फिल्म समीक्षा : धर्म संकट में

 -अजय ब्रहमात्मज 
स्टारः 2.5
धर्म पर इधर कई फिल्में आई हैं। 'ओह माय गॉड','पीके' और 'दोजख' के बाद 'धर्म संकट में' भी इसी कैटेगरी की फिल्म है। यहां भी धर्म और धार्मिकता के पहलू को एक अलग नजरिए से उठाया गया है। फिल्म के नायक या मुख्य अभिनेता परेश रावल हैं। वो इसके पहले 'ओह माय गॉड' में दिखे थे। यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वे फिलहाल भाजपा के सांसद हैं। 'धर्म संकट में' ब्रिटिश कॉमेडी फिल्म 'द इनफिडेल' से स्पष्ट रूप से प्रेरित है। मूल फिल्म की तरह इस फिल्म में भी धर्म और धार्मिक पहचान के संकट का चित्रण कॉमिकल रखा गया है। ऐसी फिल्मों के लिए परेश रावल उपयुक्त कलाकार हैं। और उन्होंने धर्मपाल के किरदार को अच्छी तरह निभाया है।
धर्मपाल त्रिवेदी पारिवारिक व्यक्ति हैं। अपनी बीवी और बेटी-बेटे के साथ वे सुखी और सानंद दिखते हैं। उनके पड़ोस में मुसलमान नवाब महमूद नाजिम अली शाह खान बहादुर रहने चले आए हैं। धर्मपाल मुसलमानों को लेकर हमेशा खफा रहते हैं। खान बहादुर से उनकी बक-झक होती है। वे भला-बुरा सुनाते हैं। खान बहादुर उन्हें पलट कर जवाब देते हैं और सवाल करते हैं कि क्यों हर मुसलमान को शक की निगाह से देखा जाता है? उनके बीच के इन संवादों में उन धारणाओं की बातें आई हैं जो देश में जब-तब सुनाई पड़ते हैं। धर्मपाल की दुविधा तब खड़ी होती है, जब वे बीवी के याद दिलाने पर अपनी दिवंगत मां का लॉकर खोलते हैं। वहीं पता चलता है कि उन्हें गोद लिया गया था। आगे यह भी मालूम होता है कि वे एक मुसलमान पिता की औलाद हैं। इस राज के जाहिर होने पर उनके पांव के नीचे की जमीन खिसक जाती है। उनके मुसलमान विरोध का सुर ठंडा होता है। वे अपने मरणासन्न पिता से मिलने और देखने के लिए पक्के मुसलमान बनने की कोशिश में खान बहादुर की मदद लेते हैं। इस कहानी में नील आनंद बाबा की भी कहानी चलती है। उनके साथ भी एक राज छिपा है।
निर्देशक फुवाद खान ने भारतीय संदर्भ में यहूदी और मुसलमान चरित्रों की मूल कहानी को हिंदी और मुसलमान चरित्रों में बदल दिया है। उन्होंने मुसलमानों के बारे में प्रचलित धारणाओं और मिथकों पर संवेदनशील कटाक्ष किया है। हालांकि वे गंभीर मसले पर खुद को केंद्रित करते हैं, लेकिन निर्वाह और वर्णन में सतह पर ही रहते हैं। शायद तह में जाने पर विवाद और विरोध हो सकता था। फुवाद खान का यह प्रयास सराहनीय है। वे दोनों धर्मां में मौजूद कठमुल्लापन पर निशाना साधने में सफल रहे हैं। ऐसी फिल्मों की प्रासंगिकता कलात्मकता या सिनेमाई कौशल से अधिक वास्तविकता से होती है। ऐसी फिल्में एक स्तर पर समाज में फैला भ्रमजाल तोड़ती हैं। फुवाद खान ने सलीके से अपनी बात कही है और किसी भी धर्म के नागरिक को आहत नहीं किया है।
हिंदी फिल्मों के इतिहास में इस विषय पर अनेक फिल्में बनी हैं कि इंसान पैदाइशी अच्छा या बुरा नहीं होता। उसके हालात और परवरिश ही उसके वर्तमान के कारण होते हैं। 'धर्म संकट में' अलग संकट है। यहां 50 साल की जिंदगी बिता चुका एक व्यक्ति अचानक वाकिफ होता है कि वह पैदाइशी तो किसी और धर्म का था। उस धर्म के अनुयायिओं के प्रति उनकी राय नेगेटिव थी। पहचान के इस दोराहे पर एक तरफ धर्मपाल की समझ है और दूसरी तरफ भावना व संवेदना...निर्देशक ने धर्मपाल की उलझन को दिखाने की कोशिश की है। परेश रावल की तरह अन्नू कपूर ने भी अपने किरदार को सही तरीके से निभाया है। हां, अन्नू कपूर कभी-कभी अपनी अभिनय शैली के दोहराव के मोह में फंस जाते हैं। नसीरूद्दीन शाह ने नील आनंद बाबा की भूमिका में मस्ती की है।
अवधि - 129 मिनट

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