मेनस्ट्रीम स्पेस में ही कुछ कहना है- कबीर खान

-अजय ब्रह्मात्‍मज
कबीर खान हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अनोखे निर्देशक हैं। उनकी मेनस्ट्रीम फिल्मों में कंटेंट की पर्याप्त मात्रा रहती है। वे खुद को राजनीतिक रूप से जागरूक और सचेत फिल्मकार मानते हैं। उनकी फिल्में सबूत हैं। इस बार वे ‘बजरंगी भाईजान’ लेकर आ रहे हैं। उन्होंने झंकार के लिए अजय ब्रह्मात्मज से बातचीत की  ¸ ¸ ¸

-‘बजरंगी भाईजान’ में बजरंगी का सफर सिर्फ भावनात्मक है या उसका कोई राजनीतिक पहलू भी है?
भारत-पाकिस्तान का संदर्भ आएगा तो राजनीति आ ही जाएगी। मेरी कोशिश रहती है कि फिल्मों का संदर्भ रियल हो। मैं मेनस्ट्रीम सिनेमा में रियल बैकड्रॉप की कहानी कहता हूं। बिना राजनीति के कोई इंसान जी नहीं सकता। मुझे राजनीतिक संदर्भ से हीन फिल्में अजीब लगती हैं। राजनीति से मेरा आशय पार्टी-पॉलिटिक्स नहीं है। ‘बजरंगी भाईजान’ में स्ट्रांग राजनीतिक संदर्भ है।
-पहली बार किसी फिल्म इवेंट में आप के मुंह से ‘पॉलिटिक्स ऑफ द फिल्म’ जैसा टर्म सुनाई पड़ा था?
मेरे लिए वह बहुत जरूरी है। अपने यहां इस पर बात नहीं होती। समीक्षक भी फिल्म की राजनीति की बातें नहीं कहते। मैं फिल्म में कोई भी कमी बर्दाश्त कर सकता हूं। फिल्म की पॉलिटिक्स खराब हो तो मैं फिल्म नहीं देख सकता। दुर्भाग्य से लिखते समय विश्लेषण में समीक्षक और फिल्म लेखक उस पर बातें ही नहीं करते, जबकि फिल्म की पॉलिटिक्स सबसे ज्यादा जरूरी चीज है। वह सही हो तो कम से कम फिल्मकार की राजनीति समझ में आए। सहमति-असहमति दीगर बात है। मेरी सर्वाधिक प्रिय फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ है। वह अत्यंत राजनीतिक फिल्म है। उसका एक गहरा असर है। उस फिल्म में घोषित रूप से राजनीति की बातें नहीं हैं, लेकिन वह फिल्म अपनी राजनीति की वजह से सभी को अच्छी लगती हैं। अनेक फिल्मों में क्राफ्ट बेहतर होता है, लेकिन पॉलिटिक्स नहीं रहती। वैसी फिल्में दर्शक भी नहीं देखते। ऐसी फिल्में नहीं चल पातीं।
-फिर ‘बजरंगी भाईजान’ की क्या पॉलिटिक्स है?
सिंपल है। ‘बजरंगी भाईजान’ वास्तव में नेक इंसान होना है। आप किसी भी धार्मिक और राजनीतिक विचार के हों। आप बॉर्डर के इस तरफ हो या उस तरफ... आखिरकार इंसानियत सभी सीमाओं को तोड़ देती है। हम सभी चीजों को देखने-समझने का एक स्टीरियोटाइप बना देते है। उससे हमारी सोच प्रभावित होती है। ‘बजरंगी भाईजान’ इंसानियत की बात करती है। धार्मिक, राजनीतिक, वैचारिक और अन्य सीमाओं से ऊपर उठकर बातें करती है।
- आप ने पाकिस्तान का नाम कब सुना था और क्या धारणा थी?
