हिंदी टाकीज 2(8) : यादों के गलियारों से... -वर्षा गोरछिया 'सत्या'
इस बार वर्षा गोरछिया 'सत्या' अपनी यादों के गलियारों से सिनेमा के संस्मरण लेकर लौटी हैं। फतेहाबाद,हरियाणा में पैदा हुई वर्षा ने पर्यटन प्रबंधन में स्नातक किया है। बचपन से सिनेमा की शौकीन वर्षा ने अपनी यादों को पूरी अंतरंगता से संजोया है। फिलहाल वह गुड़गांव में रहती हैं। हरियाणा की वर्षा के सिनेमाई अनुभवों में स्थानीय रोचकता है।
रविवार का दिन है, शाम
के वक़्त बच्चे काफी शोर कर रहे हैं। कुछ
बच्चे बबूल (कीकर) के पेड़ पर चढ़े हुए हैं। कुछ
जड़ों को काटने के लिए खोदे गए गड्ढे में कुछ अजीब ढंग के लाल-पीले चश्मा लगाकर, गर्दन
हिलाकर चिल्ला रहे हैं “दम मारो दम,मिट जाए गम, बोलो सुबहो शाम..”, तभी एक बच्चा बबूल
के पेड़ के किसी ऊंची डाल पर से बोलता है “बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना..” । एक
छोटी सी लड़की ने एक डंडा गिटार की तरह पकड़ रखा है
और फ्लिम “यादों की बारात” का गाना “चुरा लिया है तुमने..” गा रही है। इसी
तरह अलग-अलग बच्चे अपनी-अपनी पसंदीदा फिल्मों या कलाकारों की नक़ल करने में लगे हुए
हैं। ये सब मैं कोई
नाटक का दृश्य बयान नहीं कर रही बल्कि अपनी बचपन की याद ताज़ा कर रही हूँ और वो हाथ
में गिटार की शक्ल में डंडा लिए लड़की कोई और नहीं बल्कि मेरी छोटी बहन थी।
कोई शायद सोच भी
नहीं सकता कि जिस फिल्म को बनाने में निर्देशकों को हजारों, लाखों या करोड़ों रूपये
लगे होंगे, महीनों या सालोँ की मेहनत लगी होगी, जिस पात्र को सजीव करने में एक कलाकार
ने अपना खून-पसीना लगाया होगा उस पूरी फिल्म को हम गली के बच्चे मिलकर घंटे भर में
बना डालते थे और ये हमारा सबसे प्रिय खेल था। मैं
अनुमान करती हूँ कि उस दौर के अधिकतर बच्चों का बचपन कुछ इसी तरह का रहा होगा। हम
में से किस लड़की को याद नहीं होगा कि किस तरह हम अलग-अलग परिधानों में अलग-अलग गाने
गाती या उन पर थिरकती और खुश होतीं। सिनेमा
ने कम समय में ही लोगों के बीच अपना एक अलग स्थान बना लिया और अगर मैं कहूँ की हमारी
पीढ़ी तक आते आते ये जीवन शैली का एक अति महत्वपूर्ण हिस्सा हो गयी तो शायद अतिशयोक्ति
नहीं होगी।
मैं बात कर रही
हूँ नब्बे के दशक की जिसमे मेरा बचपन, किशोरावस्था की दहलीज़ तक पहुंचा। ये वो दौर था जब सिनेमाघरों
से निकलकर सिनेमा लोगों के घरों तक पहुचने लगी थी। टेलीविज़न
ने ये काम आसान कर दिया था। अब हम घर में बैठकर फिल्म
का आनंद ले सकते थे। दूर दराज के गाँव
और छोटे शहरों में भी गली-मोहल्ले में एक-आध टी.वी. होता जहाँ पूरा आस-पड़ोस एक साथ
बैठकर सिनेमा का आनंद लेते। इस
दौर में लोग छोटे परदे पर रामायण-महाभारत जैसे धारावाहिक से प्रभावित थे और फिर उसी
लय में कई और धारावाहिक भी बनाए गए जैसे श्रीकृष्णा, जय हनुमान इत्यादि और सभी कमोवेश
