हिंदी टाकीज 2 (7) : सिनेमा की पगडंडी पर ज़िंदगी का सफ़र -उमेश पंत
हिंदी टाकीज 2 का सिलसिला चल रहा है। इस बार उमेश पंत यादों की गलियों में लौटे है और वहां से अपने अनुभवों को लेकर आए हैं। उमेश पंत लगातार लिख रहे हैं। विभिन्न विधाओं में में अपने कौशल से वे हमें आकरूर्िात कर रहे हैं। यहां उन्होंने सिनेमा के प्रति अपने लगाव की रोचक कहानी लिखी है,जो उनकी पीढ़ी के युवकों की सोच और अनुभव से मेल खा सकती है।
सिनेमा की पगडंडी पर ज़िंदगी का सफ़र
-उमेश पंत
मैं इस वक्त
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में हूं।अपने ननिहाल में।कुछ हफ्ते भर पहले रिलीज़ हुई एनएच
10 देखने का मन है।पर अफ़सोस कि मैं उसे बड़े परदे पर नहीं देख
पाऊंगा।क्यूंकि ज़िला मुख्यालय होते हुए भी यहां एक सिनेमाघर नहीं है जहां ताज़ा
रिलीज़ हुई मुख्यधारा की फ़िल्में देखी जा सकें।एक पुराना जर्ज़र पड़ा सिनेमाघर है
जिसके बारे में मेरी मामा की लड़की ने मुझे अभी अभी बताया है - “वहां तो बस बिहारी
(बिहार से आये मजदूर) ही जाते हैं ..।वहां
जैसी फ़िल्में लगती हैं उनके पोस्टर तक देखने में शर्म आती है”।
28 की उम्र में
पूरे दस साल बाद आज मैं अपने ननिहाल आया हूं..।सिनेमा को लेकर दस साल पहले जो
हालात थे आज भी एकदम वही हैं.।आज भी यहां कोई सिनेमाघर नहीं है जहां मैं एनएच 10
देख सकूं।हाँ अब बदला ये है कि हम वीसीआर के ज़माने से पेन ड्राइव के ज़माने में आ
चुके हैं।एक आठ जीबी की पेन ड्राइव में मेरे मामा के लड़के ने अभी अभी मुझे कुछ
फ़िल्में लाकर दी हैं जिनमे यही कोई हफ्तेभर पहले रिलीज़ हुई एनएच 10 भी है।उसने
बताया है कि- “प्रिंट उतना अच्छा नहीं है.।पर आप देख सकते हो.” हां सुकून यही है
कि मैं देख सकता हूं..।पाइरेसी को लेकर होने वाली सारी बहसों को अपने सिनेमाप्रेम
के खातिर होम करने को मैं तैयार हूं और मजबूर भी।यहां सिनेमा देखने का ज़रा भी
कल्चर अगर जिंदा है तो उसमें पाइरेसी की अपनी भूमिका है।ये बात भले ही अच्छी न
लगती हो पर बुरी तो बिल्कुल नहीं है.
