हिमांशु शर्मा का इंटरव्यू
गजेन्द्र सिंह भाटी ने 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' के लेखक हिमांशु शर्मा का विस्तृत इंटरव्यू किया है। उनके ब्लॉग फिलम सिनेमा से इसे साभार लिया गया है चवन्नी के पाठकों के लिए।
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‘क्वीन’ के बाद कंगना रणौत को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा।
उन्हें शीर्ष कलाकारों ने निजी तौर पर बधाई दी। अपनी
कतार में आने का आभास दिया। लेकिन ‘तनु वेड्स मनु’ न होती तो ‘क्वीन’
भी न होती और कंगना को सकारात्मक छवि नहीं मिलती। एक बाग़ी, खिलंदड़,
वर्जित कार्य करने वाले ऐसी
नायिका पहले
यूं न दिखी। बदल रहे वक्त में
हिमांशु शर्मा ने तनु का पात्र सही टाइमिंग से लिखा।
हालांकि फिल्म के अंत को लेकर आपत्तियां हैं लेकिन शुरुआत के लिए ही सही फिल्म उपलब्धि थी। बहुत समय बाद लोकगीतों वाली
मिठास “तब मन्नू भय्या का करिहैं” गाने में
चखी गई। कानपुर या अन्य उत्तर भारतीय शहरों के मध्यम वर्गीय लोगों और उनके संतोषों का चित्रण भी
मौलिक तरीके से पेश हुआ।
बाद में निर्देशक आनंद राय के साथ हिमांशु की लेखनी ‘रांझणा’ लेकर आई। बनारस और दिल्ली स्थित देसी पात्रों की कहानी। अब ‘तनु वेड्स मनु’ रिटर्न्स ला रहे हैं। शुक्रवार 22 मई को रिलीज से पहले हिमांशु से बात हुई। वे मृदुभाषी, खुले, विनम्र, आत्म-विश्वासी और चतुर हैं। वे लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में कॉलेज की पढ़ाई कर चुके हैं। ‘टशन’ में उन्होंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर सीमित काम किया। फिर फिल्म लेखन की ओर मुड़ गए। ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ के बाद वे आनंद के साथ एक अन्य फिल्म पर काम करेंगे। वे बतौर निर्देशक भी एक फिल्म बनाएंगे। ये भी लखनऊ में ही स्थित होगी। स्क्रिप्ट लिख रहे हैं। आने वाले पांच-छह वर्षों के लिए उनके जेहन में कुछ कहानियां हैं। उनसे बातचीत: संक्षेप में या विस्तार से अपनी अब तक की जर्नी को कैसे देखते हैं? मुझे लगता है अभी मैंने जीवन में उतना काम किया नहीं है। कि मुड़कर देखूं और सोचूं कि जर्नी कैसी रही है। मेरे पास बहुत बॉडी ऑफ वर्क नहीं है। किसी एक लेवल पर निरंतरता के साथ अच्छा काम करने के लिए आपको कुछ और फिल्में चाहिए होती हैं। जितने भी बड़े राइटर्स हैं उनका एक बॉडी ऑफ वर्क रहा है। मुझे नहीं पता कि अभी मेरी जर्नी को जर्नी कहा भी जाना चाहिए या नहीं। ये महज तीसरी फिल्म है मेरी जो मैंने लिखी है। ये जरूर कहूंगा कि पहली फिल्म में भी वही लिखा जो मुझे ठीक लगा कि हां ये मजा दे रहा है, या ये मुझे उदास कर रहा है, या ये मुझे हंसा रहा है। मुझे हंसा रही है तो कहानी सबको हंसाएगी, उसी उम्मीद के साथ मैंने कोई भी अपना काम किया है। तो ‘रांझणा’ और ‘तनु मनु-1’ तक तो ठीक ही लग रहा है मामला। अब बाकी इसमें देखते हैं कितना पसंद आता है सबको। आपकी पहली फिल्म थी ‘स्ट्रेंजर्स’, उसका एक डायलॉग है (जिमी शेरगिल का किरदार बोलता है), “मुझे लगता है कि लिखने में और शिट करने में कोई खास फर्क नहीं होता। ये एक ही चीज है। जो आपको परेशान कर रहा है वो सब आप निकाल देते हो। ये भी राइटिंग के साथ है”.. (हंसते हुए) दरअसल वो कॉन्सेप्ट मेरा था लेकिन उसे लिखा मेरे एक दोस्त हैं गौरव सिन्हा उन्होंने था। स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स पूरे उनके थे। लेकिन, हां वो बड़ी अजीब लाइन है.. मैं इस संदर्भ में पूछ रहा था कि ‘तनु वेड्स मनु’ लिखने से पहले क्या कुछ परेशान कर रहा था या सिर्फ लोगों का मनोरंजन करना था? कोई ऐसी नीड नहीं थी। पढ़ रहा था दिल्ली में। यहां काम ढूंढ़ रहा था। असिस्टेंट डायरेक्टर बना। वाहियात किस्म का असिस्टेंट डायरेक्टर था मैं। बहुत ही बुरा। मैंने ‘टशन’ में असिस्ट किया विजय कृष्ण आचार्य जी को। उस दौरान मुझे लगा कि भई ये काम तो नहीं हो सकता। अगर मुझे फिल्म डायरेक्ट करनी हो और मुझे ऐसा एडी (असिस्टेंट डायरेक्टर) मिले तो मैं तो गोली मार देता। मैं बहुत ही बुरा था। मेरे पास और कोई चॉइस नहीं थी। लिखने का मन था तो उसके बाद लगा कि भई एडीगिरी तो नहीं हो सकती। तो लिखना शुरू किया फिर ‘तनु वेड्स मनु’ लिखी। ठीक रहा उसका हिसाब-किताब। तो ‘रांझणा’ लिखी फिर। ऐसा कुछ नहीं था कि उथल पुथल चल रही है कहानी कहने की या कुछ बात बोलने की। ऐसा नहीं है। वो बड़ा मजबूरी का काम था। कि भईया ये काम नहीं हो सकता, ये काम कर लो। हां, ‘राझंणा’ के वक्त... मैं ये जरूर कहूंगा कि ‘तनु-मनु’ लिखने के बाद मैं जिस जगह खुद को, अपने दिमाग को, मन को पा रहा था वहां मैं कुछ ऐसा अटेंप्ट करना चाहता था जो इमोशन और ड्रामा के लिहाज से बहुत ओवरवेल्मिंग (भावुक, जोरदार) हो। तो वो कहानी बहुत दिल से निकली। क्योंकि सब कह रहे थे कि ‘तनु मनु’ चल गई है तो तुम्हे ‘टू’ (सीक्वल) लिखनी चाहिए। या कुछ इस जॉनर (श्रेणी) का लिखना चाहिए। लेकिन मैं ‘रांझणा’ लिखना चाहता था और वो बहुत इमोशनल नीड थी मेरी। वो कहानी आजमाने की। ‘तनु मनु’ लिखते वक्त मैं सिर्फ असिस्टेंट डायरेक्शन से भागना चाहता