मुकेश छाबड़ा की कहानी पिता ताराचंद छाबड़ा की जुबानी
मुकेश छाबड़ा के जन्मदिन वर चवन्नी का तोहफा उनके पिता के सौजन्य से...
कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा के पिता ताराचंद छाबड़ा ने अपने बेटे के बारे में उनके बचपन के दिनों और परवरिश के बारे में विस्तार से लिखा है। यह पिता का वात्सल्य मात्र नहीं है। यह एक व्यक्ति के व्यक्तित्व बनने की कहानी भी है। फादर्स डे से पहले ही हम एक पिता के इन शब्दों को शेयर करें तो समझ बढ़ेगी कि कैसे संतान के बचपन की की रुचि भविष्य में पेशे में भी बदल सकती है और वह भी खुशगवार.....
कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा के पिता ताराचंद छाबड़ा ने अपने बेटे के बारे में उनके बचपन के दिनों और परवरिश के बारे में विस्तार से लिखा है। यह पिता का वात्सल्य मात्र नहीं है। यह एक व्यक्ति के व्यक्तित्व बनने की कहानी भी है। फादर्स डे से पहले ही हम एक पिता के इन शब्दों को शेयर करें तो समझ बढ़ेगी कि कैसे संतान के बचपन की की रुचि भविष्य में पेशे में भी बदल सकती है और वह भी खुशगवार.....
लेखक- ताराचंद छाबड़ा
तारीख 27 मई, वर्ष 1980. कपूर हॉस्पिटल, पूसा रोड, नई दिल्ली. सुबह 6 बजे एक डॉक्टर के मेरे
पास आईं, मैं उनकी ओर एकटक देख रहा था.
मैंने पूछा कि क्या हुआ, लेकिन उन्होंने कोई जवाब
नहीं दिया. फिर दूसरी, तीसरी और चौथी डॉक्टर आईं. सबकी
आंखों में नींद भरी थी. लग रहा था कि सबको नींद से जगाकर बुलाया गया है. लगभग आधे घंटे
के बाद मुुझे बताया गया कि बच्चा उल्टा है और डॉक्टरों ने मिलकर यह डिलीवरी करवायी
है. मुझसे कहा गया कि एक कप चाय लेकर आइए, लड़का हुआ है. मैंने अपनी
चिंता जाहिर की कि सब ठीक-ठाक है ना? तो एक नर्स ने हंसते
हुए कहा कि सब ठीक है, केवल लड़का उल्टा पैदा हुआ है, यह कुछ अलग से नाम कमाएगा.
मैं जच्चा-बच्चा वार्ड
में गया, तो देखा कि मेरे साहिबजादे सोये
पड़े थे. मैं अपने छोटे भाई को अस्पताल में छोड़कर घर लौटा. मैं गर्वमेंट ऑफ इंडिया प्रेस
में नौकरी करता था. मुझे सरकार की ओर से फ्लैट मिला था. मेरी मां इंतजार कर रही थीं.
वह पंजाब से आई थीं. मुझे सामने देखते ही उन्होंने पूछा कि क्या खबर है? मैंने कहा कि पांच पांडव हो गए हैं, क्योंकि मेरे बड़े भाई को तीन लड़के थे, एक मेरा बड़ा बेटा और एक हमारे नवागंतुुक साहिबजादे.
हमारे परिवार में बुजुर्ग
बच्चों का नामकरण करते हैं. मेरी मां ने साहिबजादे का नाम मदन मोहन रखा. एक दिन मैं
अस्पताल में इसे टीका लगवाने गया, तो नर्स ने कहा कि इतना
छोटा बच्चा और नाम इतना बड़ा? उसने इसका नाम रिंकू
रख दिया. तबसे हम इसे रिंकू बुलाते हैं. छुटपन में इसकी टांग फैलाकर लेटने की आदत थी, तो मेरी मां कहने लगीं कि तेरा बेटा तो डड्डू (मेंढ़क) की तरह
लेटता है, तो उन्होंने इसका नाम डड्डू रख
दिया. मुझे बरबस ही संगीतकार सी रामचन्द्र की याद आई. लोग उनको तीन नाम वाला एक आदमी
पुकारते थे- सी रामचन्द्र, अन्ना साहिब और चितलकर.
मैंने कहा कि इसके भी तीन नाम हो गए हैं, ये भी बड़ा आदमी बनेगा.
