परिवार की रीढ़ है मां : दीपिका पादुकोण


-अजय ब्रह्मात्मज
    दीपिका पादुकोण की शुजीत सरकार निर्देशित ‘पीकू’ रिलीज हो चुकी है। इम्तियाज अली निर्देशित ‘तमाशा’ की शूटिंग समाप्ति पर है। इन दिनों वह संजय लीला भंसाली की ‘बाजीराव मस्तानी’ की शूटिंग कर रही हैं। इसकी शूअिंग के सिलसिले में वह फिल्मसिटी के पास ही एक पंचतारा होटल में रह रही हैं। समय बचाने के लिए यह व्यवस्था की गई है। दीपिका पिछले दिनों काफी चर्चा में रहीं। ‘माई च्वॉयस’ वीडियो और डिप्रेशन की स्वीमृति के बारे में बहुत कुछ लिखा और बताया गया। दीपिका थोड़ी खिन्न हैं,क्योंकि सोशल मीडिया और मीडिया पर चल रहे विमर्श ने उसे अलग परिप्रेक्ष्य में रख दिया है। दीपिका देश की अन्य हमउम्र लड़कियों की तरह स्वतंत्र हैं। मिजाज की कामकाजी लड़की हैं। उन्हें परिवार से बेहद प्यार है। इधर मिली पहचान की वजह से वह अपनी फिल्मों के चुनाव और एक्टिंग के प्रति अधिक सचेत हो गई हैं। उन्हें इसके अनुरूप तारीफ भी मिल रही है।
    ‘पीकू’ देख चुके दर्शकों को दीपिका के किरदार के बारे में मालूम होगा। पीकू के बारे में दीपिका के विचार कुछ यूं हैं, ‘वह कामकाजी लड़की है। अपने परिवार का भी ख्याल रखती है। अपने पिता से जुड़ी है। उसे हर दिन कई सारे काम निपटाने रहते हैं। दोस्त, दफ्तर और परिवार के बीच भागती-दौड़ती पीकू किसी अन्य भारतीय लड़की की तरह ही है। पूरी फिल्म पीकू की दुनिया है। उसी के दृष्टिकोण से पूरी कहानी कही गई है। पिता के साथ अपने संबंध में संतुलन बिठाते हुए पीकू बाकी दुनिया से भी जुड़ी रहती है। मुझे लगता है मेरी उम्र की हर लड़की ने खुद में पीकू को देखा होगा। बाबा के लिए पीकू सिर्फ बेटी नहीं है। वह अपनी मां की भूमिका भी निभाती है और कई बार तो बाबा की भी मां बन जाती है। पीकू की इसी पहचान की वजह से मैंने यह फिल्म साइन की थी।’
    दीपिका पादुकोण अपने पिता प्रकाश पादुकोण के काफी करीब हैं। रिश्ते की इस नजदीकी का फायदा उन्हें पीकू का किरदार निभाने में मिला। हालांकि रील के पिता भाष्कर और रियल पिता प्रकाश के नामों में अर्थ की समानता होने के बावजूद दोनों के मिजाज में फर्क है। दीपिका कहती हैं, ‘इमोशन के स्तर पर कमोबेश हर बाप-बेटी का रिश्ता एक जैसा ही होता है। अपने पापा के साथ के रिश्ते के बारे में बताऊं तो उसमें आदर, प्रेम, प्रोटेक्शन और जिम्मेदारी है। अमित जी के किरदार से अलग हैं मेरे पापा। मेरे पापा शांत, शर्मीले और कम बोलने वाले हैं। निजी जिंदगी में पापा को संभालना मुश्किल काम नहीं है, जबकि पीकू के बाबा मुश्किल किरदार हैं। उनकी जरूरतें कभी खत्म ही नहीं होती।’