था। तनु का किरदार आपने क्यों रचा? क्योंकि जैसे सिंगल स्क्रीन के आधारभूत दर्शक को तब देखा, वो एक बार के लिए चकरा गया कि ये लड़की कर क्या रही है? इस लड़के से इतना बुरा सलूक क्यों कर रही है? और हम इतनी बिगड़ी हीरोइन वाली फिल्म क्यों देख रहे हैं? इससे पहले हीरोइन उन्होंने ऐसी देखी थी मसलन, दक्षिण की तकरीबन सभी फिल्मों की जो अपनी मूर्खता और नाज़-नखरे से हीरो को रिझाती रहती है और दर्शक भी खुश होता है। वो भी ये समझता है कि मैं राजकुमार हूं और ये मुझे एंटरटेनमेंट दे रही है। कमर्शियल सिनेमा के उन पारंपरिक दर्शकों के बारे में सोचा था कि लिख रहे हैं और प्रतिक्रिया कैसी आएगी? औरत या मर्द होने से पहले इंसानी तौर पर आप उस चीज को देखें तो मुझे ऐसा कोई बहुत चमत्कारिक काम नहीं लग रहा था। मतलब मेरी खुद की कॉलेज के टाइम में ऐसी बहुत सी दोस्त रही हैं। और एक छोटा सा एनार्किक नेचर होना या एक तरीके की खुदपसंदी कहना ज्यादा बेहतर होगा इसे.. खुदपसंदी ऐसी है कि बाकी कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। तो मुझे ये बड़ा नेचुरल, बहुत ह्यूमेन लगा। बहुत ही आम लड़की जैसा लगा। और मुझे लगता है बहुत सारी चीजें हमारी फिल्मी समझ से बनती हैं। क्योंकि हमने ऐसा खुद देखा है तो वही लिख रहे हैं। या वही बना रहे हैं। अपना जो देखा है आप उसे एक बार ट्राई तो करिए। और मेरा ये सिंपल रूल है कि आपको खुद ये काम करते हुए मजा आ रहा है ... मैं कोई प्रशिक्षित राइटर नहीं हूं, मैंने कहीं से कोई ट्रेनिंग नहीं ली है ऐसे ही काम चल रहा है भगवान भरोसे - तो उसमें ये है कि एक सीन के बाद दूसरा सीन देखने में अगर मुझे मजा आ रहा है तो बाकी लोगों को भी आएगा यार। मैं थोड़े ही न मार्स (मंगल) से आया हूं। जमीन से ही उठा हुआ इंसान हूं। लखनऊ में परवरिश हुई। 120-130 करोड़ की जनता के बारे में सोचकर अपना काम करेंगे तो कनेक्ट करेगा। मैंने जब तनु का किरदार लिखा तो मेरे मन में ऐसा नहीं था कि ओ, मैं बड़ा पाथब्रेकिंग कुछ लिख रहा हूं। मुझे यही आता था। मुझे ये ही लड़की पता थी। मुझे ये ही लड़की लिखनी थी। उसके अलावा कुछ और लिखने के काबिल भी नहीं था। तो आई थिंक उसमें कोई प्लानिंग नहीं थी ऐसी। मुझे जो समझ में आया मैंने वो काम किया। अब बाकी वो दस में से छह लोगों को पसंद आया है कि दो लोगों को, वो अलग बात है। फिल्म की आलोचना भी हुई। कौन सी आलोचना आपको उचित लगी? लगा कि आपको आने वाले काम में कुछ बेहतर करने में मदद करेगी? ज्यादातर क्रिटिकल इवैल्युएशन (आलोचनात्मक मूल्यांकन) पर ध्यान देना मैं बेहतर समझता हूं। जो चीज पसंद आई वो तो बहुत अच्छी बात है, हमें थैंकफुल होना चाहिए। लेकिन पसंद आई ये दोबारा, बार-बार पढ़कर के आप क्या कर लेंगे? उस पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए कि कौन सी चीजों ने काम नहीं किया। बहुत सारी शिकायतें थीं, अच्छे-खासे लोगों ने दिक्कतें जताई थीं। चाहे वो ‘रांझणा’ हो या ‘तनु मनु’ हो, दोनों में ही ऐसा हुआ। ..पर मुझे लगता है एक क्रिटीक और एक राइटर में फर्क होता है। मुझे लगता है एक क्रिटीक का एक ऑब्जेक्टिव व्यू (वस्तुपरक नजरिया) होता है। एक लिट्ररेरी डिसकोर्स के साथ वो उसको देखता है या समझ उसकी एक अलग तरीके की होती है बनिस्पत उस शख्स के जो खुद लिख रहा है। मुझे नहीं लगता कि दुनिया में कोई अनबायस्ड राइटिंग (पूर्वाग्रह-रहित लेखन) होती है। आपका झुकाव कहीं न कहीं होगा! बिलकुल होगा! आपका अपना अनुभव, आपका अपना चरित्र झलकेगा और वो होना चाहिए। आप निबंध नहीं लिख रहे। आप एक कहानी लिख रहे हैं। तो उसमें कुछ अच्छी चीजें भी होंगी और कुछ बुरी चीजें भी होंगी। और मुझे लगता है वो इमपरफेक्शन जो है वो भी आपका ही हिस्सा है। उससे आप घबराएं मत। उससे दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है। हां, ये भी है कि आप मुंह भी न मोड़े उस आलोचना से। आपको लगता है कि आपकी राइटिंग में आगे क्राफ्ट के लिहाझ से आलोचना मदद कर पाएगी तो आप निश्चित तौर पर उसे समझें। एक आलोचना ये रही कि अंत में आखिर आपने तनु को संस्कारी बना ही दिया? शादी ही आखिरी रास्ता रखा? अगर आप उसे वैसा ही रहने देते तो क्या ये फिल्म खास नहीं हो जाती? रैट्रोस्पेक्ट में सोचूं तो हां बिलकुल, कहानी को ऐसे भी रखा जा सकता था। मेरे दिमाग में नहीं आया। शायद मुझे यही करते हुए ज्यादा यकीन आ रहा था अपनी कहानी पर। देखिए साब, इसी कहानी को कोई एक राइटर दूसरे तरीके से लिखेगा, एक डायरेक्टर दूसरे तरीके से बनाएगा। इसी कहानी को मैं इस तरीके से लिखना पसंद करूंगा और आनंद राय इसी तरीके से बनाना पसंद करेंगे। तभी तो इतनी मात्रा में भिन्न-भिन्न फिल्में हैं। क्योंकि इतने सारे दृष्टिकोण हैं। मुझे लगता है ऐसा हो सकता था लेकिन हो तो कुछ भी सकता था। होने को क्या नहीं हो सकता? किसी भी कहानी में। मैंने वही लिखा जिसमें मेरा खुद का भरोसा था। तनु के किरदार को लेकर कंगना ने आपसे क्या चर्चा की? और आमतौर पर फिल्म के कलाकार स्क्रीनराइटर से मिलकर अपने रोल को कितना समझते हैं? बिलकुल, एक्टर्स मिलते हैं, चर्चा करते हैं। एक्टर्स अमूमन अब खुल गए