उसमें बहुत लोगों की भूमिका है।     शुरुआत रिफ्यूजी और जे.पी.दत्ता साहब से करना चाहूंगा। पिछले 15 सालों के सफर में सबसे यादगार लम्हे रिफ्यूजी की स्क्रीनिंग के पल के थे। मुझे याद है मैं जून के आखिरी दिनों में मनाली में ‘शरारत’ की शूटिंग कर रहा था। मुझे ‘रिफ्यूजी’ की स्क्रीनिंग के लिए आना था, पर ‘शरारत’ में भी बड़ी स्टारकास्ट थी। हमारे डायरेक्टर गुरुदेव भल्ला न...

दरअसल : कास्टिंग के बदलते तरीके

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Jul 10 -अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों आमिर खान ने अपने होम प्रोडक्शन की आगामी फ़िल्म के लिए सोशल मीडिया पर जानकारी दी कि उन्हें 12 से 17 साल की उम्र के बीच की एक लड़की चाहिए,जो गा भी सकती हो। उन्हें रोज़ाना हज़ारों की तादाद में वीडियो मिल रहे हैं। उन्होंने सभी से वीडियो ही मंगवायें हैं। कहना मुश्किल है कि इस तरीके से उनकी फ़िल्म की कास्टिंग का काम आसान होगा या काम बढ़ जायेगा? विकल्प ज्यादा हों तो चुनाव कठिन हो जाता है। इन दिनों आये दिन फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया साइट पर फिल्मों के लिए उपयुक्त कलाकारों की खोज जारी है। कुछ कलाकारों को काम भी मिल रहा है। मुख्य भूमिकाओं के लिए अवश्य निर्देशक के दिमाग में पॉपुलर स्टार या परिचित एक्टर रहते हैं। बाकी  सहयोगी भूमिकाओं के लिए अब पहले की तरह चाँद कलाकारों में से चुनाव नहीं करना पड़ता। दस साल पहले की फिल्मों को देखें तो स्पष्ट पता चलता है और फ़र्क़ दीखता है।पहले की फिल्मों में किरदारों के लिए कलाकार सुनिःचित से हो गए थे।मसलन पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में इफ्तखार का आना। माँ हैं तो निरुपा राय ही दि...

दरअसल : करीना और अभिषेक के 15 साल

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-अजय ब्रह्मात्मज     30 जून 2000 को जेपी दत्ता की फिल्म ‘रिफ्यूजी’ रिलीज हुई थी। 2000 की अनेक बड़ी फिल्मी घटनाओं में यह भी एक महत्वपूर्ण घटना थी। अमिताभ बच्चन-जया भादुड़ी के बेटे अभिषेक बच्चन और रणधीर कपूर-बबीता की बेटी करीना कपूर की जोड़ी एक साथ पर्दे पर आ रही थी। कुछ पाठकों को यह याद होगा कि तब बच्चन परिवार और कपूर परिवार में खास नजदीकी व गर्माहट थी। अभिषेक बच्चन और करिश्मा कपूर के बीच रोमांस चल रहा था। इस रोमांस की पृष्ठभूमि में ‘रिफ्यूजी’ की रिलीज रोचक और रोमांचक हो गई थी। फिल्म स्टारों के बेटे-बेटियों की लांचिंग फिल्मों से इतर जेपी दत्ता ने भिन्न फिल्म बनाने की कोशिश की थी,जिसे उनके शोकेस के तौर पर नहीं पेश किश गया था।     ‘रिफ्यूजी’ अभिषेक बच्चन और करीना कपूर की यादगार फिल्म है। यादगार सिर्फ इसलिए नहीं है कि यह उन दोनों की पहली फिल्म है। फिल्म में जेपी दत्ता की निर्देशन शैली की अनेक खूबियां हैं। हालंाकि 15 सालों के बाद वे अब पुरानी व गैरजस्री लगती हैं, लेकिन वर्तमान के चलन में हमें अतीत की विशेषताओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। सीमित तकनीकी साधनों मे...