लोकप्रिय हुए। धीरे धीरे छोटा
परदा भी अपना विस्तार करने लगा था। यहाँ
अब धार्मिक कथाओं के अलावे अन्यान्य विषयों पर भी धारावाहिक आने लगे जैसे “युग”,“अर्धांगिनी”,
“वक़्त की रफ़्तार”, “मिर्ज़ा ग़ालिब”, “तमस” इत्यादि जो बहुत महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश
डालते नज़र आये मगर सिनेमा का अपना महत्व कायम रहा।
सिनेमा लोगों के
जीवन मूल्यों पर गहरा प्रभाव डालता रहा है। ये
शुरुआत इतने हलके से होती है कि लोग महसूस
भी नहीं कर पाते। सुना हुआ है कि
देवता का किरदार निभाने वाले को ही देव चेहरा समझा जाने लगा था। लोग
अगरबत्तियां और फूल-फल लेकर रामायण, महाभारत देखने बैठते थे। अरुण
गोविल और दीपिका अभिनेता न होकर कलयुग के राम और सीता हो गए थे। इसी
प्रकार फिल्मो में दिखाए जाने वाले पात्रों में भी लोग अपनी छवि ढूंढते थे या आसपास
के लोगों को सिनेमा के पात्रों से जोड़कर देखते थे। यहाँ
मैं आपको एक छोटा सा दृष्टान्त सुनाती हूँ, माँ बताती है कि जब मैं चार-पांच साल की
थी एक बार फिल्म देखते देखते रो पड़ी क्यूँकि फिल्म में एक “शीला देवी” नामक कोई पात्र
मर जाती है और मेरी माँ का नाम भी “शीला देवी” था, ये किस्सा भले ही भोलेपन का हो मगर
ये सिनेमा का असर ही है, जिसे नहीं नकारा जा सकता। ऐसे
ही हर कोई सिनेमा के साथ हँसता-रोता है, परेशां होता है भले ही तहजीब का नकाब ओढने
के बाद वो पांच साल की बच्ची की तरह फूट कर नहीं भी रोये पर इस बात से इनकार नहीं किया
जा सकता कि जब भी हम फिल्म देख रहे होते हैं वो हमें अपने जादू में जकड़े रखता है। ये
बहुत पहले की बात नहीं जब “मोगेम्बो” के खुश होने पर लोग दुखी और उसको पीटे जाने पर
खुश होते थे, ये भी लोगों को शायद ही विस्मरण हुआ होगा जब “शोले” के “जय” को गोली लगती
है तो कैसे उसके लिए ह्रदय व्यथित हो जाता है और जब “गब्बर” को “ठाकुर” से मार पड़ती
है तो कैसे दिल खुश होता है। हम
पात्र के साथ प्रेम करते हैं, सच्चाई की जीत चाहते हैं, बुराई को मात देना चाहते हैं।
पचास के दशक की
सिनेमा की बात करें, नब्बे के दशक की या आज की, सिनेमा में एक मुख्य पात्र होता है
और सिनेमा उसीके चारों ओर घूमती है। भले
ही वक़्त के साथ सिनेमा का ढंग कुछ न कुछ बदला हो पर हमारा नायक जिस प्रकार अपने कंधो
पर जिम्मेदारियां लेता है उसी प्रकार हर व्यक्ति के कन्धों पर उसके परिवार की ज़िम्मेदारी
होती है जिसे वह मेहनत, सचाई और इमानदारी से निभाने का प्रयास करता है, यही तो उसके
नायक ने भी किया होता है।
सिनेमा और मैं
मैं बचपन से ही रविवार
और शुक्रवार का अखबार घर वालों से छुपाकर इकठ्ठा करती थी और ऐसा करने वाली मैं अकेली
लड़की नहीं थी। कुछेक उदाहरण
तो मेरे अपने ही घर में मौजूद थे। हम
दो बहनों समेत चार सहेलियां थीं जिनका ये मनपसंद
शौक हुआ करता था और मैं बड़े यकीन के साथ कह सकती हूँ कि इस तरह औरों ने भी अपने सिनेमाई
