फिल्म समीक्षा : बजरंगी भाईजान
-अजय ब्रह्मात्मज
सलमान खान की ‘बजरंगी भाईजान’ को देखने के कई तरीके हो सकते हैं। पॉपुलर स्टार सलमान की फिल्में समीक्षा से परे होती हैं। खरी-खोटी लिखने या बताने से बेहतर होता है कि फिल्मों की अपील की बातें की जाएं। सलमान खान की खास शैली है। एक फॉर्मूला सा बन गया है।
‘वांटेड’ के बाद से उनकी फिल्मों में इसी का इस्तेमाल हो रहा है। निर्देशक बदलते रहते हैं, लेकिन सलमान खान वही रहते हैं। बात तब अलग हो जाती है, जब उन्हें राजनीतिक रूप से सचेत निर्देशक कबीर खान मिल जाते हैं। मनोरंजन के मसाले मेे मुद्दा मिला दिया जाता है। स्वाद बदलता है और फिल्म का प्रभाव भी बदलता है। कबीर खान ने बहुत चालाकी से सलमान की छवि का इस्तेमाल किया है और अपनी बात सरल तरीके से कह दी है। इस सरलता में तर्क डूब जाता है। तर्क क्यों खोजें? आम आदमी की जिंदगी भी तो एक ही नियम से नहीं चलती।
‘बजरंगी भाईजान’ बड़े सहज तरीके से भारतीय और पाकिस्तानी समाज में सालों से जमी गलतफहमी की काई को खुरच देती है। पॉपुलर कल्चर में इससे अधिक की उम्मीद करना उचित नहीं है। सिनेमा समाज को प्रभावित जरूर करता है, लेकिन दुष्प्रभाव ही ज्यादा दिखते हैं। सद्प्रभाव होता है तो ‘बजरंगी भाईजान’ का स्पष्ट संदेश है कि दोनों देशों की जनता नेकदिल और मानवीय हैं।
पवन कुमार चतुर्वेदी उर्फ बजरंगी मध्यवर्गीय हिंदू परिवार में पला भोंदू किस्म का लड़का है। हांख्वह बजरंग बली का भक्त और सच्चा एवं ईमानदार लड़का है। उसके पिता कुछ कमाने के उद्देश्य से उसे दिल्ली जाने की सलाह देते हैं। दिल्ली पहुचने पर पवन की मुलाकात रसिका से होती है। दोनों के बीच स्वाभाविक प्रेम होता है। इस बीच एक गूंगी बच्ची भी उसके जीवन में आ जाती है। भटकी लड़की को उसके मां-बाप से मिलाने की कोशिश में बजरंगी गहरे फंसता जाता है। कहानी आगे बढ़ती है और पता चलता है कि बच्ची तो पाकिसतन की है।
सरल स्वभाव का पवन उसे पाकिस्तान में उसके घर पहुंचाने की ठान लेता है। इसके बाद फिल्म में तेजी से मोड़ आते हैं। कई बार तर्क और कारण पर ध्यान नहीं दिया जाता। लेखक-निर्देशक जल्दी से अपने ध्येय तक पहुंचना चाहते हैं। वे दर्शकों को भावनात्मक रूप से झकझोरना चाहते हें। इसमें उनकी सहायता पाकिस्तानी टीवी रिपोर्टर चांद करता है। फिल्म जब खत्म होती है तो सभी की आंखें नम होती हैं। गूंगी बच्ची जिसे पवन मुन्नी कहता है और जो अपने मां-बाप की शाहिदा है, उसकी अंतिम पुकार दर्शकों को हिला देती है।
‘बजरंगी भाईजान’ हिंदी सिनेमा के इतिहास की उन चंद फिल्मों में से एक होगी, जिसमें पाकिस्तान को दुश्मन देश के तौर पर नहीं दिखाया गया है। देशभक्ति के नाम पर गालियां नहीं दी गई हैं। उन धरणाओं के प्रसंग हैं, जिनसे गलतफहमियां जाहिर होती हैं। दोनों देशों के शासकों और राजनीतिक शक्तियों ने इस वैमनस्य का बढ़ाया है। ‘बजरंगी भाईजान’ मानवीय और सौहार्दपूर्ण तरीके से उन धारणाओं को छेड़ती है। गलतफहमियां दोनों तरु से हें। भारत में रहते हुए हम अपनी कमियों से परिचित होते हैं और पाकिस्तान पहुंचने पर वहां मौजूद गलतफमियों से रूबरू होते हैं। पवन की तरह ही भोंदू टीवी रिपोर्टर की इंसानियत जागती है। बजरंगी में भाईजान लफ्ज जुड़ता है और हम देखते हैं कि कैसे दिल पिघलते हैं। सरहद पर खींची कंटीले तारों के बीच बने फाटक के दरवाजे खुलते हें। ‘बजरंगी भाईजान’ दोनों देशों को करीब लाने का नेक प्रयास करती है।
कलाकारों में हर्षाली मल्होरत्रा अपनी मासूमियत से दिल जीत लेती है। वह गूंगी है, लेकिन आंखें और चेहरे से प्रेम का इजहार करती है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की मौजूदगी फिल्म को आगे बढ़ाने के साथ रोचक भी बनाती है। वे दर्शकों को मोहते हें। उनके किरदार और अभिनय में सादगी है। सलमान खान का किरदार इतना सरल और प्रभावशाली है कि वह दर्शकों को अपने साथ लिए चलता है।
अवधिः 159 मिनट
**** चार स्टार
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