नाम तो बहुत पहले सुन लिया था। मेरे पिता  रसीद्दुदीन खान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर थे। घर में एकेडेमिक माहौल था। पॉलिटिकल डिस्कसन चलता रहता था। मेरी फिल्मों में भी पॉलिटिक्स रिफ्लेक्ट करता है।
-पाकिस्तान को लेकर समाज में अनेक धारणाएं प्रचलित हैं। खास किस्म की राजनीति उसे हवा भी देती है?
समस्या यह है कि पाकिस्तान का एक पॉलिटिकल क्लास है। उनके काम की जिम्मेदारी हम अवाम पर डाल देते हैं। पाकिस्तान के प्रशासन से मेरे मतभेद हैं। वे बहुत बुरा गेम खेल रहे हैं। वहां के अवाम को हम क्यों बुरा समझें? वे उतने ही परेशान हैं, जितने हम। आतंकवाद से उनका ज्यादा नुकसान हो रहा है। पिछले दस सालों में हमने जितनी जानें गंवाई हैं, उससे कई गुना पाकिस्तान गंवा चुका है। ‘काबुल एक्सप्रेस’ के समय भी यह प्रॉब्लम थी। अफगान सुनते ही टेररिस्ट का ख्याल आता है। तालिबान के हाथों सबसे च्यादा कौन मारे गए- अफगानी। हमें समझना होगा कि देश की राजनीति और देश का अवाम दोनों अलग चीजें हैं। ‘न्यूयॉर्क’ में भी मैंने यही कहने की कोशिश की थी।
-पॉलिटिक्स पर इतना जोर क्यों देते हैं?
वह डॉक्युमेंट्री के दिनों से आया है। मैंने सईद नकवी के साथ काम किया है। पांच सालों में उनके साथ सीएनएन और बीबीसी से अलग नजरिए से घटनाओं को देखने की कोशिश में राजनीतिक समझ बढ़ती गई। दक्षिण एशिया के संदर्भ और दृष्टिकोण से में मैंने सब कुछ देखा। जो हमें बताया जाता है और जो होता है, उन दोनों के बीच से मेरी कहानियां निकलती हैं। मेरी पांचों फिल्में उसी जोन की हैं।
-डॉक्यूमेंट्री से फिल्मों में आने की क्या वजह रही?
मैं वहां सफल था। डॉक्यूमेंट्री बनाने के बाद मुझे लगा कि भारत में उनके लिए स्पेस नहीं है। मेरी फिल्में विदेशों में दिखाई जा रही थीं। उन्हें भारत के दर्शक नहीं मिल रहे थे। मुझे संतोष नहीं हो रहा था। फिर समझ में आया कि मेनस्ट्रीम सिनेमा से बड़ा प्लेटफॉर्म भारत में नहीं है। अपने देश में सिनेमा के माध्यम से कई बातें कहीं जा सकती हैं। मेरा मकसद मेनस्ट्रीम स्पेस में ही कुछ कहना है। वैकल्पिक स्पेस में कुछ कहना या बताना तो जानकारों के बीच ही रहना है। उनकी वाह-वाह से कहीं पहुंचा नहीं जा सकता है। दर्शकों की तलाश में मैं फिल्मों में आया।
-शुरू में दिक्कतें हुई होंगी? यहां आउटसाइडर को जल्दी मौके नहीं मिलते। आप का कैसा अनुभव रहा?
मुझे खुशी है कि ‘यशराज फिल्म्स’ से मुझे मौके मिले। उसके पहले मैं ‘काबुल एक्सप्रेस’ की स्क्रिप्ट लेकर घूम रहा था। सभी स्क्रिप्ट की तारीफ करते थे, लेकिन कोई पैसे देने को तैयार नहीं था। कहीं से मेरी स्क्रिप्ट आदित्य चोपड़ा के पास पहुंची। उनका फोन आया तो पहले लगा कि कोई मजाक कर रहा है। आदि ने पांच मिनट में स्क्रिप्ट फायनल कर दी। दो महीनों के बाद शूटिंग आरंभ हो गई। फिर उनकी तरफ से ‘न्यूयॉर्क’ का सुझाव आया। वे मुझे मेनस्ट्रीम तक ले आए। यशराज के लिए वह वह बड़ा जोखिम था। उसके बाद ‘एक था टायगर’ आई। इस फिल्म में सलमान से संबंध बना और फिर ‘बजरंगी भाईजान’ आ गई। अब मुझे निर्माता मिल रहे हैं। रिलीज से पहले क्या कहूं, बस इतना समझें कि ‘बजरंगी भाईजान’ सलमान खान के लिए भी अलग फिल्म है।
-कैसे बात बनी?