दीवानापन को जाहिर किया ही होगा। क्या
ये आपको याद नहीं होगा कि गाँव से अपने मनपसंद अभिनेता-अभिनेत्री के पोस्टर लाने लोग
शहरों तक चले जाते, बच्चे अपने कॉपी और किताबों पर तस्वीरों वाले अखबार की जिल्द लगाया
करते तो कुछ लोग अपने बाल उसी स्टाइल में कटवाते जिसमे उनके पसंदीदा हीरो या हीरोइन
ने कटवाया होता और आज भी ये आलम बरकरार है बहुत नहीं बदला। हाँ,
तो मैं बता रही थी अखबार के बारे में, मुझे याद आता है कि किस तरह मैं अखबार के रंगीन
पृष्ठ पाने के लिए मेहनत किया करती थी। सिनेमा
और उसके अभिनेता-अभिनेत्रियों के बारे में जानने की जिज्ञासा, उनकी तस्वीरें सब-कुछ
ही तो लुभाती थी मुझे। पंजाब केसरी का
वो रंगीन पृष्ठ एक दो और रोचक स्तंभों की वज़ह से बहुत प्रसिद्ध हुआ। इसमें
किसी एक कलाकार की सारी फिल्में, उनका एक विवरण और एक अलग साइज़ में एक खास तस्वीर दी
होती थी, इसके साथ ही एक फ़िल्मी वर्ग पहेली होती थी जिसमे दायें से बायें और ऊपर से
नीचे गाने के शब्द या कलाकार का नाम दिया होता जो सबसे रोचक था।
जब इतने सारे सेटेलाईट
चैनलों का चलन नहीं हुआ था तब फिल्म के लिए तीन दिन निर्धारित हुआ करते थे और फ़िल्मी
गाने भी अपनी अहम् भूमिका में सिर्फ दो दिन दिखाए जाते थे, रविवार को हेमामालिनी जी
के साथ रंगोली और बुधवार को चित्रहार। मुझे
आज भी अच्छी तरह याद है कि हर रविवार को सुबह-सुबह हेमा जी हमें सिनेमा से जुड़ी रोचक
बातें बताती और बीच-बीच में मधुर गीत सुनाती। उनमे
निश्चित तौर पर एक धार्मिक गीत, कुछ पुराने गाने और एक या दो नए गाने भी सुनने को मिलते
और हम खुद को थिरकने से नहीं रोक पाते। यहीं
से हमारा सिनेमाई दुनिया के बारे में जानने का सिलसिला शुरू हुआ। एक
मज़ेदार वाकया ये हुआ
कि एक बार हेमा जी रंगोली के किसी भाग में रेखा जी को एक काली-मोटी, गन्दी सी लड़की कहकर संबोधित कर रहीं थीं और मैं नाराज हो गयी, आगे सुनने की सुध किसे थी। वज़ह ये थी कि मैं बचपन से ही रेखा की फैन रही हूँ, डी.डी. १ पर जबसे “घर” फिल्म देखी थी, मुझे उस चेहरे से ही प्रेम था जिसे हेमाजी भद्दा बता रही थी। वो नाराजगी हेमा जी से कब ख़त्म हुई ये कहना मुश्किल है मगर बाद में पता चला कि उस दिन रेखा जी की पहली फिल्म “सावन-भादो” की बात हो रही थी।
कि एक बार हेमा जी रंगोली के किसी भाग में रेखा जी को एक काली-मोटी, गन्दी सी लड़की कहकर संबोधित कर रहीं थीं और मैं नाराज हो गयी, आगे सुनने की सुध किसे थी। वज़ह ये थी कि मैं बचपन से ही रेखा की फैन रही हूँ, डी.डी. १ पर जबसे “घर” फिल्म देखी थी, मुझे उस चेहरे से ही प्रेम था जिसे हेमाजी भद्दा बता रही थी। वो नाराजगी हेमा जी से कब ख़त्म हुई ये कहना मुश्किल है मगर बाद में पता चला कि उस दिन रेखा जी की पहली फिल्म “सावन-भादो” की बात हो रही थी।