हैं। उनमें एक स्तर की इंटेलिजेंस, स्मार्टनेस, दृष्टिकोण, मैक्रो लेवल पर कहानी को समझने की ताकत ... ये आई है। बढ़ी है। आपने भी देखा होगा कि अचानक से जो स्टार परसोना हुआ करता था वो बदला है। सोशल मीडिया के उदय के बाद से। एक कनेक्ट अलग हुआ है, स्टार्स का। उनका तरीका अलग हुआ है अपने दर्शकों से बात करने का। मुझे नहीं लगता कि अब कोई भी सिंहासन पर ऊपर बैठा है जिस पर 60 और 70 के दशक में स्टार्स बैठा करते थे। आज की डेट में ट्विटर पर आप अमिताभ बच्चन साहब को भी बोल देते हैं, शाहरुख साहब को भी आप कुछ बोल देते हैं, रणबीर कपूर से भी आप कुछ बोल सकते हैं। और वो जवाब भी देते हैं आपको। इनकी अप्रोच बहुत बदली है अपने स्टारडम को लेकर। इसी का परिणाम मैक्रो लेवल पर कहानी में उनकी दिलचस्पी के रूप में आया है। कंगना जी की बात करूं तो उनकी कहानी को लेकर बहुत अच्छी समझ है। किरदार को लेकर हमारी पहली फिल्म में भी बात हुई थी। बहुत खुलकर बात हुई। उन्होंने अपने बिंदु रखे। वो सारी बातें जो उन्हें लग रही थीं। और स्क्रिप्ट ही है, कुरआन तो है नहीं कि ऊपर से लिखकर आई है। जिस एक्टर को परफॉर्म करना है वो स्क्रिप्ट से कम्फर्टेबल होना चाहिए। एक बात मोटा-मोटी समझ में आ गई उसके बाद लाइन्स तो बदली जा सकती हैं। एक लेखक या निर्देशक (भविष्य के) के तौर पर आपकी आंखों में आज के किन एक्टर्स के देखकर चमक आती है जो आपके किरदारों को एक अलग ही धरातल पर ले जा सकते हैं? मुझे लगता है कि रणबीर कपूर बहुत कमाल के एक्टर हैं। उनसे मिलना भी हुआ है। मुझे जितनी समझ उनकी दिखती है या उनके काम में दिखती है वो बेदाग़ है। वो बहुत नया काम कर रहे हैं। भविष्य में अगर उनके काबिल स्क्रिप्ट हुई तो जरूर उनके साथ काम करना चाहूंगा। ‘तनु वेड्स मनु’ की तेलुगु रीमेक ‘मि. पेल्लीकोडुकू’ से आप कितने संतुष्ट थे? क्या आपको नहीं लगता उसमें आपके पात्रों की सेंसेबिलिटीज इतनी बदल गई थीं कि मर गई थीं? मैंने ट्रेलर देखा था उसका। मुझे लगा कि यार बेकार में पैसे खर्च किए और राइट्स लिए। ऐसे ही बना लेना चाहिए था। ये तो वो फिल्म है ही नहीं। आपने यूं ही पैसे खर्च कर दिए। ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ की कहानी वाकई में आपको कहनी थी कि कमर्शियल वजहों से ही लिखी? मुझे कहनी ही थी। मजेदार बात बताता हूं आपको। ‘तनु मनु’ के बाद सबने बोला कि ये काम कर रही है तुम पार्ट-2 लिख दो। लेकिन कुछ दिमाग में आ ही नहीं रहा था। मैंने कहा क्या लिख दो? खत्म है ये कहानी। तब मैं ‘रांझणा’ लिखना चाहता था। लिखी। फिर ‘रांझणा’ के दौरान दिमाग में ये कहानी आई। एक कॉन्सेप्ट बना। मुझे लगा कि हां यार ये मजेदार है। ये कहानी कही जा सकती है और मेरा कहने का मन है। इसमें एक पैसे की भी दूसरी बात नहीं थी। अगर कमर्शियल पहलू की वजह से बनानी होती तो मैं तुरंत ही बना देता। ‘तनु मनु-1’ के बाद ये आ जाती। ‘रांझणा’ बनाने के बाद जब लगा कि इस दुनिया में जाया जा सकता है तभी गए। वरना मैं कहां से लिख लेता। जबरदस्ती की कहानी तो दिखाई दे जाती।
इसमें दत्तो का किरदार आपने हरियाणा का ही क्यों लिया, किसी और प्रदेश का रख सकते थे?
आप फिल्म देखेंगे तो बिलकुल समझ आएगा कि ये हरियाणा से ही क्यों है। ये कहीं और की नहीं हो सकती थी। ये बहुत नेचुरल और ऑर्गेनिक तरीके से आया, ज्यादा गणित लगानी ही नहीं पड़ी। कि ये कहां की हो, अरे इसे वहां का बना दें तो ज्यादा मजा आएगा। ऐसा बिलकुल नहीं था। मुझे लगता है कोई भी कहानी अपना चरित्र और अपनी पृष्ठभूमि खुद ही बता देती है। ‘रांझणा’ जैसी कहानी लखनऊ में नहीं घट सकती थी, ‘तनु मनु’ जैसी कहानी बनारस में नहीं घट सकती थी। क्योंकि बनारस उतनी इंटेंसिटी देता है जो ‘रांझणा’ में थी। एक इमोशनल ओवरवेल्मिंगनेस देता है। और कुंदन का चरित्र जो है वो लखनऊ में नहीं पाया जाता। वो बनारस की पैदाइश है। वो बनारस में ही पनप सकता है। ‘तनु मनु’ की कहानी भी लखनऊ में ही सेट हो सकती थी। इसलिए दत्तो का कैरेक्टर सिर्फ हरियाणा से ही आ सकता था। मेरी समझ से कम से कम। तो बहुत नैचुरली आया है वो। इसके लिए मैंने कोई एक पैसे का गणित नहीं लगाया है। पिछली ‘तनु..’ में ‘जुगनी..’ गाना रखा गया था, इसमें भी ‘बन्नो..’ गाने में नायिका के लिए संबोधन जुगनी है। क्या जुगनी का कोई संदर्भ है, कोई बैक स्टोरी है? जुगनी तो हमारा फोक का ही गाना है पंजाब का। और जुगनी किसी भी संदर्भ में बहुत तरीके से इस्तेमाल की गई है। वो कभी आपकी माशूका होती है, कभी कुछ और होती है, कभी सिर्फ एक विचार होती है। आपको जो बात कहनी है, वो हर बात जुगनी कह सकती है। जुगनी का कोई चेहरा नहीं है। वो विचारात्मक लेवल पर ऑपरेट करने वाली टर्म है। आपको अगर डर लग रहा है सीधे कहने में तो जुगनी के नाम पर कह दीजिए। चाहे आरिफ लोहार हों या पंजाब के दूसरे लोक गायक हों, उनके द्वारा जुगनी का अलग-अलग तरह से, अलग-अलग रेनडिशन में अलग-अलग बात के लिए इस्तेमाल किया गया है। ये तो बहुत पारंपरिक विचार है। कि जुगनी है जो ये बात कह सकती है। जुगनी कौन है, मुझे लगता है ये तो किसी को नहीं पता। पहली फिल्म में आपने ‘जुगनी..’ गाना रखा, सीक्वल में ‘बन्नो..’ गाना है। इन पुराने गीतों को रिवाइव करने की वजहें थीं? ‘बन्नो..’ ये रहा कि कनिष्क और वायु जो फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर हैं, हमसे फिल्म के मिड में मिले। बहुत सारे म्यूजिक डायरेक्टर्स अपना कुछ-कुछ भेज रहे थे। साथ काम करने का मन था सभी का। ये गाना सुनते ही हम लोगों को बड़ा मजेदार लगा। और फिल्म की दुनिया का लगा। ऐसा नहीं लग रहा था कि अरे, जबरदस्ती कोई गाना ठूसना पड़ रहा है। बहुत नेचुरल ऑर्गेनिक तरीके से वो उस फिल्म में घुल रहा था। तो ले लिया। और एक ट्रेडिशनल वैल्यू भी थी उसकी। फोक बेस्ड गाना है वो। पहली फिल्म में ‘रंगरेज..’ गाना था इसमें ‘घणी बावरी..’ है... क्या आपको लगता है धुन प्रधान भविष्य में लिरिक्स बचे रह पाएंगे? राजशेखर जो लिरिक्स लिखते हैं हमारे, वे कॉलेज के वक्त से साथ हैं हमारे। हमेशा उन्होंने विचार पर गाना लिखा है। शब्दावली पर वो आदमी उतना निर्भर नहीं रहता जितना विचार पर रहता है। उनसे हमेशा एक नया थॉट मिलता रहा है चाहे वो ‘रंगरेज..’ हो, ‘घणी बावरी..’ या ‘ओ साथी मेरे..’ जो सोनू जी ने गाया है। वो विचार प्रधान लिखते आए हैं और हमें भी वही जंचता है। कुछ बात जैसी बात हो तो आप बोलिए। ‘बन्नो..’ गाने में बोल हैं – ‘बन्नो तेरा स्वैगर लागे सेक्सी..’ यहां सेक्सी शब्द के मायने क्या हैं? मेरे लिए सेक्सी का अर्थ था तेवर। एक टशन जो होता है न। बन्नो की इस स्वैगर में टशन है यार। एक बात है इसमें। एक उम्फ फैक्टर है। तो मुझे लगता है हमने उसे यूं लिया था। ‘रांझणा’ में एक दृश्य है जहां जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) में धनुष को स्टूडेंट घेर लेते हैं कि वो चोर है। और सुबह तक बैठकर ये जान पाते हैं कि वो चोर क्यों बना क्योंकि वो गरीब है? क्या ये तंज जरूरी था और क्या जेएनयू में होने वाली बौद्धिक चर्चाओं को आप सतही और खोखली मानते हैं? नहीं, नहीं ये वाकया सच में हुआ है। मैं जेएनयू या वहां के बौद्धिक एलीट या नॉन-एलीट, या शिक्षाविदों के खिलाफ हूं ऐसी कोई बात नहीं है। पर ये वाकया (फिल्म वाला) वहां घटा है और मुझे पता है इसीलिए मैंने उसको लिखा। मतलब ओवरऑल जेएनयू या वहां के विचारों का ये प्रतिनिधित्व नहीं करता? मुझे लगता है हिंदुस्तान का सबसे प्रेमियर इंस्टिट्यूट है वो। वहां से जितने लोग निकले हैं उनकी राजनीतिक समझ और उनका योगदान अभूतपूर्व है। इसके लिए तो उन्हें किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। उस किस्से से कोई लेना देना नहीं था। वो चरित्र जो अभय देओल का था मुझे लगा कि ये इस दुनिया में एक अच्छापन देगा। आनंद से आप पहली बार कब मिले थे? आप दोनों इतने लंबे भागीदार किन कारणों से बन पाए? मैं 2004 में पहली बार उनसे मिला था। वो एक कंपनी में कुछ नौकरी टाइप वाला काम कर रहे थे। उससे पहले उन्होंने बहुत सारा टेलीविजन किया था। और अब उन्होंने अपना टेलीविजन करना छोड़ दिया था, वो प्रोड्यूस भी कर रहे थे, डायरेक्ट भी कर रहे थे और काफी अच्छा कर रहे थे। पर वो भी उकता गए उसी काम को करते हुए। वो भी ऐसे ही घूम रहे थे। मैं 2004 में बॉम्बे पहुंचा ही था। उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि फिल्म तो यार ऐसी कुछ है नहीं पर मैं बनाने की कोशिश कर रहा हूं। बाकी तुम बता दो तुम्हारा खर्चा कितने में चल जाएगा महीने में। मैं उतने का जुगाड़ करवा देता हूं तुम्हारा और कुछ करते हैं साथ में। तो उस तरीके से शुरू हुआ। बट, मुझे लगता है वो एसोसिएशन चलने का एक बहुत बड़ा कारण ये रहा कि मैं कभी भी कमीशन्ड राइटिंग नहीं कर पाया। कि मतलब किसी का एक सबजेक्ट हो और आप बस स्क्रीनप्ले लिख दीजिए, डायलॉग लिख दीजिए। शायद इसीलिए न मैं बाहर काम भी नहीं कर पाया। मैं वही लिख सकता हूं जो मेरा मन है। और आनंद अपना मूड बना लेते हैं वही काम करने का जो मेरा मन है। तो अगर इसके बाद मेरा मन एक एक्शन फिल्म लिखने का है तो दो-तीन महीने में ही जब तक मैं इस कहानी पर काम कर रहा होऊंगा वो अपना मन बना लेंगे कि अगली एक्शन बनानी है। एक तरीके से उनका मन नहीं होता मेरा मन हो जाता है कि किस जॉनर में काम करना चाहिए। मेरा मन था ‘रांझणा’ करने का और उन्होंने अपने मन में उस तरीके से ढाल लिया। एक ट्रैजिक कहानी लिखने का मेरा मन था, वो उनका नहीं था पर वो ढाल लेते हैं खुद को। और वो उस तरह के नहीं कि बोले, दस सीन हो गए आओ बैठ कर बात करें। नहीं। पूरी स्क्रिप्ट जब मैं सुनाता हूं तब वो सुनते हैं। निश्चित तौर पर हम रोज मिलते हैं, रोज ऑफिस में बैठकर बातें होती हैं। खाना साथ हो जाता है। उन सबके चलते एक बातचीत रहती है। वो दुनिया मैं उनको दिखा देता हूं। पर जो सीन-दर-सीन प्रोग्रैशन कहानी का वो उन्हें बाद में ही पता चलता है। और उस पर मुझे नहीं याद उन्होंने कभी कोई बदलाव बताए हों, उन्हें दिक्कत लगी हो। लेकिन उनको जो चीज करनी होती है उसे वो करते हैं। यही सबसे बड़ी वजह है कि हम बहुत अच्छे से घुलते हैं। मुझे इसीलिए उनके साथ काम करने में हमेशा मजा आया है।
दोनों में कोई रचनात्मक मतभेद नहीं होते? होते हैं तो सुलझाते कैसे हैं?