शटर वाले टीवी में सिनेमा का दौर
मेरा पूरा बचपन
बड़े परदे से महरूम रहा।बचपन में हम रविवार की शाम चार बजे का इंतज़ार किया करते।ये
वक्त दूरदर्शन पर सिनेमा का वक्त होता था।हमारे लिए हफ्ते भर के इंतज़ार के बाद
आनेवाला एक कीमती वक्त।तब शटर वाले ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी हुआ करते थे।गाँव में
ऐसे तीन या चार टीवी थे।हम मल्ली केल्पाल वाले ताउजी के यहां टीवी देखने जाते।उनके
पास ऐसा ही एक बड़ा शटर वाला टीवी था।रविवार शाम चार बजे से कुछ पहले उनके ठीक-ठाक
बड़े हॉल (ड्राइंग रूम) में वो लकड़ी का शटर खुलता..।वही हमारे सिनेमा का बड़ा पर्दा
था।वो हॉल सिनेमा हॉल से कम नहीं था।तकरीबन तीस-चालीस लोग उस हॉल में रविवार के
दिन फिल्म देखने जुट जाते थे।कमरे में पैर रखने की जगह नहीं होती।दूरदर्शन पर दिखाये जाने वाले सिनेमा के इतर भी कोई सिनेमा
होता है, ये हमें मालूम तक नहीं था।मेरी स्मृति में मेरी देखी गई पहली फिल्म ऐरावत
हाथी थी।तब नयी फिल्मों के गाने फिल्म की रिलीज़ से पहले सुनने के लिए कोई यू-ट्यूब
जैसा करिश्मा नहीं था।इंटरनेट की कल्पना भी तब कहां की जा सकती थी।ये
पीसीओ-एसटीडी-आइएसडी लिखे टेलीफ़ोन बूथों का दौर था।क्यूंकि हम गाँव में थे इसलिए
फोन नाम का ये शब्द भी हमारी ज़िन्दगी में नहीं था।बस फिल्मों में था।पर इसकी ज़रुरत
ही कहां थी ? दूरदर्शन पर सुबह सुबह आने वाला वो गीतों का कार्यक्रम रंगोली ही
हमारा यूट्यूब था।उस दौर के सारे हीरो हीरोइन हमारे लिए रंगोली में सिमटे थे।और
दूरदर्शन देख के हमें लगता था- “तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त”।ये सिनेमाई जगत से मेरे
व्यक्तिगत जुड़ाव का पहला चरण था।शटर वाले टीवी में सिनेमा का दौर.
फिर वीसीआर आया ज़िन्दगी में
सिनेमा से मेरे
जुड़ाव का दूसरा चरण गाँव से कस्बे में पलायन के साथ शुरू हुआ।इस दौर में एक संयुक्त
परिवार टूटकर एक एकाकी परिवार में ढल गया और उसने गाँव चिटगल को छोड़कर कस्बे
गंगोलीहाट में अपना आशियाना बना लिया।नए घर में नया टीवी आया और उस नए टीवी के साथ
आई नयी तकनीक।कस्बे में आकर पता चला कि ‘वीसीआर’ नाम की कोई चीज़ होती है जिसमें
देसी ही नहीं अंग्रेज़ी फ़िल्में भी देखी जा सकती हैं।कहीं से उड़ती खबर ये भी आई कि
अंग्रेज़ी फ़िल्में अश्लील होती हैं इसलिए उन्हें परिवार के साथ देखना हममें से किसी की सेहत के लिए अच्छा नहीं
है।हांलाकि अब तक ये बात पापा-मम्मी हमें कहे-अनकहे समझा चुके थे कि फ़िल्में वही
देखते हैं जो आवारा-लफंगे होते हैं।हम उनकी नज़रों में आवारा-लफंगे नहीं बनना चाहते
थे इसलिए मम्मी-पापा जिस दिन घर पर नहीं होते उस दिन दीदी के पैसे से हम वीसीआर
किराए पर लाते और उसके साथ हिन्दी फिल्मों की चार-पांच कसेट्स भी।दिल वाले
दुल्हनियां ले जाएंगे, कभी खुशी कभी गम, क़यामत और न जाने क्या क्या.।फिर रात भर
चोरी-छिपे फ़िल्मी मैराथन चलता।हमारे पास तब भी कलर टीवी नहीं था,इसलिए उस दिन के
लिए वीसीआर के साथ कलर टीवी भी किराए पर आता।इस तरह चोरी-छिपे हमने अपने ही घर में