‘बजरंगी भाईजान’ जैसी फिल्म सलमान को लेकर ही बन सकती थी। ‘एक था टायगर’ के समय हुई दोस्ती काम आई। हम दोनों कुछ अलग करना चाहते थे। हम दोनों एक पेज पर थे। इस फिल्म में हम दोनों की परस्पर समझदारी से मदद मिली। हम दोनों को इस फिल्म में बहुत यकीन है। तभी इसकी स्क्रिप्ट सुनते ही सलमान ने कहा था कि इसे हम खुद प्रोड्यूस करेंगे। इस फिल्म में सही ब्लेंडिंग हुई। सब कुछ रियल है और मेनस्ट्रीम माउंटिंग है।
- क्या इस ट्रांजिशन में कुछ समझौते भी करने पड़े?
‘एक था टायगर’ में जरूर समझौते करने पड़े थे। इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है। यह फिल्म उदाहरण है कि कैसे मेनस्ट्रीम सिनेमा में कंटेंट लेकर आ सकते हैं।
-हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अराजनीतिक माहौल में आप अपनी सोच कैसे रख पाते हैं? क्या उसे छिपा कर पेश करते हैं?
छिपा कर तो नहीं, लेकिन थोड़ी संवेदना और समझ के साथ बताना पड़ता है। फिल्मों में आप बहुत नोकदार बातें नहीं कर सकते। वैसे इस फिल्म में चुभने वाली बातें हैं। उस पर रिएक्शन होगा। इस फिल्म में मैंने चुटीली बातें मजाकिया लहजे में रखी हैं। अनेक शार्प कमेंट मिलेंगे।
-‘बजरंगी भाईजान’ शीर्षक की क्या कहानी है?
फिल्म की कहानी से निकला है यह शीर्षक। कैसे बजरंगी ‘बजरंगी भाईजान’ बन जाता है।
-कलाकारों के चुनाव के पीछे की सोच के बारे में कुछ बताएं?
सलमान खान को तो होना ही था। इस फिल्म का किरदार उनके बहुत करीब है। उन्होंने अच्छी तरह उस किरदार को  पर्दे पर पेश किया है। कैरेक्टर का एक्टर से आइडेंटिफिकेशन होना चाहिए। मैं हमेशा कास्टिंग के बाद स्क्रिप्ट लिखता हूं। एक्टर की खूबियां  उसमें डालता हूं। रीराइट करने पर एक्टर को सहूलियत होती है। मुझे भी आसानी रहती है। नवाज तो अपनी पीढ़ी के उम्दा अभिनेता हैं। कैरेक्टर लिखते समय नवाज ही ध्यान में थे।
- आप की फिल्म के शीर्षक पर आपत्ति है?
 जो आपत्ति कर रहे हैं, मेरी फिल्म उन लोगों के लिए ही है। उन्हें अपनी संकीर्णता खत्म करनी चाहिए। उन्हें इस देश की महानता की समझ नहीं है। इस तरफ और उस तरफ के कट्टरपंथियों के लिए ही फिल्म बनाई है, जिन्हें यह फिल्म देख कर शर्म आएगी।
-अभी के माहौल में आप जैसी सोच के साथ काम करना आसान है क्या?