सिनेमा किसी न किसी रूप में हमारे दैनिक जीवन
के हर क्षेत्र में प्रवेश पाता गया चाहे वो हर शनिवार को स्कूल में होने वाली अंतराक्षरी
हो या 15 अगस्त, 26 जनवरी
से एक हफ्ते पहले रिहर्सल रूम में बजने वाले देशभक्ति फ़िल्मों के गाने। सिनेमा
की दी हुई धुनों पर पूरा देश गाने लगता था। बॉर्डर,
क्रांति, क्रांतिवीर, पूरब-पश्चिम, देशप्रेमी जैसी देशप्रेम से ओतप्रोत अनेक फिल्में
हममें एक अलग ऊर्जा का संचार करती थी। मुझे
तो ये भी याद आता है कि जन्मदिन पर अगर कोई दोस्त मनपसंद फिल्म या गानों का कैसेट भेंट
करता तो वो हमारा सबसे प्यारा दोस्त होता।
“पापा कहते हैं ऐसा काम करेगा..” हर बच्चे की जुबान पर था। बच्चों
को ध्यान में रखकर बनायीं गई फिल्में वैसे तो कम थी पर उनका एक खास स्थान जरूर रहता
था। फिर इसमें एक
ठहराव आया और राजू चाचा, मकड़ी, छोटा चेतन जैसी छिटपुट फिल्में समय समय पर आती रहीं
मगर इसके बाद कुछ समय के लिए सिनेमा से बचपन गायब रहा फिर “तारे ज़मीन पर” ने ये परिस्थिति
बदली। हालिया दिनों
में कई फिल्में आई हैं जो बच्चों को आकृष्ट करने के साथ उर्जा भी प्रदान करती है।
बचपन से ही मुझे
सिनेमा और उनसे जुड़े लोग लुभाते रहे हैं। सिनेमा
से जुड़े किस्से भी उतने ही लोकप्रिय रहे हैं। एक
वाकया ये भी याद आता है कि जब काजोल और अजय देवगन कि शादी हुई, बहुत से लड़कियों के
दिल टूटे पर बहुत सी शाहरुख़ खान के बच जाने के लिए खुश भी थी। लोग
परदे पर बनी जोड़ियों के लिए इतने भावुक हो जाते कि उसी को सच समझते। काजोल
और शाहरुख़ ने भी लोगो में एक ऐसी छवि बना ली थी। लोग
उन्हें साथ देख खुश होते थे, उनके प्रेम, शादी, खुशहाली की दुआ मांगते और मैं उनसे
भिन्न नहीं थी। ये वो वक़्त था जब मैंने प्यार किया” “हम आपके हैं कौन” “दिलवाले दुल्हनिया
ले जाएंगे” जैसी साफ़-सुथरी और प्रेम भाव की फिल्में अधिक बन रही थी और इन फिल्मों ने
सामाजिक संरचनाओं के विषमताओं पर हलकी सी चपत लगाने के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों और
पारिवारिक मेल-भाव पर बल दिया।
मेरे देखते देखते ही धीरे-धीरे सिनेमा का विषय
बदलता गया। देशप्रेम, पारिवारिक व्यवस्था, सामजिक कुरीति या सामान्य प्रेम कथाएं अब विषयसूची
से बाहर होती चली गई। एक और जहाँ कुछ तथ्यपरक फिल्में जैसे कि “मद्रास कैफ़े”, “थ्री इडियट्स” दिखाई
दी हैं जो पहले नहीं दिखती थी वहीँ दूसरी ओर कई बेतुकी फिल्मों ने भी अपनी जगह बना
ली है। ये अवमूल्यन हास्य फिल्मों में सबसे अधिक दिखाई पड़ता है। आज
हास्य के नाम पर अधिकतर भौंडापन और असामाजिक बातें ही सिनेमा में रह गयी है। हम,
हास्य अभिनेता महमूद और जॉनी वाकर से लेकर कादर खान और जॉनी लीवर तक पर खूब हँसने वाले
जब आज “हैप्पी न्यू ईअर” और “ग्रांड मस्ती” जैसी फिल्मों को देखते हैं तो लगता है कि
सिनेमा बीमार है।
सिनेमा और उसका