कई फ़िल्में देखी और हम अपने पिताजी की नज़रों में आवारा-लफंगे बनने से बचे रहे।उनके
लौटने तक ऐसी किसी भी सिनेमाई खुराफात के सारे निशान मिटा दिए जाते।ये फ़िल्में
देखने का किराया युग था।इस सिनेमाई चोरी का अपना ही लुत्फ़ था।
हां कस्बे में
आकर बदला ये भी कि हम फ़िल्मी गाने सुनने के लिए सिर्फ रंगोली पर निर्भर नहीं रह गए
थे।हमारी ज़िंदगी में ‘वॉकमेन’ नाम का एक जादुई यंत्र शामिल हो चुका था।और कैसेट नाम की प्रणाली फिल्मी
गीतों को ‘साइड ए और साइड बी’ के ज़रिये हमारे कानों तक पहुचाने लगी थी।ये दौर मुकेश, रफ़ी के गीतों के जीवन
में आगमन का दौर था।जगजीत सिंह कानों में आकर कह जाने लगे थे- “कल चौधवी की रात
थी”।शब भर कानों की दुनिया में उनका चर्चा रहने लगा था।
नब्बे के दशक
के बीतते भी कुछ चीजें हम बस सिनेमा में ही देखा करते।उन चीज़ों में से एक ट्रेन भी
थी।रेल की छत पर छैंय्या छैंय्या करते शाहरुख़ को देख पटरी पर सरसराती रेल में
बैठने का सपना सिनेमा की बदौलत ही देखा था।हवाई जहाज़ तो खैर सपनों से ऊपर उड़ कर
चला जाता था।ऊंची ऊंची इमारतें जिनमें बटन दबाकर नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे
पहुंचा जा सकता था मुझे एकदम टाइम मशीन सी लगती।हमारी ज़िंदगी में कोई ऐसी लिफ्ट
कहाँ थी जो हमें आकाश छूने का अहसास दिला पाती।ये अहसास हमें फिल्मों से मिलता।सिनेमा
दुनिया में अनदेखी रह गई चीज़ों तक पहुंच का एक अकेला ज़रिया था तब।वो केवल और केवल
मनोरंजन था।जो सिनेमा में होता है वो सच में नहीं होता, ये हमारी धारणा थी।क़त्ल,
बलात्कार, और यहां तक कि प्यार भी असल दुनिया की चीज़ नहीं थी।सिनेमा की दुनिया में
ही ये सब संभव था।सिनेमा की दुनिया कितनी अनोखी दुनिया थी।
सिनेमा हॉल बनाम साइबर कैफे
हाईस्कूल के
बाद अपने छोटे कस्बे गंगोलीहाट को छोड़कर हम जिला मुख्यालय पिथौरागढ़ तक आ पहुंचे थे।पिथौरागढ़
के उन दो सालों में अपने मामा के घर जाने के लिए हम ‘सिनेमा लाइन’ से ही गुजरते।उस
सिनेमा लाइन के नामकरण की वजह जानने की ललक में एक दिन उस इमारत को भी देखा जिसे
सिनेमा हॉल कहा जाता है।एक जर्ज़र.।टूटी फूटी सी इमारत, जिसके बाहर कटे-फटे से
खस्ताहाल पोस्टर लगे हुए थे।उन कटे फटे पोस्टरों पर कटे फटे कपड़ों वाली लड़कियों के
चित्र देखकर हम समझ चुके थे कि ये एक अच्छी जगह नहीं है।शायद इसीलिए पापा कहते थे
कि सिनेमा देखने वाले आवारा लफंगे होते हैं।इसके बाद से हमेशा सिनेमा लाइन से
गुजरने के बावजूद हमने कभी उस बुरी जगह को नज़रभर भी नहीं देखा।सिनेमा हॉल से ये
पहला तार्रुफ़ था।कई बार जो हमें सिखाया जाता है वो हमें कई नए अनुभवों से वंचित कर
देता है।
पिथौरागढ़ में
इंटर करते हुए दो सालों में शायद ही कोई फिल्म देखी हो।हां बीच बीच में क्लास में
बच्चों की खुसर-फुसर में कभी साइबर कैफे का नाम सुना था।क्लास के खाली वक्त में
बच्चे चस्का ले लेकर कुछ फिल्मों का ज़िक्र किया करते।हम क्लास के अच्छे बच्चे थे