होते हैं बिलकुल होते हैं, जैसे सबके साथ होते हैं। वो जिस किस्म के डायरेक्टर हैं उन्हें जोर किसी चीज पर अच्छा नहीं लगता। जैसे, आपको लगता है कि कहानी में बहुत भारी ट्विस्ट है, वो उसे ऐसे पेश करते हैं जैसे कोई बात ही न हो। और जो आपको एवेंई सी बात लगती है उसे वे बड़ा बना देते हैं। तो उनका एक बड़ा रोचक तरीका है काम करने का। उससे कई बार नाइत्तेफाकी रहती है मेरी। उन चीजों को लेकर हमारी कई बार बहस हुई है। लेकिन वो ज्यादा-कम बहस तक ही रही है। उसकी वजह से ऐसा कोई अंतर नहीं आ गया। वो कौन सी घटना, किताब या बात थी जिससे आप फुल टाइम राइटर बने? सच बताऊं तो ऐसा कुछ न था। ऐसा तो था नहीं कि मैं बड़ा इलाहाबाद का कलेक्टर लगा था और छोड़कर आ गया। कॉलेज खत्म किया। फिर एक साल एनडीटीवी में काम किया। वहां एक हेल्थ शो लिखता था मैं। नॉन-फिक्शन काम में मजा नहीं आया, बॉम्बे आ गया। कुछ दोस्त आ रहे थे। उनके साथ आ गया। कुछ दिन असिस्टेंट डायरेक्शन किया। उसमें लगा कि यार ये काम मेरी सर्वश्रेष्ठ कोशिश नहीं है। .. फिर लिखने का मन था। कि यार लिख सकता हूं कोई कहानी। कहानियों के प्रति एक रूझान रहा है। लिट्रेचर का स्टूडेंट रहा हूं। तो उस तरीके से एक झुकाव था लिखने पे। मेरे पास ऐसा कोई भारी कारण नहीं है कि मैं क्यों लिख रहा हूं और न मैं सोचता हूं इस तरीके से। मुझे कतई नहीं लगता कि बड़ा भारी काम आप कर रहे हैं फिल्में बनाके। इससे बेहतर और जरूरी काम भी हैं दुनिया में। अभी मेरी किसी से यही बात हो रही थी कि इतना घमंड और इतना इतराना, ये किस बात का? आप पेट्रोल नहीं पैदा कर रहे न। स्टील नहीं बना रहे। देश आप पर निर्भर नहीं है। आप अच्छे समय के दोस्त हैं। आप लेजर (आनंद, विलासिता) बिजनेस में हैं। जब लोगों के पेट भरे होंगे, उनको तब आपकी याद आएगी। पहले बंदर नाचता था, भालू नाचता था। अब आप ये करके दिखा दीजिए। अपने परिवार के बारे में कुछ बताएं। और परवरिश के दौरान की वो चीजें या वाकये जिन्होंने आपको आज ऐसा बनाया? मैं एकमात्र हूं घर में जो फिल्मों में हूं। बाकी मेरे घर में सारे ही गवर्नमेंट जॉब्स में रहे। मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग में थे। दो साल पहले रिटायर हुए। मेरी मम्मी हाउसवाइफ हैं। मैं सबसे बड़ा हूं बच्चों में, उसके बाद एक बहन है और एक भाई है। बहन मेरी सिंगापुर में सेटल्ड है और भाई इंजीनियर है। और आप यकीन जानिए ग्रैजुएशन सैकेंड ईयर तक मैं यूपीएससी की तैयारी कर रहा था। पर उस दौरान मैं थियेटर भी करने लगा था। किरोड़ीमल कॉलेज में जहां से मैंने अपना ग्रैजुएशन किया। वहां उनका थियेटर ग्रुप था द प्लेयर्स। एमेच्योर लेवल का ग्रुप है ये। प्रफेशनल नाटक नहीं होते। पर वो तीन साल मेरी जिंदगी के निर्णायक बिंदु हैं। वहां पर जाकर बहुत सीखा। वहां स्टाफ एडवाइजर थे केवल अरोड़ा। उन्होंने द प्लेयर्स के सारे ही लोगों की जिंदगी को बहुत प्रभावित किया। उससे पहले लखनऊ में ही मैंने स्कूलिंग की थी। पर वहां आकर के... वो आपको ये नहीं बताते कि कैसे बेहतर एक्टर बन जाएं या कैसे बेहतर राइटर बन जाएं या कैसे बेहतर स्टेज डायरेक्टर बन जाएं लेकिन एक बेहतर इंसान बनना, एक बेहतर सोच आना वो उस संस्था ने जरूर सिखाया। हम सभी को। राजशेखर जो हमारी फिल्म के गीतकार हैं, वो भी वहीं से हैं। और काफी लोग हैं। विजय कृष्ण आचार्य वहीं से हैं। कबीर खान जो हैं, वो वही से हैं। तो बहुत कमाल के वो तीन साल गुजरे मेरे। और उसमें काफी कुछ बदला। उससे पहले निश्चित तौर पर एक जबान, एक लहजा, स्मॉल टाउन की तमीज़ लखनऊ से ही आई। उस सिटी का बहुत एहसानमंद हूं। बचपन में आप क्या पढ़ते थे? लिट्रेचर, कॉमिक्स? मम्मी या दादी-नाना कुछ कहानी सुनाते थे? हम लखनऊ में रहते थे। मेरे दादा-दादी, मतलब मेरे पिताजी दिल्ली से हैं। मम्मी मेरठ से हैं। हम मई-जून की छुट्टियों में वहां जाया करते थे। कॉमिक मैंने बहुत पढ़ी। हिंदी कॉमिक्स मतलब ध्रुव, नागराज, चाचा चौधरी उसे पढ़ने के लिए मैं बहुत पिटा हूं। और उस समय यकीन जानिए सपने में भी नहीं था कि फिल्म्स या फिल्म राइटिंग या फिल्म डायरेक्शन या इस तरीके के क्षेत्र में जाना कुछ नहीं था। मुझे लगता है कि आज के दौर में इतने एवेन्यूज यंग जेनरेशन को पता हैं पर तब 90 के दशक में डॉक्टर, इंजीनियर और यूपीएससी के अलावा क्या होता था? मसलन, जर्नलिज्म को ही ले लीजिए। कौन बोलता था कि मैं जर्नलिस्ट बनना चाहता हूं? ये इतने सारे विकल्प, एवेन्यूज बहुत बाद की बातें हैं। अवचेतन (सब-कॉन्शियस) में आप वो जो कॉमिक्स बचपन में पढ़ते थे, आज जब लिखने बैठते हैं तो बहुत हेल्प होती है। कि अंततः ऐसे ही आप रच पाते हैं चीजें। इतना सब पढ़ा है, वो न पढ़ा होता तो शायद न लिख पाते। हां, आई एम श्योर। सब-कॉन्शियस लेवल पर ऐसा जरूर होगा। लेकिन मैंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया कि मैं किन कारणों से ऐसा कर पा रहा हूं या नहीं कर पा रहा हूं। मुझे लगता है कि एक किस्सागोई वाली जो बात होती है वो उत्तर प्रदेश में आपको दिख जाएगी। टोटैलिटी में आप कह सकते हैं कि यूपी का आदमी बड़ा आलसी होता है और बातों में बड़ा मजा आता है उसे। प्रतिभाशाली भी होते हैं। बस वो थोड़े मेहनती हो जाएं तो बहुत अच्छा होगा। मैं उस मामले में टिपिकल यूपी से ही बिलॉन्ग करता हूं। खासा आलसी इंसान हूं। पर हां, वो किस्सागोई की बात होती हैं न कि बैठे हैं चाय पी रहे हैं और सरकारें बन गईं, सरकारें गिर गईं बातों में हीं। आपको लेकर माता-पिता के कुछ सपने थे जो फिल्मों में आने से टूटे? और जब फिल्मों में आने का उन्हें कहा तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी? सारे ही लोग चाहते थे कि यूपीएसी दो और यूपीएससी तुम्हे सीरियसली करना चाहिए। पर मेरे पिताजी काफी लिबरल टाइप के आदमी हैं। बहुत सज्जन इंसान हैं, बहुत पेशेंट हैं। उन्होंने मेरे को एक ही बात बोली थी जो बहुत सही थी कि देखो बेटा तुम लाइफ में जो कर रहे