    दीपिका के पिता प्रकाश पादुकोण की चर्चा बहुत ज्यादा होती है। दीपिका की मां के बारे में लोग कम जानते हैं। मां का जिक्र आने पर दीपिका गर्व से मुस्कुराती हैं। अपनी मां के बारे में वे कहती हैं, ‘ मेरे जीवन और कैरियर में मां की भूमिका बहुत बड़ी रही है। सभी बेटियों की जिंदगी में मां महत्वपूर्ण होती हैं, लेकिन मेरे कैरियर में तो उनका योगदान उल्लेखनीय है। हम जिस कैरियर में हैं, उसमें परिवार और मां के सपोर्ट की बहुत जरूरत पड़ती है। इस उम्र में पहुंचने पर मैं महसूस करती हूं कि मां ने हमारे लिए कितना त्याग किया है। सच कहूं तो यह सिर्फ मेरी मां की विशेषता नहीं है। हर मां ऐसी ही होती है। अपने आसपास और परिवार में देखें तो मां हमेशा बैक सीट लेती है और परिवार के पुरुष को काम पर जाने की अनुमति देती है। मां हर परिवार में बैकबोन होती है। परिवार और बच्चों की परवरिश में मां की छोटी-छोटी की गई मेहनत तब समझ में आती है, जब आप खुद बड़े होते हैं और उन पलों को याद करते हैं। हमें कहां पता चलता है कि घर को सुचारू रूप से चलाने में मां कब और क्या कर रही है? हमारे स्कूल से आने के पहले ही मां अपनी तकलीफ भूल कर खाने-पीने का इंतजाम कर लेती है। अगर बड़ी बीमारी न हो तो शायद ही किसी बच्चे ने अपनी मां को कभी उदास देखा हो। उसकी वजह से ही घर के मर्द निश्चिंत होकर काम पर निकलते हैं। उन्हें लगता है कि लौटने पर घर पर सब कुछ ठीक ठाक मिलेगा। वे अपने घर लौटेंगे। यह घर मां ही बनाती है। मैं स्वयं महसूस करती हूं कि अब मैं मां को ज्यादा समझ पा रही हूं। पलट कर देखती हूं तो पाती हूं कि मेरे हर निर्णय में मां और पापा का समर्थन मिला। मुझे ऐसा लगता है कि मेरी मां का समय औरतों को मिल रही स्वतंत्रता और सुविधा के हिसाब से बहुत सही नहीं थी। आज की हम जैसी लड़कियां खुद ही बड़े फैसले लेती हैं। उन्हें ऐसी आजादी मिली होती तो हमारा समाज आज कहीं और आगे होता।’
    इस साल दीपिका पादुकोण की तीन फिल्में आ जाएंगी। तीनों फिल्मों में उनकी अलग भूमिकाएं हैं। फिलहाल दपिका सफल हैं। वह अपनी सफलता का श्रेय निर्देशकों को देती हैं। कैरियर के बारे में उनकी राय है, ‘अपने को एन्ज्वॉय करना बहुत जरूरी है। सभी कहते हैं हिंदी फिल्मों में सक्सेस का कोई फॉर्मूला नहीं होता। यह बात बिल्कुल सच है। मैं सही कारणों से कोई भी फिल्म चुनती हूं। कभी किरदार पसंद आता है। कभी निर्देशक पसंद आते हैं। कभी पूरा सेटअप मन लायक होता है। मैं अपनी चुनावों के प्रति ईमानदार रहती हूं। अभी तक कोई फिल्म पैसों के लिए नहीं साइन की है। फिल्मों में यह ईमानदारी पर्द पर भी दिख जाती है। फिल्में पारदर्शी माध्यम हैं। हम दर्शकों को धोखा नहीं दे सकते। सिनेमा मुख्य रूप से भावों की अभिव्यक्ति है। हर किरदार को निभाते समय हम अपने व्यक्तित्व का कुछ हिस्सा छोड़ जाते हैं। कई बार निभाए किरदारों से भी कुछ ले आते हैं। यह छोड़ना और लेना अनुभव व अभिनय के स्तर पर होता है। इन वजहों से भी जरूरी होता है कि हम अपना काम ईमानदारी और दिल से करें।’
   

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