प्रभाव
हिंदी सिनेमा को
हम सबने बचपन से जीवन के लगभग हर क्षेत्र में महसूस किया होगा। वो
चाहे प्रेम हो, साहित्य हो, राजनीति हो या संस्कृति। मैं
इसे हिंदी सिनेमा का जादू ही कहूँगी कि इसने हर भाषा को अपनाया, हर संस्कृति को दर्शाया
चाहे वो पाश्चात्य हो, बंगाली सी कोमल हो, पंजाबी सी मस्त-मौला या उर्दू सी तहजीब वाला।
सिनेमाई दुनिया
दरअसल हमारे चारों तरफ फैली हुई है। घरों
की साज-सज्जा से लेकर उनके बनावट तक, लोगों के हेयर स्टाइल से लेकर उनके पहनावे तक,
उनके बोलचाल से लेकर उठने-बैठने तक हर जगह मैंने सिनेमा का प्रभाव देखा है।
साहित्य को समाज
का दर्पण कहा गया है और अगर सिनेमा की उपयोगिता की बात करें तो मैं मानती हूँ इसने
साहित्य के काम को सरल कर दिया क्यूंकि यह एक मात्र ऐसा साधन है जो हर वर्ग तक एक समान
रूप से पहुंचा है। जहाँ कुछ फिल्में
सच्ची घटनाओं पर आधारित रही हैं वहीँ कुछ प्रेरणा सूचक भी। सिनेमा
को मैंने न सिर्फ हमारी कमजोर राजनैतिक पहलुओं को उजागर करते देखा है बल्कि पुलिस की
समस्या, समाज की रुढिवादिता जैसे अनेक सामाजिक समस्याओं पर भी इसने चोट किया है।
“मदर इंडिया”, “नया दौर”, “गाइड”, “इज़ाज़त”, “दामिनी”, “अंधा कानून” इत्यादि ये ऐसे
कई नाम हैं जो भिन्न-भिन्न विषयों अपनी गहरी छाप छोड़ती नज़र आई है।
सिनेमा को मैंने
सामजिक विषमताओं को उजागर करने के क्रम में कई ऐसे विषय को भी अपनाते देखा जिससे समाज ने दूरी बनायी है। मैं
उदहारण स्वरुप कुछ फिल्मों का नाम लेती हूँ जो मेरी देखी हुई है, “स्पर्श” एक ऐसे अंधे
आदमी की कहानी बताता है जो स्वाभिमानी है और साथ ही अंधों के समस्याओं पर काम कर रहा
है, वहीँ “फिर मिलेंगे” एक एड्स रोगी की कहानी है, जो ये साबित करना चाहता है कि एक
एड्स रोगी को भी सामान्य जीवन जीने का हक़ है। ये
दोनों फिल्में समाज को सकारात्मकत दृष्टिकोण देती है और बदलते समय के साथ कदम मिलाकर
चलने के लिए उत्साहित करती है। इसी कड़ी में एक और नाम जोड़ना चाहूंगी, फिल्म का नाम
था “क्या कहना” । इस फिल्म में
एक लड़की की कहानी जिस तरह से लोगों के सामने रखी गयी वो भारतीय समाज के लिए अछूत विषय था। हमारे
यहाँ माँ को भगवान् का दर्ज़ा तो दिया गया है पर उसके लिए एक दायरा है, वो है माँ का
शादी शुदा होना। इस फिल्म ने इसी
दायरे को तोड़ने की कोशिश की। इस
फिल्म के एक दृश्य में नायिका मन ही मन अपने आपको बिन ब्याही माँ होने पर पवित्र महसूस
करती है, वो एक ऐसा क्षण था जब वो संवाद सुनकर मैं अकेले में बहुत रोई। अकेले में रोने का मतलब था कि मैं खुल कर इस बात का समर्थन कर सकने में असमर्थ
थी पर जिस बात को मैं अब तक ग़लत नज़रिए से देखती थी उसके लिए संवेदना आना ही दर्शाता
है कि वो एक बदलाव की घड़ी थी। इसी
तरह की कई और फिल्में भी समय-समय पर वक़्त के साथ बदलने और समाज को आइना दिखाने को तैयार