और कुछ मामलों में सीधे भी।तब उनकी बातें कुछ समझ नहीं आती थी।बस यही समझ आता कि
ये जो बातें हो रही हैं ये किसी अच्छी चीज़ के बारे में नहीं हो रही.।बाद में पता
चला कि ये पोर्न फ़िल्में थी।शहर में खुले नए नए साइबर कैफे का पूरा कारोबार इन्हीं
फिल्मों पर टिका था।तब फेसबुक और ट्विटर नहीं था।ऑरकुट था तो पर उसकी नज़र अभी इस
पहाड़ी कस्बे में नहीं पहुंची थी।साइबर कैफे वाली ये फ़िल्में उस कस्बे में रहते हुए
हमने कभी नहीं देखी।और इस तरह सिनेमा की ये धारा हमारी नज़रों को गीला नहीं कर पाई।सिनेमा
से जुड़ने का ये तीसरा चरण पिथौरागढ़ छोड़ने के साथ साथ बिना किसी ख़ास उपलब्धि के
ख़त्म हो गया।
जब पहली बार देखा बड़ा पर्दा
पहाड़ का ये बालक दिल्ली के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रवेश पा चुका था।जामिया
में रचनात्मक लेखन में ओनर्स करने का ऑनर उसे मिल चुका था।और स्नातक के इस दौर में
पहली बार उसे सिनेमा हॉल में फिल्म देखने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था।फिल्म का
नाम था – नो एंट्री।नेहरू प्लेस के पारस
सिनेमा में देखी जा रही इस फिल्म को पहली पंक्ति में बैठकर देखने का दुर्भाग्य भी
इस सौभाग्य में शामिल हुआ।बड़े पर्दे पर फिल्म देखना सच में एक अनूठा अनुभव था।जैसे
आप सचमुच उस दुनिया का हिस्सा हो गए हों।नो एंट्री के ज़रिये हमने उस जमात में
एंट्री कर ली जिसने बड़े पर्दे पर सिनेमा देखा था।छोटी जगह से आये इस बालक के लिए
ये छोटी सी बात भी तब बड़ी बात थी।
विश्व सिनेमा की दुनिया में पहला कदम
खैर स्नातक के
दौर तक भी विश्व सिनेमा से कोई परिचय दूर दूर तक नहीं हो पाया था।‘अंग्रेज़ी फिल्मों’ के लिए वो हिकारत अब
भी बाकी थी।लेकिन यहां जामिया के फाउन्टेन लॉन में बैठे कुछ ऐसा दिखाई दे जाता था
जिसने अन्दर ही अन्दर कुछ बदलना शुरू किया।लॉन से कुछ आगे ऑडिटोरियम के पास कुछ
लड़के-लड़कियां बड़े बड़े कैमरों के साथ कुछ कुछ करते दिखाई देने लगे थे।कुछ लड़के-
लड़कियों के हाथों में बड़े बड़े बोर्ड से हुआ करते जिनमें एक चमकीला पदार्थ लगा रहता।ये
लोग इस बोर्ड को कुछ अन्य लड़के-लड़कियों के चेहरों पर चमकाते और दूर कैमरे के पीछे
कोई होता जो उन्हें तरह तरह के निर्देश दिया करता।वक्त बीतने पर पता चला कि ये
एमसीआरसी में पढने वाले लड़के-लडकियां हैं जो फ़िल्में बनाते हैं।इन लोगों में एक
ख़ास तरह का आत्मविश्वास हुआ करता।और ये जो करते वो करते हुए बड़े खुश दिखाई देते।एक
दिन यूं ही तय हो गया कि मुझे भी इनमें शामिल होना है।एक भरोसा अन्दर से था कि एक
न एक दिन ये ज़रूर होगा।
जिस दिन
एमसीआरसी के इंट्रेंस का परिणाम आया उस दिन दिल बहुत धक-धक कर रहा था।बोर्ड पर
अपना नाम देखा तो खुशी की एक लहर सी दौड़ गई थी।
सिनेमा अब पढ़ाई
का हिस्सा था।ये वहम छूट गया था कि सिनेमा देखने वाले आवारा-लफंगे होते हैं।और ये
भी कि आवारा होना खराब ही होता है।एमसीआर सी के ओल्ड स्टूडियो में सिटीज़न केन से
विश्व सिनेमा की शुरुआत हुई।फिर रोशोमोन, डबल इन्डेम्निटी, रेयर विंडो, मैन विद