हमें अपनी लड़ाई जारी रखनी होगी। अगर कुछ चीजें गलत हो रही हैं तो हमें बोलना होगा। उन सभी को बोलना होगा, जिनकी पहचान है। सोच-विचार के बिना आदमी होने का तो कोई मतलब ही नहीं रह जाता। उसकी वजह से हम जानवरों से अलग होते हैं। सलमान खान के स्टारडम के पॉवर का इस्तेमाल मैंने एक सही बात रखने में किया है। वे खुद ऐसी सोच में यकीन रखते हैं।
-शूटिंग के दरम्यान ही सलमान खान का मामला कोर्ट में चल रहा था। सुनवाई के आगे-पीछे सेट पर सलमान खान किस तरह पेश आते थे। कैसे नजर आते थे?
वे कभी सेट पर अपनी सच्ची भावना जाहिर नहीं करते थे। जाहिर तौर पर वे स्वयं स्ट्रेस में रहे होंगे, लेकिन उन्होंने कभी किसी को टेंशन नहीं दिया। बाहर जो भी हो रहा हो , लेकिन हमें पता था कि क्या हो सकता है? रिलीफ तो मिलना ही था। शूटिंग के आखिरी दिन तक वे पहले दिन के मूड में रहे। उनकी मौजूदगी में माहौल हल्का-फुल्का रहता है। मैं भी चाहता हूं कि फिल्ममेकिंग की जर्नी में मजा आना चाहिए। अगर प्रॉसेस में आनंद नहीं आएगा तो फिल्म बुरी हो जाएगी। अपने मामले की आंच से उन्होंने हमें दूर ही रखा।
- मुझे लगता है कि सलमान खान के फंडे स्पष्ट हैं, वे इतने सिंपल हैं कि सही रहते हैं। वे अच्छे वक्ता नहीं हैं। मुमकिन है कि वे अपनी सोच ढंग से नहीं रख पाते हों,  लेकिन उनकी फटकार में सच्चाई रहती है?
बिल्कुल सही ऑब्जर्वेशन है आप का। वे इतने सिंपल हैं कि हमेशा पॉलिटिक्ली राइट रहते हैं। वे हर बार कुछ नया नहीं बोलते। उनका दिल सही जगह पर रहता है, इसलिए वे सही बातें करते और कहते हैं। शूटिंग के समय मैंने उनकी दरियादिली देखी है। अगर उनकी मदद से कुछ हो जाए तो उनकी आंखें चमकने लगती हैं। मुझे लगता है कि वे अपनी चैरिटी कामों में सबसे ज्यादा खुश होते हैं। वे बच्चों की तरह चहकने लगते हैं। मुझे तो लगता है कि अब वे फिल्में भी इसलिए करते हैं कि चैरिटी चलती रहे।
 मेरी कोशिश रहती है कि फिल्मों का संदर्भ रियल हो। मैं मेनस्ट्रीम सिनेमा में रियल बैकड्रॉप की कहानी कहता हूं। बिना राजनीति के कोई इंसान जी नहीं सकता। मुझे राजनीतिक संदर्भ से हीन फिल्में अजीब लगती हैं। राजनीति से मेरा आशय पार्टी-पॉलिटिक्स नहीं है। ‘बजरंगी भाईजान’ में स्ट्रांग राजनीतिक संदर्भ है।
-पहली बार किसी फिल्म इवेंट में आप के मुंह से ‘पॉलिटिक्स ऑफ द फिल्म’ जैसा टर्म सुनाई पड़ा था?
मेरे लिए वह बहुत जरूरी है। अपने यहां इस पर बात नहीं होती। समीक्षक भी फिल्म की राजनीति की बातें नहीं कहते। मैं फिल्म में और कोई भी कमी बर्दाश्त कर सकता हूं। फिल्म की पॉलिटिक्स खराब हो तो मैं फिल्म नहीं देख सकता। दुर्भाग्य से लिखते समय विश्लेषण में समीक्षक में समीक्षक और फिल्म लेखक उस पर बात ही नहीं करते, जबकि फिल्म की पॉलिटिक्स सबसे ज्यादा जरूरी चीज है। वह सही हो तो कम से कम फिल्मकार की राजनीति समझ में आए। सहमति-असहमति दीगर बात है। मेरी सर्वाधिक प्रिय फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ है। वह अत्यंत राजनीतिक फिल्म है। उसका एक गहरा असर है। उस फिल्म में घोषित रूप से राजनीति की बातें नहीं हैं, लेकिन वह फिल्म अपनी राजनीति की वजह से सभी को अच्छी लगती हैं। अनेक फिल्मों में क्राफ्ट बेहतर होता है, लेकिन पॉलिटिक्स नहीं रहती। वैसी फिल्में दर्शक भी नहीं देखते। ऐसी फिल्में नहीं चल पाती।
-फिर ‘बजरंगी भाईजान’ की क्या पॉलिटिक्स है?