हो, ठीक है कर लो। तुम्हारी अपनी सोच है। पर बात ये है कि कल को अगर फिल्म इंडस्ट्री में जाकर के तुम बहुत नाम कमाओ और अवॉर्ड मिले तुम्हे तो तुम स्टेज पर मेरा नाम मत लेना। पर अगर तुम भीख मांग रहे हुए वहां वीटी स्टेशन पे तो भी मेरा मत लेना। तब ये न बोलना कि यार पिताजी आप तो उमर में बड़े थे, आपको समझाना चाहिए था। अपनी फेलियर के भी तुम जिम्मेदार होगे, अपनी सक्सेस के भी तुम्ही होगे। बाकी जो मन लगे तुम समझदार हो, जो करना है करो। मां ने कुछ नहीं कहा? मम्मी का इतना कोई विरोध नहीं रहा। आप लखनऊ में थे, दिल्ली में थे, फिल्में देखते थे, बाहर से जो सम्मोहन होता था, आज अंदर आने के बाद और फिल्ममेकिंग की मशीनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद क्या वो सम्मोहन आज भी बना हुआ है? या अब थोड़ी सी सामान्य हो गई है चीजें? मुझे बड़ा मजा आता था गोविंदा की फिल्में देखने में। और यश जी की फिल्में देखने में। मैं ‘दीवार’ जैसी फिल्म, ‘शोले’ जैसी फिल्म या जो सुभाष घई का सिनेमा हुआ करता था उन पर पलता था। ‘राम लखन’ और ‘कालीचरण’। मतलब मुझे ये हाइप वाले ड्रामा बड़ा मजा देते थे। पर ऐसा नहीं था कि मैं ये करना चाहता हूं। मुझे मजा आ रहा है देखने में हां ठीक है, बाकी काम तो आपको अपना कुछ करना ही होगा जीवन में। तब कभी दिमाग में भी नहीं था कि फिल्म्स बनाएंगे, फिल्म्स लिखेंगे या फिल्म्स में काम करेंगे। और अभी भी आप यकीन जानिए मैं इस जगह को (मुंबई फिल्म उद्योग) को उस तरह बिलॉन्ग भी नहीं करता। बड़ा सेक्लूजन टाइप है। मतलब अभी भी मेरे वही दोस्त हैं जो कॉलेज के टाइम से हुआ करते थे। अभी भी मेरा कोई नया सर्किट यहां बना नहीं है। अपना जो समझ में आता है, जो बातों में लगता है, एक-दूसरे से जो कहानी कहने में मजा आता है, बस उसी पे काम कर रहा हूं मैं और वही लिखता हूं। बाकी मुझे लगता है ये बड़ा ... क्या कहेंगे उसे, नकली शायद ज्यादा सख्त शब्द हो जाए, पर बड़ा भ्रम है जी ये बहुत सारा। आप चाहें तो दिन की तीन फिल्मी पार्टी रोजमर्रा के हिसाब से जा सकते हैं पर बात ये है कि आपको कहना है ये काम? मतलब आप वहां जाएं, हंसें, बोलें लेकिन कुछ अर्थ बनानी चाहिए चीजें। अभी भी जो गैदरिंग का सेंस है वो पुराने दोस्तों के साथ बैठना, बातें करना, चाय पीना उसी से आता है। मैं काफी संतुष्ट हूं। ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं है मेरी। कि अरे ये दुनिया कुछ उस तरह से एक्सप्लोर की जाए। फिल्में बनाने वाले लोग मुंबई में रहते हैं, महानगरीय जीवन-शैली उनकी होती है लेकिन प्रेरणा जो उनकी होती है वो छोटे शहरों से आती है। ऐसा क्यों होता है? और आप शायद मुंबई में पले-बढ़े होते तो ऐसी चीज (तनु मनु, रांझणा) शायद दे ही नहीं पाते। बिलकुल। लेकिन तब शायद मैं कोई और कहानियां दे रहा होता। आप देखिए, यहीं पर छोटे शहरों की कहानियां भी बन रही हैं और बड़े शहरों की भी कहानियां बन रही हैं। आप जोया अख्तर का काम देखिए। बहुत अच्छा काम है उनका। चाहे उनकी पिछली फिल्म ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ हो या अब ‘दिल धड़कने दो’। अब जोया जहां से आती हैं, उनको वही दुनिया पता है। वो गर्मी की छुट्टियों में स्पेन ही जाती थीं। हम मेरठ जाते थे। आप मेरठ को ज्यादा बेहतर समझते होंगे। वो पैरिस, स्पेन और रोम को ज्यादा बेहतर समझती हैं। तो वो ईमानदारी से वहां की दुनिया पेश कर रही हैं। हम ये बात बता देते हैं कि यार मेरठ में लड़का ऐसे बोलता है और इन-इन चीजों से गुजरता है। सो सबकी अलग दुनिया है। बहुत सारी कहानियां हैं इस दुनिया में तो। कोई कहीं की सुनाता है, कोई कहीं की। आप आने वाले समय में निर्देशन भी करना चाहते हैं तो ये अर्बन, एलिटिस्ट कहानियों में आपकी रुचि है। अच्छी कहानी में हमेशा इंट्रेस्ट रहेगा। अच्छी कहानी चाहे किसी भी दुनिया से आए आपको मजा आता है। जरूरी थोड़े ही है कि आप उस दुनिया को जानें। बैटमैन को कोई जानता थोड़े ही है या किसी का दोस्त बैटमैन है। पर मजा आता है। तो किसी भी दुनिया की कहानी हो, अच्छे तरीके से पेश की जाएगी तो क्यों नहीं मजा आएगा। आगे कोई एक अर्बन सेटअप में कहानी समझ आती है तो मैं बिलकुल लिखूंगा। बिलकुल उसको डायरेक्ट करना चाहूंगा। पर अभी जिस कहानी पर मैं काम कर रहा हूं और जो मैंने सोचा कि इससे डायरेक्शन शुरू करूंगा वो लखनऊ में सेट है। क्योंकि वो दुनिया मुझे ज्यादा करीब की जान पड़ती है। क्या फिल्में समाज पर असर डालती हैं? अच्छा या बुरा? मुझे लगता है इतना बड़ा कुछ है नहीं फिल्म कि समाज बदलने की ताकत रखे। ऐसा कुछ नहीं है। मुझे नहीं जान पड़ता है। हां बाकी ये जरूर है कि एक तरह का प्रतिबिंब जरूर होता है। आप किसी भी एक देश के समकालीन समय की फिल्म देखकर के उस समय की सेंसेबिलिटी जरूर समझ सकते हैं। हम सब अपने समय की ही उपज हैं। ऐसा तो है नहीं कि फिल्म देखने वाले अलग दुनिया से आ रहे हैं और बनाने वाले अलग दुनिया से। आ तो सब एक ही दुनिया से रहे हैं। तो उन मेकर्स की सेंसेबिलिटीज या बेचैनी कह लीजिए या उनकी चिंता कह लीजिए, या उनकी समझ कह लीजिए या नजरिया कह लीजिए। वो आपको जरूर समझ में आता है उस वक्त का। उस वक्त का एथोज समझ में आ जाता है उस वक्त की कहानियां देखकर के। इसीलिए सत्तर में ‘दीवार’ जैसी कहानियां बनती हैं। एक गैंग्स्टर का ग्लोरिफिकेशन दिखता है। या एक स्मगलर का। क्योंकि वो एक फेज था। हम आजादी के बाद डिसइल्यूज़न्ड (मोहभंग) थे। क्योंकि हमें नहीं समझ आ रहा था। हमें लगा था कि आजादी के बाद सबके पेट भरे होंगे। जैसे कुछ चमत्कार हो जाएगा। पर कुछ नहीं हुआ और वो 20 साल में समझ आने लगा। गोरे साहब की जगह भूरे साहब आ गए। वो फिल्मों में झलकने लगा। आज जितनी फिल्में आ रही हैं उससे आपको आज के समय की समझ मिल सकती है। सामाजिक, राजनीतिक समझ। मुझे नहीं लगता कि ये इतना भारी काम है कि कोई फिल्म आकर सामाजिक परिवर्तन ला सके। और एक बात बताऊं इतना कोई बेहतरीन काम भी नहीं हो रहा। ऐसा नहीं है कि पिछले हफ्ते ‘मुगलेआजम’ आई और अगले हफ्ते ‘कैसेब्लांका’ आ जाएगी। ऐसा नहीं है। बहुत ही औसत काम हो रहा है इंडस्ट्री में। पर बात ये है कि हम इतने वक्त से बिरियानी के पैसे लेकर के खिचड़ी खिला रहे हैं न लोगों को कि हल्का सा एक पुलाव भी बड़ा खुश कर जाता है। आप सोचिए कितना सस्ता वर्ड हो गया है ...