डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी एक सधी हुई परिघटना है - अविनाश दास
सबसे अच्छी कहानी वो होती है, जो खुद के कहे जाने तक खामोशियों का छिड़काव
करती रहे। क्योंकि सिनेमा सिर्फ कहानी नहीं होता, वहां प्रकाश से लेकर
कला और अभिनय के तमाम पहलू इस छिड़काव में हाथ बंटाते हैं। इस लिहाज से
डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी 2015 में सिनेमा की एक सधी हुई परिघटना है।
इस फिल्म को देखने से पहले मैं उन तमाम समीक्षाओं से गुज़र चुका था,
जिसमें इसे बड़ा बकवास और भारी ब्लंडर घोषित किया जा चुका था। सबसे पहली
समीक्षा मैंने केआरके उर्फ कमाल राशिद खान की समीक्षा देखी, जिसमें वे
डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी को डिजास्टर बता रहे थे और बाद में सोशल
मीडिया पर एक-दो को छोड़ कर तमाम बुद्धिजीवी मित्र इस फिल्म से मुतास्सिर
और मुतमइन नहीं थे। चूंकि दिबाकर बनर्जी मेरे प्रिय फिल्मकारों में से
हैं, लिहाजा मैं समझ नहीं पा रहा था कि उनसे कहां चूक हुई होगी। मैंने
फिल्म देखा, तो मुझे झटका लगा कि केआरके की सिनेमाई समझ और मेरे अधिकांश
मित्रों की सिनेमाई समझ में रत्तीभर भी फर्क नहीं है। और यही सबसे बड़ा
डिजास्टर है कि हम सिनेमा को क्या समझ बैठे हैं।
ब्योमकेश
बख्शी दिबाकर का किरदार नहीं है। इसे यह बांगला के मशहूर लेखक शरदिंदु
बंदोपाध्याय ने रचा था। 1932 में जब पहली बार जासूस ब्योमकेश उर्फ
सत्यान्वेषी की कहानी सामने आयी, उससे चार दशक पहले शरलक होम्स की
कहानियां पश्चिम में चर्चित होकर दूसरे देशों में भी फैल चुकी थी। शरदिंदु
ने 1970 तक ब्योमकेश की जासूसी किस्से लिखे। दिबाकर बनर्जी की फिल्म
ब्योमकेश की तीन सीरीज की कहानियों का कोलाज है, सत्यान्वेषी, पोथेर
कांता और अर्थमअनर्थम। जाहिर है, दिबाकर के सामने एक किरदार था, कुछ
कहानियां थीं और उन कहानियों का समय था। उन्होंने अपने सिनेमाई कौशल से
हमें ढाई घंटे तक न कहानी से बाहर निकलने दिया, न कहानी के समय से।
इस
फिल्म को देखने वाले हमारे कई मित्रों ने बताया कि उनके आसपास के लोग सो
रहे थे। मैंने मुंबई के चंदन सिनेमा में ये फिल्म देखी, वहां भी हमारे
पीछे कुछ लोग खर्राटे मार रहे थे। ये वे लोग थे, जो एक जासूसी फिल्म में
जेम्स बांड का चमत्कार खोजने गये थे और उन्हें मामूली किरदार मिले, तो
उनकी आंख लग गयी। ब्योमकेश के किरदार की खासियत ये है वह आम आदमी की
मामूली काया में बड़े भंडाफोड़ों को अंजाम देता है। लिहाजा ये एक बेहतर
दृष्टिकोण है कि सुशांत सिंह राजपूत ने कहीं भी अभिनय करने की कोशिश नहीं
की है। वह भीड़ में शामिल एक आम किरदार की तरह नज़र आता है। उसके आसपास के
लोग समाज का मामूली हिस्सा नजर आते हैं। सिनेमा में उतनी ही गति है, जितनी
सिनेमा में होने वाले कारनामों की।
इस फिल्म
में दो ही किरदार हैं, जिन्हें अभिनय के लिए रहस्यमय स्पेस मिला। अंगूरी
देवी (स्वस्तिका मुखर्जी) और अनुकूल गुहा (नीरज काबी)। अंगूरी देवी का
पहला फ्रेम याद करें। एक बंद पड़ी फैक्ट्री के पास का प्राइवेट स्वीमिंग
एरिया। पुल के पार पीठ की तरफ से साड़ी में लिपटी एक स्त्री देह। साड़ी
सरकती है और स्वीमिंग ड्रेस से चिपकी हुई देह का दरवाज़ा थोड़ा खुलता है
और पानी में छलांग मार देती है। यह एक प्रतीकात्मक दृश्य है कि जो किरदार
अभी सामने है, वह आगे कई रूपों में हमारे सामने आएगा। अच्छी कहानी
सामान्य होने का नाटक नहीं करती, वह हमें आगे के लिए कथा सूत्र पकड़ाती
जाती है। ठीक यही अनुकूल गुहा के किरदार के साथ दिबाकर ने किया है। पहले
दृश्य से वह सचेत, साकांक्ष और नजरों से संवाद करने वाले किरदार नज़र आते
हैं। आखिर में जब उनकी कहानी सामने आती है, उनका पूरा व्यक्तित्व एक छोटी
चिंगारी से आग की ऊंची लपटों में बदल जाता है। व्यक्तित्वांतरण की यह
पूरी प्रक्रिया हंसी की खौफनाक अनुगूंज के साथ हमारे सामने घटित होती है और
हम यानी दर्शक पहली बार फिल्म में अचंभित होते हैं। एक डर महसूस करते
हैं।
भागलपुर-मुंगेर की बोली को भोजपुरी बना देने
के सवाल पर हमारे कई मित्र नाराज़ हैं और उनकी नाराज़गी जायज़ है। शोध में
दिबाकर से यह चूक हुई है। लेकिन यह चूक फिल्म के मात्र एक से दो मिनट के
हिस्से में है। यह दृश्य आरोपित भी लगता है क्योंकि दो हट्ठे-कट्ठे
पहलवान ताला तोड़ते दो मामूली लोगों पर सिर्फ इसलिए यकीन कर लेते हैं कि
उनमें से एक मुंगेर का है, अटपटा लगता है। दिबाकर को यह हिस्सा फिल्म से
हटा देना चाहिए। वरना पूरी फिल्म एक जादू है जो आपको सम्मोहित किये रहती
है।
यह फिल्म कला, समय, इतिहास, रोमांच, संगीत
के हिसाब से दिबाकर की सबसे बेहतरीन फिल्म है। और चूंकि अंत कुछ ऐसा है
जिससे डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी रिटर्न का क्लू मिलता है, उम्मीद की
जानी चाहिए कि इसी कथाभूमि पर आगे भी दिबाकर का एक और जादू हमारे सामने
आएगा।
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