रही हैं।
लोगों के परिधान
और उनके सामाजिक स्थिति पर भी सिनेमा का प्रभाव दिखा है। गुज़रे
वक़्त में जब नायिका पैंट-शर्ट या स्कर्ट पहन कर परदे पर दिखाई देती तो इसे हैरत भरी
नज़रों से देखा जाता था, पर आज ऐसा नहीं है। मुझे
भी ये जिज्ञासा रहती थी कि आखिर किस नायिका ने पहली बार ऐसा करने का दुस्साहस किया
होगा, किस फिल्म ने पहली बार भारतीय नारी के लाज को सिर्फ चोली, घाघरा या साड़ी का मोहताज़
नहीं रखा होगा। मुझे याद है कि मेरे गाँव
के इलाके में औरतें घाघरा पहनती थीं। अलग
अलग राज्यनुसार कहीं साड़ी तो कहीं सलवार-कमीज़ तो कहीं कुछ और ही परिधान हुआ करता था। अब
खुद की सहजता के अनुसार परिधान बदल गए हैं। सिनेमा
के प्रभाव से एक राज्य का परिधान दूसरे राज्य तक पहुँच गया है। अब
उनमे अंतर करना भी धीरे धीरे मुश्किल हो गया है। इतना
ही नहीं कई रीति-रिवाज़, त्यौहार इत्यादि भी सिनेमा के माध्यम से एक जगह से दूसरे जगह
पहुँच रहा है। ये भारत को जोड़ने
का एक महीन सा उदाहरण है और साथ ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक नया अध्याय भी लिखा
जा रहा है।
और अंत में
हिंदी सिनेमा में संवाद
और उसकी अदायगी के महत्व को नहीं नकारा जा सकता। ऐसे
दर्जनों नहीं सैकड़ों संवाद होंगे जो लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े की आज तक उनका जादू
बरकरार है। मेरे ज़ेहन में
खुद ही “मुग़ल-ए-आज़म” और “शोले” जैसी कई फिल्मों के संवाद अक्षरसः मौजूद है और यही इन्हें
कालजयी भी बनाती हैं पर हालिया फिल्मों में
संवाद अदायगी की ओर से ध्यान हटा लिया गया है जो मेरे दृष्टिकोण में एक कमजोर पहलू
है।
न जाने क्यूँ मगर मेरे अन्दर सिनेमा के लिए
शुरू से ही एक अलग झुकाव रहा है। नायिका
बनने की इच्छा कितनी रही या नहीं रही इस पर तो कभी विचार नहीं कर पायी पर एक दर्शक
के रूप में सिनेमा के लिए चाहत हमेसा बनी रही है। मेरे
अन्दर की बच्ची ही सिर्फ सिनेमा पर नहीं हँसी या रोई है बल्कि आज भी कई दृश्य मुझे
विचलित करते हैं तो कुछ घंटो या दिनों तक मुझे खुश और तरोताजा रखते हैं। “हम आपके दिल
में रहते हैं” फिल्म का एक दृश्य मुझे इतना मार्मिक लगता है कि मैं आज तक वो दृश्य
दखने की हिम्मत नहीं जुटा पायी हूँ। ऐसे
तो न जाने कितने और दृष्टांत आते जाएं और मैं लिखती जाऊं।
हालांकि आज के
दौर में लोग तकनीक को बेहतर समझने लगे हैं और प्रसारण के अनेक माध्यम हो जाने के कारण
एक साथ देखने की परिपाटी भी लगभग समाप्तप्राय है, और इस वज़ह से भावनाओं का वो ज्वार-भाटा
नहीं दीखता पर सिनेमा का जादू अब भी कायम है और आशा करती हूँ कि ये और नए आयाम तक पहुंचेगी।
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वर्षा गोरछिया “सत्या”
varshagorchhia89@gmail.com
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