कल्ट क्लासिक। अरे ये फिल्म तो कल्ट है। अच्छा? अगले फ्राइडे फिर एक कल्ट आ जाएगी। तो ये तो हालत हो गई है। और ये मैं अपने को सबसे पहले गिनकर बोल रहा हूं। मैं भी कोई बड़ा भारी ऐसा काम नहीं कर पा रहा कि दुनिया को लगे भई इन्होंने तो कुछ बड़ा बदल दिया। कुछ नहीं है, सब औसत काम कर रहे है। जिसको जो समझ में आ रहा है, कर रहा है। बस। मुझे नहीं लगता कि एक भी शख्स ऐसा है जो पेज टर्निंग वाला काम कर रहा है कि अरे ऐतिहासिक है ये। लेखक पैदा होते हैं कि बनते हैं? मुझे लगता है कि तीन फिल्में लिखकर के इसका जवाब देना बड़ा कठिन है। तीन ही हैं आखिरकार। मेरा कोई ऐसा बॉडी ऑफ वर्क नहीं है कि मैं अपनी एक एकेडेमिक समझ बना पाऊं। टैरेंस मलिक ने तो पांच बनाई हैं चालीस साल में। वो है, वो है, पर मुझे नहीं लगता कि अभी मैं उस स्थान पर हूं। मैं खुद अभी बहुत चीजों से जूझ रहा हूं। मैं खुद अपने ही काम से कई बार बोर हो जाता हूं। मुझे लगता है वही दुनिया, वही एक से सीन, वही सोच, वही अप्रोच.. कुछ बदलना चाहिए। मैं अभी अपने काम को लेकर बड़ा चिंतित रहता हूं कि कुछ ऐसा हो पाए कि यार किसी और को बाद में लगे खुद को लगे कि कुछ हुआ। तो अभी मैं अपने जीवन और करियर में इन बातों पर ध्यान लगा रहा हूं। बाकी तो ये बड़े बुढ़ापे के सवाल हैं। कि राइटर पैदा होता है कि बनता है। ठीक है साब, दस हजार काम होते हैं तो एक राइटर भी होता है। आप अखबार पढ़ते होंगे। ऑनलाइन देखते होंगे। जितनी भी खबरें आती हैं। मसलन, दिल्ली के चिड़ियाघर में बाघ के पिंजरे में एक युवक के गिरने की घटना है, उसके हाथ जोड़ने की तस्वीर है, आईएसआईएस के रोज आने वाले बिहैडिंग के वीडियो हैं, धर्मांधता है, सेंसर बोर्ड है या नेट न्यूट्रैलिटी है। जब इन्हें देखते हैं तो आपके अंदर का लेखक कितनी जल्दी सक्रिय हो जाता है? नहीं वो लेखक से उतना लेना-देना नहीं है। देश के नागरिक या मानव के तौर पर देखते हैं। उस पर विचार करते हैं। वो बहुत ह्यूमेन ग्राउंड पर असर डालता है। राइटर बाद में आता है। दुनिया ऐसे तो नहीं जी जा सकती कि कोई आपसे अपना दुख-दर्द बांट रहा है और आप अचानक से बोलें कि यार ये तो बड़ी अच्छी कहानी है। पहला रिएक्शन तो यही होता है कि सब ठीक हो जाएगा, तू चिंता मत कर भाई। तो मेरा तो वही रहता है बाकी कुछ कहानियां हैं तो अगले पांच साल तक मुझे बिजी रखने के काबिल हैं। तो अभी तो डरा हुआ नहीं हूं इतना। कहानी का उतना कोई अभाव नहीं है। जब होगा तब पेपरों को उस तरीके से पढ़ना शुरू किया जाएगा। क्या आप अपने साथ डायरी रखते हैं, नोट लेने या अनुभव लिखने करने के लिए? काश ये काम मुझे आते। काश मैं इतना सीरियसली अपने काम को ले रहा होता। मैंने तो आपको बोला न, खासा लेजी राइटर हूं और खासा लेजी इंसान हूं। अपना बिस्तर, अपना सोफा, अपनी चाय, अपनी खिड़की, अपनी एक गजल बड़े गुलाम अली साहब की.. उसमें मैं बड़ा खुश रहता हूं। लिखाई मेरे दिमाग में तब शुरू होती है जब मुझे लगता है कि भाई अब आनंद राय मतलब मर जाएगा अगर नहीं दिया कुछ तो। तो मैं तभी उठता हूं। पर हर फिल्म के दौरान भी लिख ही रहा होता हूं और हर फिल्म के अंत में ये वादा करता हूं खुद से और आनंद राय से कि खबरदार जो आज के बाद तुमने मुझे इस तरह पुश किया तो। अब मैं स्क्रिप्ट खत्म करूंगा और तभी तुम बनाना। तो मैं चाहता हूं कि थोड़ा अनुशासन हो राइटिंग में। मुझे लगता है उस अनुशासन की कमी ही मुझे मार रही है बहुत-बहुत वक्त से। और.. मेरा एडिटर भी यही बोलता है कि हिमांशु मुझे तुम्हारा टैलेंट नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी मेहनत चाहिए। मैं थोड़ा कम मेहनती इंसान हूं। राइटर्स ब्लॉक (रचनात्मक गतिरोध) आता है तो क्या करते हैं? आता है। कई बार आप दीवार से सिर मारते रहिए। एक जगह अगर आपका चरित्र अटक गया तो अटक गया। और ये जो बातें होती हैं न जो आपने भी सुनी होंगी और मैंने भी सुनी कि “इस दुनिया में आ जाइए फिर आपको चरित्र बताएगा कि उसको कहां जाना है”। कोई किरदार आपको नहीं बताएगा। वो वहीं साला खड़ा रहेगा जहां पर आपने उसे छोड़ा है। आप ही को ले जाना हैं जहां उसे ले जाना चाहते हैं। वो खुद कुछ नहीं करेगा। लेकिन राइटर्स ब्लॉक बड़ा जरूरी होता है। जब तक आप उस डेड एंड पर जाकर नहीं खड़े होंगे कि जहां पर आपको लगे कि यार अब यहां से कहां निकलूं। अब वापस भागूं या इस दीवार को तोड़ कर के आगे बढ़ूं या साइड में भग जाऊं। जितना तकलीफ वो आपको देगा, उतना ही मजा आपकी स्क्रिप्ट में झलकेगा। अगर आप उस ब्लॉक तक पहुंचे हैं तो आपके साथ ऑडियंस भी तो पहुंचेगी न? मैं हमेशा कहता हूं जब फाइनली आप चंदन (सिनेमा, मुंबई) में फिल्म देखते हैं न, एक सिंगलप्लेक्स में, आपको वहां जाकर समझ आता है कि जो लोग बैठकर फिल्म देख रहे हैं वे ज्यादा बेहतर लेखक, एडिटर और निर्देशक हैं। वे आपको बताएंगे। परदे पर सीन देखकर लगता है कि ओ शिट, ये सीन न तीस सेकेंड पहले कट जाना चाहिए था। या ये लाइन मेरी वर्क नहीं कर रही है यहां जो मुझे लग रहा था करेगी। आप अपना काम थियेटर में देखिए, सारी गलतफहमियां, सारे मुगालते दो मिनट नहीं लगते दूर होने में। जब पीछे से आवाज आती है न “रील नंबर छह पे नहीं सात पे थी, अबे आगे बढ़ाओ”, आपको समझ में आ जाता है सारा मामला। ये जो टर्म हैं न, पब्लिक..। पब्लिक कुछ नहीं होती। आप उन्हीं का हिस्सा हैं। जब आप ट्रैफिक में होते हैं आपको लगता है न कितना ट्रैफिक है। लेकिन आपकी साइड वाली के लिए आप ट्रैफिक हैं। फिल्म एडिट करते समय या हर डिपार्टमेंट द्वारा काम करते समय निर्देशक या निर्माता बताता