डड्डू तीन साल का हो गया, तो मैं इसका दाखिला करवाने
राजौरी गार्डेन कारपोरेशन स्कूल में ले गया. वहां उन्होंने इसका नाम मुकेश छाबड़ा लिख
दिया. उस समय से इसका नाम मुकेश छाबड़ा हो गया.
मैं मुकेश को रोज साइकिल
से सुबह स्कूल छोड़ने जाता था और फिर बारह बजे स्कूल की छुट्टी होने के बाद लेने जाता
था. हमारी प्रेस कॉलोनी में एक बड़ा मैदान था. उसमें कुछ बच्चे क्रिकेट का अभ्यास करते
थे. उसमें दो नाम मनोज प्रभाकर और संजीव शर्मा थे, जो नामी क्रिकेटर हुआ करते थे. मुकेश उनको अभ्यास करते देखने
जाता था. इसकी क्रिकेट में दिलचस्पी थी. वो रोज इसे गोद में उठाकर बिस्कुट दिया करते
थे. यह उनका लाडला बन गया था.
लोग मुझसे कहें कि इसको
पब्लिक स्कूल में पढ़ाओ, लेकिन मुझे मेरी आय पता थी. मैंने
इसे गर्वमेंट स्कूल में पढ़ाया. पांचवीं तक राजौरी गार्डेन स्कूल में पढ़ाई करने के बाद
छठीं कक्षा में यह राजौरी गार्डेन के मेन स्कूल में अपने आप एडमिट हो गया. मुकेश का
मन पढ़ाई में कम लगता था. यह ड्रामा और संगीत की गतिविधियों में ज्यादा रूचि लेता था.
यह स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था. मैं कई बार इसका कार्यक्रम
देखने जाता था. एक बार देशभक्ति की कव्वाली में इसको फर्स्ट प्राइज मिला. सभी अध्यापक
इससे प्रभावित थे. कोई भी इसकी पढ़ाई की बात नहीं करता था, सब ड्रामे वगैरह की बातें ही करते थे.
जब मुकेश सातवीं कक्षा
में पहुंचा, तो हम दिल्ली की रोहिणी कॉलोनी
में रहने के लिए आ गए. मैंने एक छोटा सा मकान वहां खरीद लिया था. एक दिन मार्च के महीने
में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) की टीआईई की तरफ से अखबार में विज्ञापन आया कि
गर्मी की छुट्टियों में जो बच्चे ड्रामा में हिस्सा लेना चाहते हैं, वो हमारे सेंटर पर संपर्क कर सकते हैं. मैं मुकेश को लेकर अशोक
विहार के सेंटर पहुंचा. वहां काफी भीड़ थी. हमसे कहा गया कि हम सभी बच्चों का टेस्ट
लेंगे, जो बच्चे टेस्ट में पास होंगे, हम उन्हीं को चुनेंगे. मुकेश का चयन हो गया. मैंने इसकी दो फोटो
और पचास रूपए फीस एनएसडी में जमा कर दी. अगले दिन से इनको प्ले पर काम शुरू करना था.
एनएसडी माता-पिता को भी समय-समय पर बुलाता रहता था ताकि हम देख सकें कि हमारे बच्चे
क्या कर रहे हैं. मुकेश सभी प्रशिक्षकों का चहेता बन गया था. यह सभी गतिविधियों में
बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगा. फिर एक नाटक में माता-पिता को भी शामिल किया गया और हमने
एक नाटक अपने बच्चों के साथ मिलकर किया. एक महीने के बाद सभी ग्रुप ने अलग-अलग नाटक
तैयार किए और फिर पैरेंट्स को वह नाटक देखने के लिए बुलाया गया. सबको प्रमाणपत्र भी
दिया गया. मुकेश ने एनएसडी में बहुत सारे दोस्त बनाए, जो आज भी मुझे इसके आस-पास दिखते हैं.
