जीवन के फ्लैशबैक में सिने-प्रेम -विवेक भटनागर



आज चालीस की उम्र पार चुके फिल्मप्रेमी जब अपने जीवन में पीछे मुड़कर देखते हैं, तो उन्हें फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी और घरवालों की बंदिशों के बीच तमाम रोचक प्रसंग याद आ जाते हैं। इन्हींदिलचस्प संस्मरणों को समेटा गया है हाल में प्रकाशित 'सिनेमा मेरी जान' में...

विवेक भटनागर
सिनेमा हमेशा से सामान्य लोगों के लिए जादू की दुनिया रहा है। तीन-चार दशक पहले तो यह जादू सिर चढ़कर बोलता था, क्योंकि उस समय मनोरंजन का एकमात्र सस्ता और आधुनिक साधन फिल्में थीं। दूसरे टाकीजों का रिक्शों पर लाउड स्पीकर पर रोचक ढंग से प्रचार, फिल्म का प्रमुख सीन समेटे पेंटिंग-पोस्टर, बाजार में फिल्म की कहानी, डायलॉग और उसके गानों से सजी आठ-दस पेज की चौपतिया का बिकना भी उस दौर के बच्चों और युवाओं का ध्यान फिल्मों की ओर खींचते थे। इसके अलावा फिल्म देखकर आए फिल्मी सहपाठियों का बड़े रोचक ढंग से कहानी सुनाने, मुंह से ढिशुं-ढिशुं... ढन..ढन...निकालने का अंदाज भी फिल्मों की ओर खींचता था। उस दौर में, सच में यह जादू ही था, जिसके मायाजाल में बच्चे न फंस सकेें, इसके सारे प्रयोजन घर के बड़े-बुजुर्ग कर डालते थे। वे बच्चों के सामने वर्जनाओं की लक्ष्मण रेखा खींच दिया करते। उनका मानना था कि सिनेमा बच्चों को बिगाड़ देता है। लेकिन वर्जनाएं भी उत्सुकता सृजित कर दिया करतीं। कोई क्लास बंक करके फिल्म देखता, कोई घर में झूठ बोलकर फिल्म देखने जाता, तो कोई वापस आकर झूठी कहानी गढ़ लेता। फिल्म देखने को और उस राज को राज रखने में क्या-क्या मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी। उस वक्त की ये सारी बातें आपको अपना बचपन याद दिला देंगी, जब आप हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'सिनेमा मेरी जान' पढ़ेंगे। पुस्तक वरिष्ठ फिल्म समालोचक व पत्रकार अजय ब्रह्माात्मज का आयोजन है। उन्होंने अपने ब्लॉग 'चवन्नी चैप' में एक सीरीज 'हिंदी टाकीज' चलाई थी, जिसमें उन्होंने सिनेप्रेमियों को बचपन की गलियों में ले जाकर उनके सिनेप्रेम की यादों को ताजा और साझा किया था। उन्हीं में से 52 लोगों के संस्मरणों को उन्होंने संपादित करते हुए पुस्तक का रूप दिया है। रवीश कुमार का संस्मरण आदि कुछ अपवाद भी हैं, जिन्हें संपादक ने उनके ब्लॉग से लिया है। हालांकि अजय ब्रह्मात्मज का संस्मरणों की इस सीरीज के पीछे उद्देश्य मात्र बचपन की गलियों में जाकर सिनेमा की यादें ताजा करना था, किंतु ये संस्मरण अनायास ही सिनेमा पर विमर्श भी कर बैठते हैं।
अजय ब्रह्मात्मज पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं,  'हिंदी पट्टी में सिनेमा देखना एक प्रकार की गुरिल्ला कार्रवाई होती थी। सुना है कि अब परिदृश्य बदला है। 45 से अधिक उम्र का शायद ही कोई उत्तर भारतीय होगा, जिसने सिनेमा देखने के लिए मार या कम से कम डांट नहीं खाई होगी। इसके बावजूद हम सभी सिनेमा देखते रहे। सिनेमा हमारा शौक बना। सिनेमा हमारा व्यसन बना। अक्सर मैं सोचता हूं कि हिंदी पट्टी से प्रतिभाएं हिंदी फिल्मों में क्यों नहींआतीं? मेरी धारणा है कि सिनेमा के प्रति हमारे अभिभावकों की असहज घृणा एक बड़ा कारण है। हिंदी समाज सिनेमा देखने के लिए बच्चों को प्रेरित नहीं करता। हम सिनेमा की बातें चोरी-छिपे करते हैं। फिल्मों और फिल्म स्टारों के प्रति हिकारत का भाव रहता है। नतीजा यह होता है कि सिनेमा का हमारा प्रेम अपराध भाव से दब और कुचल जाता है।'