है कि हमें ये उस दर्शक को लक्ष्य करके तैयार करना है। जबकि वो दर्शक कभी किसी को मिला ही नहीं, उसे किसी ने देखा ही नहीं है। न जाने कौन सा दर्शक, कहां, किस जेहनियत के साथ, किस मानसिक अवस्था, कितने ज्ञान के साथ क्या पसंद करेगा। तो उसे ढूंढ़ पाना या उसे लेकर एक मैच्योर जगह पहुंच पाना ये कभी हो नहीं पाया। लिखते समय क्या आप उस दर्शक को ढूंढ़ पाए हैं? नहीं, बिलकुल नहीं। और उस पर ज्यादा सोच लगानी भी नहीं चाहिए। आप वही काम कर सकते हैं जो आपको आता है। ऐसा तो नहीं है न कि किसी एक फिल्म को लिखने के लिए मैं राजकुमार हीरानी से गुद्दी उधार ले सकता हूं? अगर ले सकता तो ले लेता। आप काम वही करेंगे जो आपको आता है, जो आपकी गुद्दी आपको बताएगी, जो आपका विवेक आपको बताएगा, जो आपका दिल आपको कहेगा। आप जितनी ईमानदारी से वो अटेंप्ट कर सकें आप बस वो करें। आप मेहनत करने की कोशिश करें। ईमानदार रहें। आप झूठ न बोलें। न खुद से न किसी और से। आप वो काम करें जो आपको अच्छा लगता है। क्योंकि आपको अच्छा लगेगा न तो हो सकता है चार-पांच और लोगों को अच्छा लगे। अगर आप ज्यादा चतुर बनेंगे तो वो जो तीन-चार लोगों को पसंद आने की गुंजाइश थी वो भी खत्म समझो। आप वो लिखिए जो आपको लिखने का मन है, बाकी आपके पास चारा क्या है। कम से कम वो तो तमीज से लिख दीजिए। वो स्क्रिप्ट जो आपको बेदाग़ लगती हैं? ‘दीवार’। सलीम-जावेद साहब का जितना भी काम है वो। वो बहुत पके हुए और पुख़्ता राइटर्स हैं। उनका सेंस ऑफ ड्रामा, स्टोरी, कैरेक्टर। ‘दीवार’ वॉटरटाइट है। उसमें से एक सीन भी हटाना... मतलब सीन हटाना तो बहुत बड़ी बात है, मुझे नहीं लगता कि उसे आप किसी तरीके से भी बदल सकते हैं। असंभव है। आप उसमें से कोई भी सीन हटाकर देखें। कुछ मिस कर देंगे आप। उसके परे मुझे कुछ नहीं दिखता। हिंदी सिनेमा में ऐतिहासिक स्क्रीनप्ले का उदाहरण है ‘दीवार’। टॉम स्टॉपार्ड ने एक स्क्रिप्ट लिखी थी जिस पर फिल्म बनी ‘शेक्सपीयर इन लव’ (1998)। वो भी वॉटरटाइट स्क्रीनप्ले था। विदेशी में ये कमाल लगती है। आकांक्षी फिल्म राइटर्स के लिए वो नियम जो उन्हें अपनी राइटिंग टेबल के आगे चिपकाने चाहिए। सबसे पहले तो वो टेबल पर बैठें, क्योंकि मैं तो टेबल पर भी नहीं बैठ रहा। और दूसरी चीज, मुझे लगता है ईमानदारी। आप पूरी ईमानदारी से सही, गलत, अच्छा, बुरा, गुड-बैड-अग्ली जो भी आता है आप ईमानदारी से कह दें। ये एकमात्र चीज है जिसका मैं पालन करता हूं। फिल्म राइटर बनने के लिए फिल्म स्कूल जाना जरूरी है? मैं तो नहीं गया हूं। पर.. जाना चाहिए, यकीन है कुछ रोचक ही सीखने को मिलता होगा वहां। इस साल की कोई उत्साहित करने वाली फिल्म देखी है? समकालीन लेखकों में कौन अच्छे लगते हैं? मुझे कमाल की लगी ‘बदलापुर’। इस साल मैं ज्यादा फिल्में नहीं देख पाया पर ‘बदलापुर’ मुझे आउटस्टैंडिंग फिल्म लगी। और बहुत अच्छी राइटिंग लगी उसकी। वैसे भी मुझे श्रीराम सर का काम हमेशा ही अच्छा लगा है। मैंने उन्हें काफी लंबा मैसेज भी किया। और जैसे वो हैं, उन्होंने एक लाइन में उत्तर दिया, ‘थैंक यू हिमांशु’। आने वाली फिल्में कौन सी हैं। आनंद राय के साथ ही हैं? जी, आनंद के साथ ही है। मैं अगली फिल्म भी आनंद के लिए ही लिख रहा हूं। और एक स्क्रिप्ट है जिस पर मैं अपने लिए काम कर रहा हूं। ये दो ही हैं अभी। आनंद के साथ फिल्म किस श्रेणी यानी जॉनर की है? रोमैंटिक ड्रामा है। जिसमें वे काफी अच्छे हैं। मैं भी अभी उसी में ही ऑपरेट कर रहा हूं। एक फिल्म आपकी सलमान के साथ भी है? हम उनसे मिले। बहुत मजेदार रही मुलाकात। देख रहे हैं अभी वो बहुत बिजी हैं, उनके कमिटमेंट। जिंदगी का फलसफा क्या है? जो निराशा में भी उठ खड़ा होने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है? जिंदगी चरणों में आती है। और अच्छा टाइम नहीं रुकता तो बुरा क्यों रुकेगा। जूझना चाहिए। आप इसीलिए पैदा हुए हैं कि चीजों से जूझें। जब आप फिल्मों में आना चाहते थे तो न जाने कितने किस्से थे जो आपको कहने थे, न जाने कितनी फिल्में आपको बनानी थी, अब जब आ गए हैं तो ऐसा नहीं लगता एकदम खाली हो गए हैं? ये मेरी लाइफ में सबसे बड़ा डर है यकीन जानिए। ये कि एक दिन मैं सोकर उठूंगा और मेरे पास कोई कहानी नहीं होगी। कि आप खाली हो गए। और जब आप खाली हो जाएं न, तो बेहतर है चुप बैठें। बेकार में कहानियां न सुनाएं। बाकी ऐसी कोई दिक्कत नहीं है, लखनऊ में घर है अच्छा और शहर बहुत पसंद आता है। जहां से आए हैं वापस लौट जाएंगे। कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन अभी तीन-चार कहानियां हैं जो पांच-छह साल तो बिजी रख देंगी। उनको लेकर मैं एक्साइटेड हूं, मुझे अच्छा लग रहा है उनके बारे में सोचकर के। राइटर्स में आपके ऑलटाइम फेवरेट कौन हैं? हिंदी साहित्य का स्टूडेंट रहा हूं। प्रेमचंद को बहुत पढ़ा मैंने। भारतीय लेखकों में मुझे निर्मल वर्मा बहुत पसंद हैं। धर्मवीर भारती बहुत पसंद हैं और उनकी ‘गुनाहों का देवता’ जो है उसका बहुत ज्यादा प्रभाव रहा मुझ पर। बाकी आजकल एक बहुत धमाल किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ (1975) पढ़ रहा हूं। ज्यादा पढ़ नहीं पा रहा लेकिन सोचा हुआ है पढ़ाई करनी है फिर से लगकर। वापस दिल्ली यूनिवर्सिटी मोड में आने का विचार है मेरा। Himanshu Sharma is a young film writer from India. He's from Lucknow, at present based in Mumbai. He's written three successful Hindi films so far - Tanu Weds Manu (2011), Ranjhanaa (2013), Tanu Weds Manu Returns (2015). The last one released on May 22 this year. For all the three films he has collaborated with director Anand Rai. He's writing two more scripts at the moment. One of them will be directed by Rai and the other one will be his directorial debut. Both will be romantic dramas situated in Lucknow.
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