सिंपल है। ‘बजरंगी भाईजान’ वास्तव में नेक इंसान होना है। आप किसी भी धार्मिक और राजनीतिक विचार के हो। आप बॉर्डर के इस तरफ हो या उस तरफ... आखिरकार इंसानियत सभी सीमाओं को तोड़ देती है। हम सभी चीजोां को देखने-समझने का एक स्टीरियोटाइप बना देते है। उससे हमारी सोच प्रभावित होती है। ‘बजरंगी भाईजान’ इंसानियत की बात करती है। धार्मिक, राजनीतिक, वैचारिक और अन्य सीमाओं से ऊपर उठकर बातें करती है।
- आप ने पाकिसतान का नाम कब सुना था और क्या धारणा थी?
नाम तो बहुत पहले सुन लिया था। मेरे पिता  रसीद्दुदीन खान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर थे। घर में एकेडेमिक माहौल था। पॉलिटिकल डिसकसन चलता रहता था। मेरी फिल्मों में भी पॉलिटिक्स रिफ्लेक्ट करता है। पॉलिटिकल बैकड्रॉप के बगैर मैं सबजेक्ट ला ही नहीं सकता।
-पाकिस्तान को लेकर समाज में अनेक धारणाएं प्रचलित हैं। खास किस्म की राजनीति उसे हवा भी देती है?
समस्या यह है कि पाकिस्तान का एक पॉलिटिकल क्लास है। उनके काम की जिम्मेदारी हम अवाम पर डाल देते हैं। पाकिस्तान के प्रशासन से मेरे मतभेद हैं। वे बहुत बुरा गेम खेल रहे हैं। वहां के अवाम को हम क्यों बुरा समझें? वे उतने ही परेशान हैं, जितने हम। आतंकवाद से उनका ज्यादा नुकसान हो रहा है। पिछले दस सालों में हमने जितनी जानें गंवाई हैं, उससे कई गुना पाकिस्तान गंवा चुका है। ‘काबुल एक्सप्रेस’ के समय भी यह प्रॉब्लम थी। अफगान सुनते ही टेररिस्ट का ख्याल आता है। तालिबान के हाथों सबसे ज्यादा कौन मारे गए- अफगानी। हमें समझना होगा कि देश की राजनीति और देश का अवाम दोनों अलग चीजें हैं। ‘न्यूयॉर्क’ में भी मैंने यही कहने की कोशिश की थी।
-पॉलिटिक्स पर इतना जोर क्यों देते हैं?
वह डॉक्युमेंट्री के दिनों से आया है। मैंने सईद नकवी के साथ काम किया है। पांच सालों में उनके साथ सीएनएन और बीबीसी से अलग नजरिए से घटनाओं को देखने की कोशिश में राजनीतिक समझ बढ़ती गई। दक्षिण एशिया के संदर्भ में मैंने सब कुछ देखा। जो हमें बताया जाता है और जो होता है, उन दोनों के बीच से मेरी कहानियां निकलती हैं। मेरी पांचों फिल्में उसी जोन की हैं।
-डॉक्यूमेंट्री से फिल्मों में आने की क्या वजह रही?