एक दिन एनएसडी से एक
लेटर आया कि गोल मार्केट में एक स्कूल है. वहां पर एनएसडी एक टीआईई कोर्स शुरू कर रही
है. अगर मुकेश उसमें हिस्सा लेना चाहता है, तो एनएसडी में फीस जमा
कर दें. मैंने इसकी फीस जमा कर दी. यह शनिवार और इतवार को शाम चार बजे से छह बजे तक
वहां नाटक सीखने लगा. फिर श्रीराम सेंटर और एलटीडी ऑडिटोरियम में इसके नाटक का मंचन
हुआ, जिसकी काफी सराहना हुई. समय-समय पर एनएसडी से नाटकों के
पास और कार्यक्रमों की लिस्ट हमारे घर पर आ जाती थी. इसके दोस्तों ने धीरे-धीरे एनएसडी
जाना छोड़ दिया, लेकिन इसने और मैंने नहीं छोड़ा.
इसने बारहवीं की परीक्षा पास की और फिर श्रीराम सेंटर में दो साल के कोर्स का फॉर्म
भर दिया. उसमें इसका चयन भी हो गया. यह रोज शाम को छह से आठ बजे तक वहां नाटक सीखने
जाने लगा. सुरिन्दर शर्मा और मुश्ताक काक से इसने दिल लगाकर एक्टिंग सीखी. यह उनसे
डायरेक्शन भी सीखता था. वहां हॉल नंबर 2 में इसने प्रेमचंद के
कई नाटकों का मंचन किया. दो साल का कोर्स खत्म होने के बाद एनएसडी में इसे बच्चों को
एक्टिंग सिखाने की नौकरी मिल गई. उसको टीआईई कहते हैं. इसी दौरान इसने अपनी स्नातक
की पढ़ाई भी पूरी कर ली. मुकेश बच्चों के लिए नाटक तैयार करता था. उसके अभ्यास में दो
महीने लग जाते थे. यह रोज आकर मुझसे कहता था कि पापा, मैं बहुत थक गया हूं. इसके नाटक देखने कई मशहूर लोग आए, जिनमें अनुपम खेर और गुलजार भी थे. प्रेमचंद के कुछ नाटक लेकर
ये लोग चीन गए. वहां लोगों को भाषा नहीं समझ में आई, लेकिन सबने नाटक और अभिनय की जमकर सराहना की. एक नाटक अभिनेता
मोहन अगाशे ने तैयार किया था. जिसमें मुकेश और बाकी लोग शामिल थे. नाटक का शीर्षक था-
पर हमें खेलना है, जिसका मंचन भारत के कई शहरों
में हुआ. उससे मुकेश को बहुत शोहरत मिली. वह नाटक दूरदर्शन पर भी प्रसारित हुआ था.
मुझे पढ़ने का शौक था.
मुकेश एनएसडी की लाइब्रेरी से किताबें लाकर मुझे देता था. सत्यजित रे की एक किताब में
प्रकाशित एक प्रसंग मुझे हमेशा याद आता है. उन्होंने लिखा था कि जब मैं छोटा था, तो एक बार शांतिनिकेतन में गुरू रविन्द्रनाथ टैगोर से मिलने
गया. मैंने उन्हें एक डायरी दी और कहा कि गुरूदेव इसमें मेरे लिए कोई संदेश लिख दीजिए.
उन्होंने बांग्ला में लिखा कि मैं खूबसूरती की तलाश में दुनिया में जगह-जगह घूमा लेकिन
मेरे मन को शांति नहीं मिली. एक दिन मैं घर के बगीचे में सुबह टहल रहा था, तो घास के ऊपर शबनम (ओस) की बूंदों को देखकर मुझे सुकून मिला.
मुझे लगा कि इससे ज्यादा खूबसूरत चीज मैंने आजतक नहीं देखी है. उनका तात्पर्य यह था
कि खूबसूरती हमारे आस-पास है, लेकिन हम उसे बाहर ढूंढते
हैं. यह किस्सा मैंने मुकेश को सुनाया और इसने उसको बहुत प्रभावित किया.
मुकेश अपने ग्रुप के
साथ ‘पर हमें खेलना है’ नाटक लेकर मुंबई गया था. ये
सब दिल्ली वापस तो आ गए, लेकिन मुकेश का मन मुंबई
में ही रह गया. एक दिन इसने मुझसे कहा कि पापा मैं मुंबई जाऊंगा और खूब नाम कमाऊंगा.