'सिनेमा मेरी जान' में कुछ दशक पीछे फिल्मों को लेकर दीवानगी खुलकर व्यक्त हुई है। मजेदार वाकये हैं, प्रसंग हैं। संस्मरण पढ़ते हुए किस्सागोई का अपूर्व आनंद मिलता है। जैसे फिल्म पत्रकार से फिल्मकार बने पंकज शुक्ला ने बड़ी साफगोई से बचपन में मिथुन चक्रवर्ती के प्रति अपनी दीवानगी से लेकर उन्हें अपनी फिल्म में निर्देशित करने तक की कहानी लिखी है। वे जब घर वालों से चोरी छिपे मिथुन की फिल्म देखने जाते हैं, तो घरवाले चिंतित हो जाते हैं। वे लौटकर झूठी कहानी गढ़ते हैं कि उनका अपहरण हो गया था और जब अपहर्ताओं को लगा कि गलत बच्चे को उठा लिया, तो ïवे छोड़ गए। घर वालों और शुभचिंतकों ने जब गाड़ी का नंबर पूछा, तो उन्होंने उस गाड़ी का नंबर बता दिया, जो उस फिल्म में दिखाई गई थी। इस तरह फिल्मप्रेमी पड़ोसियों ने ही पंकज शुक्ला की लफ्फाजी पकड़ ली और लोगों को पता चल गया कि वे फिल्म देखने गए थे।
संस्मरण 'नाम, फलफूल, शहर और सिनेमा' में गीताश्री का कथाकार शिद्दत से मुखरित हुआ है, लेकिन उस जमाने में एक लड़की का सी-ग्रेड फिल्म देखने की कोशिश करने का साहस पाठकों को चकित कर देता है। यह संस्मरण यह भी बताता है कि बड़े ही बच्चों के भीतर जुगुप्सा और जिज्ञासा के बीज बो देते हैं। दरअसल, उनके मां और बाबूजी बच्चों से छिपकर फिल्म 'गुप्त ज्ञान' देखने चले गए। यह राज लेखिका से गुप्त नहीं रह सका। जब पता चला कि फिल्म में आदमी-औरतों के गंदे-गंदे सीन हैं, तो लेखिका में ऐसी जुगुप्सा हुई कि वे भी सहेलियों के साथ वही फिल्म देखने पहुंच गईं। गीताश्री लिखती हैं, 'हम पहुंचे। मैनेजर चाचा की नजर बचाकर लाइन में लग गए। तीन सहेलियां थीं। खूब भीड़ थी, हमारा दिल धड़क रहा था नई किस्म की उत्तेजना से। हम एक नए अनुभव से गुजरने वाले थे। एक नया संसार खुलने वाला था। अचानक सिनेमाहाल के एक अधिकारी ने हम तीनों की कलाई पकड़ी और लगभग घसीटता हुआ रिक्शे पर बैठा आया। वह लगातार चीख रहा था- एडल्ट फिल्म है। किसने भेजा है तुम लोगों को। चलो अभी घर छोड़कर आता हूं। एक रिक्शे में ढूंसकर वह मेरे घर पटक गया। फिर तो पूछो मत, जीवन में पहली बार कैद मिली। इस घटना के बाद इतना हुआ कि मां-पिताजी ने देर रात की फिल्में देखना हमेशा के लिए बंद कर दिया।'
रवीश कुमार ने अपने बचपन के दिनों में सिनेमा के प्रति दीवानगी का जीवंत चित्र खींचा है। वे लिखते हैं, 'वसीम मियां अपने बेटों को गरियाते रहते थे कि काम नहीं करता, फिल्में देखता रहता है, लेकिन जब मेरे बाल काटते, तो कान पर बाल इसलिए छोड़ देते कि बच्चन के कान भी ढंके होते हैं। हमारे परिवार के एक सदस्य सिनेमची थे। वह देखी गई फिल्मों को एक कॉपी में क्रमवार लिखते। कॉपी के दूसरे हिस्से में वे आने वाली फिल्मों के नाम क्रमवार लिखते। इसके लिए वे सार्वजनिक रूप से प्रताडि़त भी किए जाते कि फिल्म ही देखते हैं, लिखते-पढ़ते नहीं। मेरे मोहल्ले में शिवा नाम का लड़का था। वह जब भी सिनेमा देखकर आता तो बाकायदा अभिनय कर कहानी सुनाता। हम सब नहीं देखने वाले दर्शक पूरे रोमांच के साथ शिवा से कहानी सुना करते।'
कुल-मिलाकर, सभी लेखकों के रोचक संस्मरणों में एक नई कहानी है, नए अनुभव हैं, नए प्रसंग हैं, जो हमें न सिर्फ सिनेमा के प्रति हिकारत से खींचकर उसके प्रति विराट प्रेम तक ले जाते हैं और सिनेमा को लेकर सुसंस्कार गढ़ते हैं। 
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पुस्तक : सिनेमा मेरी जान
संपादक : अजय ब्रह्मात्मज
प्रकाशक : शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली
मूल्य : 400 रुपये
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