मैं सफल था। डॉक्यूमेंट्री बनाने के बाद मुझे लगा कि भारत में उनके लिए स्पेस नहीं है। मेरी फिल्में विदेशों में दिखाई जा रही थीं। उन्हें भारत के दर्शक वर्ग नहीं मिल रहे थे। मुझे संतोष नहीं हो रहा था। फिर समझ में आसा कि मेनस्ट्रीम से बड़ा प्लेटफॉर्म नहीं है। अपने देश में सिनेमा के माध्यम से कई बातें कहीं जा सकती हैं। मेरा मकसद मेनस्ट्रीम स्पेस में ही कुछ कहना है। वैकल्पिक स्पेस में कुछ कहना या बताना तो जानकारों के बीच ही रहता है। उनकी वाह-वाह से कहीं पहुंचा नहीं जा सकता है। दर्शकों की तलाश में फिल्मों में आया।
-शुरू में दिक्कतें हुईं? यहां आउटसाइडर को जल्दी मौके नहीं मिलते। आप का कैसा अनुभव रहा?
मुझे खुशी है कि ‘यशराज फिल्म्स’ से मुझे मौके मिले। उसके पहले मैं ‘काबुल एक्सप्रेस’ की स्क्रिप्ट लेकर घूम रहा था। सभी स्क्रिप्ट की तारीफ करते थे, लेकिन कोई पैसे देने को तैयार नहीं था। कहीं से स्क्रिप्ट आदित्य चोपड़ा के पास पहुंची। उनका फोन आया तो पहले लगा कि कोई मजाक कर रहा है। आदि ने पांच मिनट में स्क्रिप्ट फायनल कर दी। दो महीनों के बाद शूटिंग आरंभ हो गई। फिर उनकी तरफ से ‘न्यूयॉर्क’ का सुझाव आया। वे मुझे मेनस्ट्रीम तक ले आए। यशराज के लिए वह वह बड़ा जोखिम था। उसके बाद ‘एक था टाईगर’ आई। इस फिल्म में सलमान से संबंध बना और फिर ‘बजरंगी भाईजान’ आ गई। अब मुझे निर्माता मिल रहे हैं। रिलीज से पहले क्या कहूं, बस इतना समझें कि ‘बजरंगी भाईजान’ सलमान खान के लिए भी अलग फिल्म है।
-कैसे बात बनी?
‘बजरंगी भाईजान’ जैसी फिल्म सलमान को लेकर ही बन सकती थी। ‘एक था टाइगर’ के समय हुई दोस्ती काम आई। हम दोनों कुछ अलग करना चाहते थे। हम दोनों एक मेज पर थे। इस पिुल्म में हम दोनों की समझदारी से मदद मिली। हम दोनों को इस फिल्म में बहुत यकीन है। तभी इसकी स्क्रिप्ट सुनते ही सलमान ने कहा था कि इसे हम खुद प्रोड्यूस करेंगे। इस फिल्म में सही ब्लेंडिंग हुई। सब कुछ रियल है और मेनस्ट्रीम माइंडिंग है।
- क्या इस ट्रांजिशन में कुछ समझौते भी करने पड़े?
‘एक था टायगर’ में जरूर समझौते करने पड़े थे। इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है। यह फिल्म उदाहरण है कि कैसे मेनस्ट्रीम सिनेमा में कंटेट लेकर आ सकते हैं।
-हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के राजनीतिक माहौल में आप अपनी सोच कैसे रख पाते हैं? क्या उसे छिपा कर पेश करते हैं?
छिपा कर तो नहीं, लेकिन थोड़ी संवेदना और समझ के साथ बताना पड़ता है। फिल्मों में आप बहुत नोकदार बातें नहीं कर सकते। वैसे इस फिल्म में चुभने वाली बातें हैं। उस पर रिएक्शन होगा। इस फिल्म में मैंने चुटीली बातें मजाकिया लहले में रखी हैं। अनेक शार्प कमेंट मिलेंगे।
-‘बजरंगी भाईजान’ शीर्षक की क्या कहानी है?
फिल्म की कहानी से निकला यह शीर्षक। कैसे बजरंगी फिल्म में ‘बजरंगी भाईजान’ बन जाता है।
-कलाकारों के चुनाव के पीछे की सोच के बारे में कुछ बताएं?