मैं मन ही मन डरने लगा. क्योंकि मैंने सुना था कि मुंबई महंगा शहर है, वहां खाने को नहीं मिलता. मैंने इससे कहा कि मुंबई मत जाओ. एनएसडी
में तुम्हे सर्विस मिल गई है, तुम वह करो. यह मेरी
बात मान गया, लेकिन जैसे ही एनएसडी के साथ
इसका कॉन्ट्रैक्ट खत्म हुआ, यह एनडीटीवी चैनल से
जुड़ गया. यह गुस्ताखी माफ प्रोग्राम में काम करता था. लेकिन अब भी इसका मन मुंबई में
ही अटका था.
जब ये बीए के आखिरी साल
में था, तब मशहूर कवि अशोक चक्रधर ने
बाल विवाह के ऊपर एक फिल्म बनाई बिटिया और मुकेश को उन्होंने हीरो की भूमिका दी. उसके
बाद हरियाणवी फिल्म डायरेक्टर बल्लू भाई ने अपनी फिल्म ताऊ झगड़ू में इसे हीरो के रोल
में कास्ट किया. उस फिल्म की शूटिंग नोएडा के ईगल स्टूडियो में हुई. वो फिल्म दिल्ली
और हरियाणा में खूब चली और मुकेश वहां काफी लोकप्रिय हो गया.
यह एनएसडी के संपर्क
में रहा. एनएसडी की एक मशहूर कलाकार थीं विभा छिब्बर, जो टीआईई में सर्विस करती थीं. उन्होंने भी मुंबई आने का प्रोग्राम
बनाया, तो मुकेश उनके साथ मुंबई आ गया.
यह उनके साथ ही रहता था. उन्हें विदाई सीरियल में काम मिल गया. लेकिन मुकेश बड़ी कठिनाई
से उनके साथ रह रहा था. इसे ढंग का खाना भी नहीं मिलता था और एक बार इसकी तबियत खराब
हो गई. मैंने इसकी मां को मुंबई भेजा, जो विभा छिब्बर के घर
में रहकर इसका और उनका खाना बनाने लगीं. मैंने इससे दिल्ली लौटने के लिए कहा. यह मान
गया. विभा, मुकेश और मेरी पत्नी एक ही ट्रेन
से लौटने वाले थे, लेकिन जिस दिन की टिकट बुक थी, ये घर से स्टेशन की ओर चले, तो रास्ते में तेज बारिश आ गई. ये तीनों स्टेशन नहीं पहुंच सके.
पूरी मुंबई बरसात के पानी में डूब गई. इन्होंने वह रात एक दुकान में गुजारी और सामान
इन्होंने सिर के ऊपर रखा था. कई दिन के बाद ये लोग दिल्ली पहुंचे, लेकिन मुकेश का मन नहीं लग रहा था और यह मुंबई वापस आ गया.
यह मशहूर डायरेक्टर अनुराग
कश्यप के पास गया. उन्होंने इसे रहने के लिए जगह दी. यूटीवी की चिल्लर पार्टी इसकी
पहली फिल्म थी, जिसकी इसने कास्टिंग की. वह फिल्म
बहुत सफल हुई. उसको बाद मुकेश को कई फिल्में मिलीं- गैंग्स ऑफ वासेपुर, काय पो छे, डी डे, हाइवे, भूतनाथ रिटर्न्स, हंसी तो फंसी, अग्ली, शाहिद, साहिब बीवी और गैंगस्टर, लव आज कल, फोर्स, सिद्धार्थ, रॉकस्टार, तृष्णा, हैदर, पीके, बॉम्बे वेलवेट आदि. गैंग्स
ऑफ वासेपुर से मुकेश को बहुत लोकप्रियता मिली. इसने अपनी कंपनी शुरू कर दी- मुकेश छाबड़ा
कास्टिंग कंपनी. इसकी एक बड़ी टीम है, जो दिन-रात काम करती
रहती है. लोग मुंबई में कहते हैं कि मुकेश छाबड़ा से बड़ा कास्टिंग डायरेक्टर कोई नहीं
है और यह भी कहते हैं कि इसने कास्टिंग में नए प्रयोग करके इसके मायने ही बदल दिये
हैं.
अब लोग मुझे मुंबई में
पहचानते हैं कि ये मुकेश छाबड़ा के पिताजी हैं, तो मैं गर्व महसूस करता हूं. संतान आगे बढ़ती है, तो मां-बाप को बहुत खुशी होती है. आज अपने बेटे की वजह से मुझे
भी एक पहचान मिली है. ऐसा बेटा भगवान सबको दें.
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