मूवी कैमरा और न जाने कितनी फ़िल्में उस ओल्ड स्टूडियो में हमने देखी।विश्व सिनेमा
की तकनीक पर न जाने कितनी बहसें।फाइव सी’ज़ ऑफ़ सिनेमा सरीखी किताबों का घोटा लगाया।तारकोवस्की, गोदार्द, क्रिस्टोफर नोलन,
कुरुसावा, वान्कार्वाई, माजिद मज़ीदी जैसे अजनबी नामों से परिचय हुआ तो सिनेमा का
फलक कितना बड़ा होता है ये समझ आने लगा।दूसरा साल आते आते विश्व सिनेमा देखने का
चस्का लग चुका था।अब पुराने एसएलआर कैमरे हम इस्तेमाल करने लगे थे।डार्क रूम में जाकर
अपनी खींची आधी-अधूरी सी तस्वीरों के प्रिंट प्रिंटिंग पेपर पे निकालने लगे थे।एसआरटू,
एसआरथ्री और ऐरी जैसे फिल्म कैमरों से खेलने लगे थे।फिल्म रोल को कैमरे में रोल
करने की तकनीक हमें आने लगी थी।जिस बालक ने सिनेमा हॉल पहली बार ग्रेजुएशन में आकर
देखा वो अब फ़िल्में बनाने की बात सोचने लगा था।
कोर्स ख़त्म
होते होते हमने कुछ अधपकी सी फ़िल्में बनाई जो अब बचकानी सी लगती हैं।पर फिल्म
बनाने की उस पूरी प्रक्रिया में सीखा कि परदे पर जो चीज़ें एक प्रवाह में पहती नज़र
आती हैं उस प्रवाह की रचना-प्रक्रिया कितनी तकनीकी होती है।उसके पीछे कितना बड़ा
विज्ञान काम करता है।कितने लोगों की मेहनत उस सिनेमाई अनुभव को मुकम्मल शक्ल देती
है।उपकरणों और इंसानों की इस रचनात्मक जुगलबंदी से रचा जाने वाला सिनेमाई संसार
किसी नए लोक को रचने से कम कहां है ?
पहली बार
दिल्ली में रहते हुए जब ओशियान फिल्म फेस्टिवल में दुनिया भर की फ़िल्में देखी तो
लगा सिनेमा ज़िंदगी के एक जश्न की तरह ही है।सैकड़ों लोग उस सिनेमा के त्यौहार में
देश के न जाने कितने हिस्सों से जुड़ जाते हैं।फिर मुंबई के फिल्म फेस्टिवल मामी
में लगातार दो बार शिरकत की।इन फेस्टिवल में देखी हर फिल्म के साथ फिल्मों के लिए
दीवानगी बढ़ती चली गई।लगा कि हमारे दर्द, हमारे अकेलेपन को भी कितने अच्छे से समझती
हैं ये फ़िल्में।और ये भी कि दुनियाभर में चाहे भाषा, रंग, रूप की कितनी ही
विषमताएं हों पर भावनाएं हर जगह एक सी हैं हर जगह।मुस्कुराहटों और आंसुओं की कोई
सरहद नहीं होती।हर किसी के होंठों में वो एक ही रंग की लगती हैं, हर किसी की आंखों
में एकदम एक सी दिखाई देती हैं।फिल्मों को गहराई से समझना दरअसल उस अपनेपन को
आत्मसात करना है जिसके साए में पूरी दुनिया अपनी सी लगती है।
और अंत में
फिल्मों से इस
जुड़ाव ने ज़िंदगी को कई तरह से समझने में मदद की है।कई तरह के मनोभावों को जानने का
मौका दिया जो अन्यथा शायद ही समझे जाते।दुनिया के कई कोने जो शायद ही कभी देखे जा
सकेंगे फिल्मों की बदौलत उनकी झलक पाई है।फिल्मों ने रिश्तों को समझने में मदद की
है और उनकी जटिल दुनिया को कुछ हद तक आसान किया है।फ़िल्मी दुनिया से जुड़ाव के इस
सफ़र में अभी कई चरणों से गुजरना बाकी है।
अब तक यही
जाना-बूझा है कि अच्छे सिनेमा का एक अच्छा दर्शक होना जीवन की एक बड़ी उपलब्धि होता
है।अच्छे सिनेमा का अच्छा दर्शक होना दुनिया की एक बेहतर समझ बनाने का एक बेहतरीन
जरिया है।
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