फिल्म समीक्षा - वेलकम टू कराची
-अजय ब्रह्मात्मज
भारत और पाकिस्तावन के बीच पल रहे दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों को तोड़ती कुछ फिल्मों की कड़ी में ‘वेलकम 2 कराची’ को भी रखा जा सकता है। दोनों देशों के बीच किरदारों के मेल-मिलाप, हंसी-मजाक और हास्यास्पद प्रसंगों से मौजूद तनाव को कम करने के साथ समझदारी भी बढ़ सकती है। ‘फिल्मिस्तान’ ने यह काम बहुत खूबसूरती के साथ किया था। अफसोस कि ‘वेलकम 2 कराची’ का विचार तो नेक, कटाक्ष और मजाक का था, लेकिन लेखक-निर्देशक की लापरवाही से फिल्म फूहड़ और कमजोर हो गई। कई बार फिल्में पन्नों से पर्दे तक आने में बिगड़ जाती हैं।
याद करें तो कभी इस फिल्मं में इरफान खान थे। अभी जो भूमिका जैकी भगनानी ने निभाई है, उसी भूमिका को इरफान निभा रहे थे। क्या उन्होंने इसी स्क्रिप्ट के लिए हां की थी या जैकी के आने के बाद स्क्रिप्ट बदली गई और उसका यह हाल हो गया? सोचने की बात है कि हर कलाकार किसी और का विकल्पय नहीं हो सकता। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेपरवाह रवैए की ओर भी यह फिल्म इंगित करती है। कैसे स्वार्थ और लोभ में विचारों की हत्या हो जाती है? कई बार सफल निर्माता की सोच मूल विचार पर थोपी जाती है तो उसका नतीजा ‘वेलकम 2 कराची’ के रूप में सामने आता है। हर फिल्म के निर्माण में पैसा, मेहनत और समय लगता है। ऐसी कोशिशों में सब व्येर्थ हो जाता है।
दो लूजर शम्मीर और केदार एक दुर्घटना की वजह से अनजाने ही कराची पहुंच जाते हैं। उन्हें भारतीय जासूस व आतंकवादी समझा जाता है। दोनों अलग-अलग किस्म के संगठनों के हाथों इस्तेमाल किए जाते हैं। उनसे कुछ ऐसा हो जाता है कि उन्हें पाकिस्तान पहचान भी मिलती है। गलतफहमी की इस निर्दोष यात्रा में हंसी के पल आते हैं। दोनों किरदारों की टिपपणियों में कटाक्ष भी रहता है, लेकिन निर्देशक उसे बढ़ाते या गहराते नहीं हैं। वे तुरंत किसी फूहड़ एवं हास्यास्पाद स्थिति का सृजन कर जबरन हंसाने की कोशिश करते हैं। फिल्म में मोड़ से अधिक मरोड़ हैं, जो एक समय के बाद तकलीफदेह हो जाते हैं।
अरशद वारसी अपनी काबिलियत से भी फिल्म का नहीं बचा पाते। दरअसल, उन्हें एक कमजोर कलाकार के साथ नाथ दिया गया है, इसलिए कॉमेडी की गाड़ी ढंग से चल ही नहीं पाती। केदार को गुजराती लहजा देने का आइडिया अच्छा था, लेकिन कलाकार को भी मेहनत करनी चाहिए थी। ‘यंगिस्तान’ से जैकी भगनानी ने उम्मीए जगाई थी। इस फिल्म से वह उम्मीद धुल गई। अभिनेत्री और सहयोगी कलाकारों के लिए न तो पर्याप्त संवाद थे और न दृश्य। सही सोच और कल्प्ना न हो तो वीएफएक्सर बुरा हो जाता है। ‘वेलकम 2 कराची’ उसका भी नमूना है।
अवधि : 131 मिनट
स्टार : ** दो स्टार
भारत और पाकिस्तावन के बीच पल रहे दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों को तोड़ती कुछ फिल्मों की कड़ी में ‘वेलकम 2 कराची’ को भी रखा जा सकता है। दोनों देशों के बीच किरदारों के मेल-मिलाप, हंसी-मजाक और हास्यास्पद प्रसंगों से मौजूद तनाव को कम करने के साथ समझदारी भी बढ़ सकती है। ‘फिल्मिस्तान’ ने यह काम बहुत खूबसूरती के साथ किया था। अफसोस कि ‘वेलकम 2 कराची’ का विचार तो नेक, कटाक्ष और मजाक का था, लेकिन लेखक-निर्देशक की लापरवाही से फिल्म फूहड़ और कमजोर हो गई। कई बार फिल्में पन्नों से पर्दे तक आने में बिगड़ जाती हैं।
याद करें तो कभी इस फिल्मं में इरफान खान थे। अभी जो भूमिका जैकी भगनानी ने निभाई है, उसी भूमिका को इरफान निभा रहे थे। क्या उन्होंने इसी स्क्रिप्ट के लिए हां की थी या जैकी के आने के बाद स्क्रिप्ट बदली गई और उसका यह हाल हो गया? सोचने की बात है कि हर कलाकार किसी और का विकल्पय नहीं हो सकता। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेपरवाह रवैए की ओर भी यह फिल्म इंगित करती है। कैसे स्वार्थ और लोभ में विचारों की हत्या हो जाती है? कई बार सफल निर्माता की सोच मूल विचार पर थोपी जाती है तो उसका नतीजा ‘वेलकम 2 कराची’ के रूप में सामने आता है। हर फिल्म के निर्माण में पैसा, मेहनत और समय लगता है। ऐसी कोशिशों में सब व्येर्थ हो जाता है।
दो लूजर शम्मीर और केदार एक दुर्घटना की वजह से अनजाने ही कराची पहुंच जाते हैं। उन्हें भारतीय जासूस व आतंकवादी समझा जाता है। दोनों अलग-अलग किस्म के संगठनों के हाथों इस्तेमाल किए जाते हैं। उनसे कुछ ऐसा हो जाता है कि उन्हें पाकिस्तान पहचान भी मिलती है। गलतफहमी की इस निर्दोष यात्रा में हंसी के पल आते हैं। दोनों किरदारों की टिपपणियों में कटाक्ष भी रहता है, लेकिन निर्देशक उसे बढ़ाते या गहराते नहीं हैं। वे तुरंत किसी फूहड़ एवं हास्यास्पाद स्थिति का सृजन कर जबरन हंसाने की कोशिश करते हैं। फिल्म में मोड़ से अधिक मरोड़ हैं, जो एक समय के बाद तकलीफदेह हो जाते हैं।
अरशद वारसी अपनी काबिलियत से भी फिल्म का नहीं बचा पाते। दरअसल, उन्हें एक कमजोर कलाकार के साथ नाथ दिया गया है, इसलिए कॉमेडी की गाड़ी ढंग से चल ही नहीं पाती। केदार को गुजराती लहजा देने का आइडिया अच्छा था, लेकिन कलाकार को भी मेहनत करनी चाहिए थी। ‘यंगिस्तान’ से जैकी भगनानी ने उम्मीए जगाई थी। इस फिल्म से वह उम्मीद धुल गई। अभिनेत्री और सहयोगी कलाकारों के लिए न तो पर्याप्त संवाद थे और न दृश्य। सही सोच और कल्प्ना न हो तो वीएफएक्सर बुरा हो जाता है। ‘वेलकम 2 कराची’ उसका भी नमूना है।
अवधि : 131 मिनट
स्टार : ** दो स्टार
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