सलमान खान को तो होना ही था। इस फिल्म का किरदार उनके बहुत करीब है। उन्होंने अच्छी तरह उस किरदार को  पर्दे पर पेश किया है। कैरेक्टर का एक्टर से आइडेंटिफिकेशन होना चाहिए। मैं हमेशा कास्टिंग के बाद स्क्रिप्ट लिखता हूं। एक्टर की खूबियां  उसमें डालता हूं। रीराइट करने पर एक्टर को सहूलियत होती है। मुझे भी आसानी रहती है। नवाज तो अपनी पीढ़ी के उम्दा अभिनेता हैं। कैरेक्टर लिखते समय नवाज ही ध्यान में थे।
- आप की फिल्म के शीर्षक पर आपत्ति है?
 जो आपत्ति कर रहे हैं, मेरी फिल्म उन लोगों के लिए ही है। उन्हें अपनी संकीर्णता खत्म करनी चाहिए। उन्हें इस देश की महानता की समझ नहीं है। इस तरफ या उस तरफ के कट्टरपंथियों के लिए ही फिल्म बनाई है, जिन्हें यह फिल्म देख कर शर्म आएगी।
-अभी के माहौल में आप जैसी सोच के साथ काम करना आसान है क्या?
कुछ नहीं कर सकते। हमें अपनी लड़ाई जारी रखनी होगी। अगर कुछ चीजें गलत हो रही हैं तो हमें बोलना होगा। उन सभी को बोलना होगा, जिनकी पहचान है। सोच और विचार के बिना आदमी होने का तो कोई मतलब ही नहीं रह जाता। उसकी वजह से हम जानवरों से अलग होते हैं। सलमान खान के स्टारडम के पॉवर का इस्तेमाल मैंने एक सही बात रखने में किया है। वे खुद ऐसी सोच में यकीन रखते हैं।
-शूटिंग के दरम्यान ही सलमान खान का मामला कोर्ट में चल रहा था। सुनवाई के आगे-पीछे सेट पर सलमान खान किस तरह पेश आते थे। कैसे नजर आते थे?
वे कभी सेट पर अपनी सच्ची भावना जाहिर नहीं करते थे। जाहिर तौर पर वे स्वयं स्ट्रेस में रहे होंगे, लेकिन उन्होंने कभी किसी को टेंशन नहीं दिया। बाहर जो भी हो रहा हो , लेकिन हमें पता था कि क्या हो सकता है? रिलीफ तो मिलना ही था। शूटिंग के आखिरी दिन तक वे पहले दिन के मूड में रहे। उनकी मौजूदगी में माहौल हल्का-फुल्का रहता है। मैं भी चाहता हूं कि फिल्ममेकिंग की जर्नी में मजा आना चाहिए। अगर प्रॉसेस में आनंद नहीं आएगा तो फिल्म बुरी हो जाएगी। अपने मामले की आंच से उन्होंने हमें दूर ही रखा।
- मुझे लगता है कि सलमान खान के फंडे स्पष्ट हैं, वे इतने सिंपल हैं कि सही रहते हैं। वे अच्छे वक्ता नहीं हैं। मुमकिन है कि वे अपनी सोच ढंग से नहीं रख पाते हों,  लेकिन उनकी फटकार में सच्चाई रहती है?
बिल्कुल सही ऑब्जर्वेशन है आप का। वे इतने सिंपल हैं कि हमेशा पॉलिटिक्ली राइट रहते हैं। वे हर बार कुछ नया नहीं बोलते। उनका दिल सही जगह पर रहता है, इसलए वे सही बातें करते और कहते हैं। शूटिंग के समय मैंने उनकी दरियादिली देखी है। अगर उनकी मदद से कुछ हो जाए तो उनकी आंखें चमकने लगती हैं। मुझे लगता है कि वे अपनी चैरिटी कामों में सबसे ज्यादा खुश होते हैं। वे बच्चों की तरह चहकने लगते हैं। मुझे तो लगता है कि अब वे फिल्में भी इसलिए करते हैं कि चैरिटी चलती रहे।

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